अवध: कभी सूबे का नाम था, मगर अब तहज़ीब ही पहचान है

अवध क्षेत्र का दुर्भाग्य कि सूबे के रूप में उसे कुल साढ़े तीन सौ साल की उम्र भी नसीब नहीं हुई. यह और बात है कि इसी अवधि में उसने देश-दुनिया को ऐसी लासानी गंगा-जमुनी तहज़ीब दी, जिसकी महक है कि उसके दुश्मनों की तमाम कोशिशों के बावजूद जाती ही नहीं.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: uptourism.gov.in)

उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र (हां, क्षेत्र या अंचल ही कहते हैं उसे, क्योंकि सूबा तो अब वह रह नहीं गया है) का दुर्भाग्य कि सूबे के रूप में उसे कुल साढ़े तीन सौ साल की उम्र भी नसीब नहीं हुई. यह और बात है कि इन साढ़े तीन सौ सालों में ही उसने देश-दुनिया को ऐसी लासानी गंगा-जमुनी तहजीब दी, जिसकी महक है कि उसके दुश्मनों (हालांकि इस तहजीब में दुश्मनों की कोई अवधारणा ही नहीं है) की तमाम कोशिशों के बावजूद जाती ही नहीं.

कहते हैं कि ‘अवध’ शब्द अयोध्या से ही निकला और उस ‘कोशल’ का स्थानापन्न है, जो प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों (राज्यों जैसी प्रशासनिक इकाइयों) में से एक था और जिसकी एक राजधानी अयोध्या तो दूसरी श्रावस्ती में थी.

इसीलिए अयोध्या की राजगद्दी पर आसीन उस काल के शासकों को ‘कोशलाधीश’ भी कहा जाता है और ‘कोशलेश’ भी. यहां याद किया जा सकता है कि तुलसीदास के राम कहीं ‘कोशलेश दशरथ के जाये’ कहकर अपना परिचय देते हैं, तो कहीं उनकी भक्ति कामना में डूबे तुलसीदास चाहते हैं कि वे ‘अवधेस के बालक’ के रूप में उनके मंदिर में बिहरें.

दरअसल, तुलसीदास का वक्त मुगल बादशाह अकबर का वक्त भी था और तब तक ‘सूबा-ए-अवध’ अस्तित्व में आ चुका था. ऐसे में कोशलेश दशरथ को अवधेश होने से कौन रोक सकता था?

जानना दिलचस्प है कि कोशल से अवध तक की इस यात्रा में अनेक पड़ाव और उतार-चढ़ाव हैं. इतने कि कोई उन सबकी चर्चा करने चले तो समय कम पड़ जाए. लेकिन कम पड़ जाए तो पड़ जाए, अवध की चर्चा की शुरुआत यहीं से लाजिमी है कि मुगल बादशाह अकबर (सत्ताकाल : 1556-1605) ने 1580 में अपनी सल्तनत में इस नाम का एक सूबा बनाया- सूबा-ए-अवध.

यों मिला ब्रेक

इतिहासकारों के अनुसार, अकबर ने पांच नवंबर, 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में शेरशाह सूरी के वंशज आदिलशाह के वजीर-ए-आजम कर्नल हेमू को शिकस्त दी, तो मुगल सल्तनत की कमजोर होती नींव को ही मजबूत नहीं किया- बंगाल से सिंध व काबुल से अहमदनगर तक उसका परचम फहरा दिया. इसके बाद बेहतर शासन व्यवस्था के लिए इस सल्तनत को सूबों में बांटा तो उत्तरी क्षेत्र के सूबे का नाम अवध रखा.

ज्ञातव्य है कि 1602 तक इस सल्तनत के सूबों की संख्या 12 से बढ़कर 18 हो गई थी और अवध के अलावा अन्य सूबों के नाम थे: काबुल, लाहौर, मुल्तान, दिल्ली, अकबराबाद (आगरा), इलाहाबाद, अजमेर, गुजरात, मालवा, अजीमाबाद (बिहार), बंगाल, खानदेश, बरार, अहमदनगर, उड़ीसा, कश्मीर और सिंध.

बताते हैं कि उन दिनों के हालात में अवध को सूबा बनाना एक तरह से उसको राजनीतिक स्थायित्व प्रदान करना था. इतिहासविद प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी के अनुसार इसके कई भू-राजनीतिक व व्यापारिक कारण थे. जो भी हो, इसका कितना दूरगामी असर हुआ, इस बात को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अयोध्या अभी भी उसी हवेली अवध नाम के परगने में है, जिसे अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल द्वारा कराई गई भूमि व्यवस्था के तहत बनाया गया था.

