सुप्रीम कोर्ट ने कहा- चाइल्ड पॉर्नोग्राफी डाउनलोड करना और देखना पॉक्सो के तहत अपराध

मद्रास हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में चेन्नई के 28 वर्षीय व्यक्ति को दोषमुक्त करते हुए कहा था कि निजी तौर पर बाल पॉर्नोग्राफी देखना पॉक्सो एक्ट के दायरे में नहीं आता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को रद्द करते हुए गंभीर ग़लती बताया है.

(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (23 सितंबर) को चाइल्‍ड पॉर्नोग्राफी से जुड़े एक अहम फैसले में मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि चाइल्ड पॉर्नोग्राफी डाउनलोड करना और उसे अपने पास रखना कोई अपराध नहीं है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत ने साफ किया कि चाइल्‍ड पॉर्नोग्राफी डाउनलोड करना और उसे देखना यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत अपराध की श्रेणी में आता है.

इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में चेन्नई के 28 वर्षीय व्यक्ति को दोषमुक्त करते हुए कहा था कि निजी तौर पर इस तरह की पॉर्नोग्राफी देखना पॉक्सो एक्ट के दायरे में नहीं आता है.

मालूम हो कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने पॉक्सो अधिनियम के विभिन्न पहलुओं पर गौर करते हुए कहा, ‘उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में गंभीर गलती की है . हमारे पास उस फैसले को रद्द करने और इसे फिर से सेशन कोर्ट भेजने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है.’

इस मामले में अदालत ने कहा, ‘हम संसद को सुझाव देते हैं कि पॉक्सो एक्ट में बदलाव करें और इसके बाद पॉर्नोग्राफी शब्द की जगह बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री (चाइल्ड सेक्शुअली एब्यूसिव एंड एक्सप्लॉइटेटिव मटेरियल) का इस्तेमाल किया जाए. इस बदलाव से यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये महज अश्लील कंटेंट नहीं, बच्चे के साथ हुई घटना का एक रिकॉर्ड है. वो घटना जिसमें बच्चे का यौन शोषण हुआ या फिर ऐसे शोषण को विजुअली दिखाया गया हो. इसके लिए अध्यादेश भी लाया जा सकता है.’

फैसले में कहा गया है कि ‘चाइल्ड पॉर्नोग्राफ़ी’ शब्द का उपयोग अपराध को कमज़ोर बना सकता है, क्योंकि पॉर्नोग्राफ़ी को अक्सर वयस्कों के बीच सहमति से किए गए कृत्य के रूप में देखा जाता है. कोर्ट ने अदालतों से भी इसका उपयोग बंद करने को कहा है.

पीठ ने कहा, ‘ये शब्द शोषण-उत्पीड़न को कम कर देता है, क्योंकि यह शब्द पॉर्नोग्राफी के साथ सहमति को जोड़ता है. ये एक ऐसा आचरण है, जो कानूनी हो सकता है, जिसमें स्वचेछा से भाग लिया जा सकता है और जिसका विषय ऐसा करने की सहमति देने में सक्षम है.’

ज्ञात हो कि इससे पहले मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस एन. आनंद वेंकटेश की पीठ ने तर्क दिया कि अभियुक्त ने केवल सामग्री डाउनलोड की थी और निजी तौर पर पॉर्नोग्राफी देखी थी और इसे न तो प्रकाशित किया गया था और न ही दूसरों के लिए प्रसारित किया गया था. ‘चूंकि उसने पॉर्नोग्राफिक उद्देश्यों के लिए किसी बच्चे या बच्चों का इस्तेमाल नहीं किया है, इसलिए इसे अभियुक्त के नैतिक पतन के रूप में ही समझा जा सकता है,’ अदालत ने कहा था.

गौरतलब है कि मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी.  अपनी याचिका में एनजीओ कहा था कि हाईकोर्ट का आदेश चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को बढ़ावा दे सकता है. फैसले से ऐसा लगेगा कि ऐसा कंटेंट डाउनलोड करने और रखने वाले लोगों पर मुकदमा नहीं चलाया जाएगा.

