मैरिटल रेप क़ानून पर केंद्र सरकार की चुप्पी के बावजूद सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट में मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने की मांग वाली कई याचिकाएं दायर हैं, जिन पर अदालत के कहने के बावजूद केंद्र सरकार ने अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया है. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने इस बारे में कहा कि अगर सरकार ने हलफ़नामा नहीं देती, तब भी उन्हें क़ानूनी पहलू पर बात करनी होगी.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (18 अगस्त) को यह स्पष्ट कर दिया कि वह केंद्र सरकार की चुप्पी के बावजूद मैरिटल रेप मामले में आगे बढ़गी और विचार करेगी इस आरोप में पतियों को कानूनी प्रक्रिया से छूट मिलेगी या नहीं.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, शीर्ष अदालत ने कहा है कि भले ही केंद्र सरकार की ओर से इस मामले पर कोई राय नहीं जाहिर की गई है, लेकिन अदालत पूरी तरह से इस कानूनी मसले को ध्यान में रखकर आगे बढ़ेगी.

इस संबंध में भारत के मुख्य न्यायधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ‘यह कानून का मामला है. अगर उन्होंने (सरकार) ने हलफनामा दाखिल नहीं करने का फैसला किया है, तो भी उन्हें कानूनी पहलू पर बात करनी होगी.’

मालूम हो कि कोर्ट का ये बयान एक याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व कर रही वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की ओर से उठाई उस मांग के बाद सामने आया है, जिसमें उन्होंने इस मसले पर जल्द सुनवाई की बात कही थी. इस कार्यवाही के दौरान एक अन्य वकील ने अदालत को बताया कि कई अवसरों के बावजूद केंद्र ने अभी तक इस मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए हलफनामा दाखिल नहीं किया है.

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए सीजेआई की अगुवाई वाली पीठ, जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे, ने कहा कि ये दंड संहिता के कानूनी प्रावधान को चुनौती देने वाला मामला है, जो कानूनी प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ेगा.

गौरतलब है कि ये मामला बुधवार को अदालत की कार्य सूची में शामिल था, लेकिन इस पर सुनवाई नहीं हो सकी.

सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में आईपीसी की धारा 375 के तहत अपवाद 2 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार कर रहा है, जो एक पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने के लिए मुकदमा चलाने से छूट देती है. इन जनहित याचिकाओं (पीआईएल) में तर्क दिया गया है कि यह अपवाद उन विवाहित महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण है, जिनका उनके पति द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है.

इस मुद्दे में मई 2022 से दिल्ली उच्च न्यायालय का खंडित फैसला भी शामिल है, जो सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के लिए लंबित है. उस फैसले में हाईकोर्ट की पीठ के एक जज ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत दिए गए अपवाद के प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा था कि यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है.

ज्ञात हो कि इससे पहले केंद्र ने 2017 के अपने हलफनामे में याचिकाकर्ताओं की दलीलों का विरोध करते हुए कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो ‘विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकती है.’

हालांकि, केंद्र ने बाद में अदालत से कहा था कि वह याचिकाओं पर अपने पहले के रुख पर ‘फिर से विचार’ कर रहा है क्योंकि उसे कई साल पहले दायर हलफनामे में रिकॉर्ड में लाया गया था.

केंद्र ने इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए अदालत से और समय देने का आग्रह किया था, जिसे पीठ ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि मौजूदा मामले को अंतहीन रूप से स्थगित करना संभव नहीं है.

लंबित मामलों में एक व्यक्ति की अपील भी है, जिसकी पत्नी के साथ बलात्कार के मुकदमे को मार्च 2022 में एक महत्वपूर्ण निर्णय में कर्नाटक हाईकोर्ट ने धारा 375 के अपवाद के बावजूद यह कहते हुए स्वीकारा था कि विवाह की संस्था के नाम पर किसी महिला पर हमला करने के लिए कोई पुरुष विशेषाधिकार या लाइसेंस नहीं दिया जा सकता.

इस मुकदमे पर सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2022 में रोक लगा दी थी. भाजपा के नेतृत्व वाली तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने नवंबर 2022 में एक हलफनामा दायर कर पति के अभियोजन का समर्थन करते हुए कहा था कि आईपीसी पत्नी से बलात्कार के लिए पति के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति देता है. हालांकि, इसके बाद बनी कर्नाटक की नई सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि वह इस रुख का समर्थन करती है या नहीं.

जनवरी 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से प्रासंगिक सामग्रियों के एक सामान्य दस्तावेज़ को संकलित करके कार्यवाही को सुव्यवस्थित करने के लिए अधिवक्ता पूजा धर और जयकृति एस. जडेजा को नोडल वकील नियुक्त किया था.

केंद्र सरकार ने अभी तक इस मामले पर अपना रुख अंतिम रुख  स्पष्ट नहीं किया है. पिछले साल सरकार अदालत को सूचित किया था कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के महत्वपूर्ण सामाजिक प्रभाव होंगे.

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया था कि इस मुद्दे को केवल कानूनी सिद्धांतों के चश्मे से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि व्यापक सामाजिक परिणामों पर भी विचार किया जाना चाहिए. इसके बावजूद केंद्र की ओर से अपनी अंतिम स्थिति स्पष्ट करने के लिए कोई हलफनामा दाखिल नहीं किया गया है.

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2022 में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के मामले में कहा था कि पति का महिला पर यौन हमला ‘रेप’ का रूप ले सकता है और रेप की परिभाषा में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत ‘मैरिटल रेप’ शामिल होना चाहिए.