लेकिन, जैसा कि पहले कह आये हैं, सूबा-ए-अवध को लंबी उम्र नहीं हासिल हो पाई. नवाबों के पराभव के पचास साल भी नहीं बीते थे कि ईस्ट इंडिया कंपनी की ब्रिटिश हुकूमत ने 1902 में इस सूबे को आगरा के साथ मिलाकर ‘यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ ऑफ आगरा एंड अवध’ में बदल दिया, जिसने आजादी के बाद उत्तर प्रदेश की संज्ञा पा ली.

सूबेदार, अमीर और नवाब

प्रसंगवश, अकबर ने अपनी सल्तनत के सूबों में सूबेदारों की नियुक्ति कर उनकी मार्फत हुकूमत की जो परंपरा शुरू की थी, वह औरंगजेब (1658-1707) के वक्त तक सफलतापूर्वक चलती रही. 1586 से 1594 की छोटी-सी अवधि को छोड़कर, जब अकबर ने अमीरों द्वारा शासन की व्यवस्था लागू कर दी थी. तब फतेह अली व कासिम खान को अवध का अमीर नियुक्त किया गया था. लेकिन कई कारणों से अमीरों की यह व्यवस्था लंबी उम्र नहीं पा सकी, जिसके चलते फिर सूबेदार नियुक्त किए जाने लगे. कई बार उनको नाजिम भी कहा जाता था.

औरंगजेब के बाद लगातार कमजोर पड़ती जा रही मुगल सल्तनत तेरहवें बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ (1719-1748) के वक्त तक अपना इकबाल खो बैठी तो उसे 1719 में नियुक्त अवध के सूबेदार गिरधरबहादुर नागर को तीन साल बाद ही हटाकर मालवा भेज देना और सआदत अली खां प्रथम के एहसानों का सिला देने के लिए उन्हें अवध का सूबेदार बनाना पड़ा. अनंतर, सूबेदार नवाब कहलाने लगे.

हुआ यों कि सआदत ने पहले अपनी स्थिति मजबूत की, फिर 1732 में अवध को अपनी स्वतंत्र सल्तनत घोषित कर दिया, जिसके बाद आया अवध के नवाबों या नवाब वजीरों का राज नाना प्रकार की उथल-पुथलों के बीच तेरह पीढ़ियों तक जारी रहा.

इस दौरान यह सूबा भारतीय व ईरानी कला व संस्कृतियों के दुर्लभ समन्वय व मेल-मिलाप का साक्षी तो बना ही, उस दुर्भाग्यपूर्ण दौर का भी साक्षी बना, जिसकी बाबत प्रेमचंद ने अपनी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ शीर्षक बहुचर्चित कहानी में लिखा है: ‘छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे….जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था….संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी.’

बेखबरी की कीमत

आगे चलकर अवध को इस बेखबरी की कीमत अपने अस्तित्व से चुकानी पड़ी. 23 अक्टूबर, 1764 को बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई जीतने के बाद सूबे में शनैः-शनैः अपना दखल बढ़ाती रही ईस्ट इंडिया कंपनी ने 11 फरवरी, 1856 को नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर न सिर्फ उनका सूबे का राज्य हड़प लिया, बल्कि उन्हें कल्कत्ता स्थित मटियाबुर्ज निर्वासित कर दिया.

इसके अगले ही साल, उनकी बेगम हजरत महल ने पांच जुलाई, 1857 को अपने अवयस्क बेटे बिरजिस कदर के सिर पर नवाबी का ताज रखवाकर बागी सेनाओं व तालुकेदारों की मदद से कंपनी की सेनाओं को इस कदर खदेड़ा कि उसकी सत्ता लखनऊ की रेजीडेंसी तक ही सीमित रह गई. लेकिन बिरजिस कदर की हुकूमत भी लंबी उम्र नहीं पा सकी और कंपनी के भीषण प्रत्याक्रमण के बाद 15 मार्च, 1858 को मुंह अंधेरे ही उन्हें लखनऊ से भागकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी.

फिर तो सूबे का इसके बाद से आजादी तक का इतिहास अंग्रेज ही लिखते रहे.

अक्स बाकी है

लेकिन लाख कोशिशें करके भी वे न उसकी गंगा जमुनी तहजीब का असर मिटा पाए, न ही अक्स. इसीलिए चर्चा चल जाए तो लोग कहते हैं कि कभी सूबे का नाम था अवध, लेकिन अब तहजीब ही उसकी पहचान है.

उसकी तहजीब का एक अक्स उत्तर प्रदेश के एम्ब्लम (राज्यचिह्न) में भी नजर आता है, जिसमें एक दूजे के दायें-बायें कहें या आमने-सामने, प्रसन्नमुद्रा में अवस्थित दो मछलियों के ऊपर तीर-धनुष और उसके अगल-बगल लहराती हुई जल पंक्तियां दिखायी देती हैं. ये जल पंक्तियां बीच में पहुंचती हैं तो मिलकर एकाकार हो जातीं और नीचे चली जाती हैं.