इस मामले में सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 12 अगस्त को फैसला सुरक्षित रख लिया था.

अब मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पॉक्सो एक्ट की धारा 15 के अनुसार, चाइल्ड पॉर्न देखना, रखना, प्रकाशित करना या उसे प्रसारित करना अपराध है. पॉक्सो एक्ट की धारा 15(1) बच्चों से जुड़े अश्लील कंटेंट को न हटाने, नष्ट न करने या उसकी जानकारी न देने पर सजा का प्रावधान करती है. वहीं, धारा 15(2) चाइल्ड पॉर्न से जुड़े कंटेंट को प्रसारित करने को अपराध बनाती है. जबकि, धारा 15(3) में कारोबारी मकसद से चाइल्ड पॉर्न को स्टोर करने को अपराध के दायरे में लाती है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पॉक्सो एक्ट की उपधारा 1, 2 और 3 एक-दूसरे से अलग हैं. अगर कोई मामला उपधारा 1, 2 और 3 में नहीं बनता है तो इसका मतलब है ये नहीं है कि वो मामला धारा 15 के अंतर्गत नहीं आता. अदालत ने कहा कि पॉक्सो के दायरे में आने के लिए किसी भी बाल अश्लील सामग्री के वास्तविक प्रसारण की कोई जरूरत नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस और अदालतों से चाइल्ड पॉर्नोग्राफ़ी से जुड़े मामले को देखते हुए सावधान रहने को कहा. अदालत ने कहा कि इस मामले में अगर यह पाया जाए कि धारा 15 की विशेष उप-धारा नहीं लागू हो रही है, तो इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए कि कोई अपराध नहीं है. पीठ ने कहा, ‘हमारा मानना ​​है कि जहां भी कोई व्यक्ति किसी भी बाल अश्लील सामग्री को देखने, प्रसारित करने या प्रदर्शित करने आदि जैसी किसी भी गतिविधि में शामिल होता है, जो वास्तव में किसी भी डिवाइस या किसी भी रूप या तरीके से अपने पास या संग्रहीत किए बिना होता है, तो ये आपराधिक कृत्य है. पॉक्सो की धारा 15 के संदर्भ में यह अभी भी ‘कब्जे’ के समान है, अगर उसने ऐसी सामग्री पर अलग-अलग स्तर का नियंत्रण रखा गया हो…’

इसे और स्पष्ट करते हुए अदालत ने फैसले में कहा, ‘उदाहरण के लिए यदि ‘ए’ व्यक्ति नियमित रूप से इंटरनेट पर बच्चों की अश्लील सामग्री देखता है, लेकिन उसे कभी भी अपने मोबाइल में डाउनलोड या स्टोर नहीं करता है, तो यहां ‘ए’ को अब भी ऐसी सामग्री के कब्जे में कहा जाएगा, क्योंकि देखते समय वह ऐसी सामग्री पर काफी हद तक नियंत्रण रखता है, जिसमें इसे साझा करना, हटाना, वॉल्यूम बदलना आदि शामिल है, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है. इसके अलावा, चूंकि वह स्वयं अपनी इच्छा से ऐसी सामग्री देख रहा है, इसलिए ऐसा माना जाता है कि उसे ऐसी सामग्री पर नियंत्रण रखने का ज्ञान है.’

कोर्ट के अनुसार, बच्चों के खिलाफ अपराध सिर्फ यौन शोषण तक ही सीमित नहीं रहते हैं. ‘उनके वीडियो, फोटोग्राफ और रिकॉर्डिंग के जरिये ये शोषण आगे भी चलता है. ये कंटेंट साइबर स्पेस में मौजूद रहते हैं, आसानी से किसी को भी मिल जाते हैं. ऐसे मटेरियल अनिश्चितकाल तक नुकसान पहुंचाते हैं. ये यौन शोषण पर ही खत्म नहीं होता है, जब-जब ये कंटेंट शेयर किया जाता है और देखा जाता है, तब-तब बच्चे की मर्यादा और अधिकारों का उल्लंघन होता है. हमें एक समाज के तौर पर गंभीरता से इस विषय पर विचार करना होगा,’ कोर्ट ने कहा.