आजादी के पूर्व से प्रयुक्त होते आ रहे इस चिह्न के अनूठे इतिहास का एक सिरा स्वाभाविक ही अवध के गौरव से जुड़ जाता है क्योंकि इसमें शामिल प्रायः सारे प्रतीक उसकी गंगा जमुनी तहजीब के हैं. इसकी लहरदार जल पंक्तियों को क्रमशः गंगा-यमुना और उनके संगम के साथ सूबे की विविधता में एकता की पोषक गंगा-जमुनी तहजीब की प्रतीक भी बताया जाता है. बताने की जरूरत नहीं कि नवाबों के वक्त यह अवध में किस तरह फूली-फली.

इसी तरह तीर-धनुष को महाभारत व रामकथा के चरित्रों से जोड़ा जाता है, तो मछलियों को लखनऊ के ऐतिहासिक बड़े इमामबाड़े व ‘पंचमहल’ नामक किले से.

इनमें बड़े इमामबाड़े का निर्माण अवध के चौथे नवाब आसफउद्दौला द्वारा 1784 में अकाल राहत के उपक्रम के तौर पर करवाया था, जिसके प्रवेशद्वार पर एम्ब्लम जैसी ही दो मछलियां उत्कीर्ण हैं.

‘पंचमहल’ की बात करें तो एक प्रभावशाली जमींदार द्वारा निर्मित कराए गए इस किले को वर्ष 1766 के बाद ‘मच्छी भवन’ कहा जाने लगा. उसके इस नामकरण का एकमात्र कारण उसकी सभी 26 मेहराबों पर बनी मछलियां ही हैं. यों, नवाबों के काल की लखनऊ की अन्य अनेक ऐतिहासिक इमारतों पर भी ये मछलियां किसी न किसी रूप में मौजूद हैं.

मत्स्य प्रतीक

इतिहास में थोड़ा और पीछे जाएं तो पता चलता है कि ये मछलियां अरब और फारस के प्रसिद्ध ‘माही मरातिब’ (द ऑर्डर ऑफ फिश) का नया रूप हैं, जिसकी कल्पना फारस में 591 से 628 ईसवी के बीच कभी वहां के तत्कालीन शासक व उसके साम्राज्य की आन बान शान से जोड़कर की गई. माही मरातिब उनकी दृढ़ता, बहादुरी, शक्ति और जवानी की भी परिचायक रही है.

भारत के मुगल बादशाहों ने इन दो मछलियों को उसी परंपरा से लिया और इसी के तहत उनके लाव-लश्कर के आगे हाथियों पर जो सात झंडे लगाए जाते थे, उन पर कारचोबी की बनी ऐसी ही मछलियां और ग्रहों की आकृतियां हुआ करती थीं. नवाबों के समय अवध प्रांत के झंडे पर भी होती ही थीं.

गौरतलब है कि किसी भी धर्म में इन मछलियों का स्थान गौण नहीं है. इन्हें हिंदू धर्म के मत्स्यावतार और बौद्धधर्म के मत्स्य प्रतीक से जोड़कर देखने वालों की भी कमी नहीं हैं. बौद्ध धर्म में मत्स्य प्रतीक संयम से मुक्ति और जल के जीवनदायी गुणों का प्रतिनिधित्व करता है.

बहरहाल, उप्र के एम्ब्लम में पहले एक सितारा भी हुआ करता था, जिसे बाद में हटा दिया गया.

यहां यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश स्वतंत्रता के बाद 25 जनवरी, 1950 को अस्तित्व में आया था.

इससे पहले अंग्रेजों ने 1902 में इसे यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ आफ आगरा एंड अवध नाम से गठित किया तो उसमें नौ मंडल और 48 जिले थे, लेकिन 1935 के गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत राज्य में 1937 में हुए चुनाव तक इसका कोई अधिकृत एम्ब्लम नहीं था. भले ही ब्रिटिश रायल सोसाइटी ने 1916 में ही इसकी मंजूरी दे दी थी और सरकारी फाइलों व लेटरहेड के साथ सरकारी वाहनों आदि पर भी इस्तेमाल करने को कहा था.

गोविंद वल्लभ पंत की देन

रायल सोसाइटी की मंजूरी के बावजूद इस एम्ब्लम की राह आसान नहीं हुई तो कारण यह था कि अंग्रेज गवर्नर सर हैरी ग्रैहम हेग इसके सर्वथा विरुद्ध थे. इसके लिए संघर्ष करते आ रहे कांग्रेस नेता गोविन्द वल्लभ पंत ने फिर भी हार नहीं मानी.

17 जुलाई, 1937 को वे यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ ऑफ आगरा एंड अवध के दूसरे प्रीमियर बने तो नौ अगस्त, 1938 को इसको स्वीकृत और अंगीकृत कराकर ही माने.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)