अनुवाद में ऋग्वेद

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेद हमारे प्रथम काव्यग्रंथ हैं. ‘स्वस्ति’ शीर्षक से रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से प्रकाशित ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 112 सूक्तों का कवि-विद्वान मुकुंद लाठ द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद इसका प्रमाण है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

इतालो काल्वीनो ने कभी लिखा था कि क्लासिक वे ग्रंथ होते हैं जिनका ज़िक्र सभी करते हैं पर जिन्हें पढ़ता कोई नहीं है. यह बात हमारे एक क्लासिक ऋग्वेद पर बखूबी लागू होती है. इधर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो वैदिक ज्ञान, वैदिक संपदा, वैदिक परंपरा आदि की ज़िक्र बहुत करते हैं लेकिन जिन्होंने कभी वेद पढ़े नहीं हैं.

एक और लोकप्रिय मिथक यह भी है कि वेदों में सब कुछ है; कि सब कुछ वेदों से ही शुरू हुआ है और उसी में समाहित है. कुछ अनुष्ठानों आदि को भी जब-तब उनकी वैधता और प्रामाणिकता के लिए वेदों से जोड़ा जाता है.

हालांकि, आदि कवि हमारे यहां वाल्मीकि को माना जाता है, वैदिक ऋषि, जिनमें कई ऋषिकाएं और संभवतः आदिवासी ऋषि भी शामिल हैं, हमारे आदि कवि हैं क्योंकि वेद हमारे प्रथम काव्यग्रंथ हैं. इसका ताज़ा प्रमाण यह है कि ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 112 सूक्तों का कवि-विद्वान् मुकुंद लाठ द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ‘स्वस्ति’ शीर्षक से रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से प्रकाशित किया है.

ऋग्वेदिक कविता में स्तुति आवाह्न, आद्य-बिंब आदि कविता के अनेक रूप हैं. लगता है कि यह कविता देवताओं और प्रकृति के पंच तत्वों से, ज्ञात-अज्ञात शक्तियों से समीपता, सहचारिता और सान्निध्य की कोशिश में लगी कविता है. यों ही चुन ली गई कुछ पंक्तियां, इस संदर्भ में, देखी जा सकती हैं:

दीप्त हो तुम, अग्नि,
सीधे-बढ़ते ऋजु यज्ञों में उज्ज्वल हो
ऋत के रक्षक को, अग्नि
अपने भीतर ही बढ़ते चलते हो (सूक्त 1)
हमारी पुकार से चले आओ तुम

…..

तुरंत आ जाओ
जैसे सूर्य की किरणें दिन की ओर आती हैं

….

सरस्वती, तुम सत्य वाक् की प्रेरणा हो. (सूक्त 3)

….

हमें छोड़ न जाओ
हमारे पास आओ

….

सब ओर छाए अंधकार को
छीलकर दूर कर देती है
जैसे नाई बालों को
अपना वक्ष उघाड़ देती है उषा
जैसे दुहने के समय गाय गोष्ठ में चली जाती है
अपना थन स्वयमेव उघाड़ देती है
विश्व-भुवन ज्योर्तिमय हो जाता है
सारा तमस बिखर जाता है (सूक्त 92)
शक्ति से जन्मे हो तुम
और जनम लेते ही चिरंतन हो गए
कवि हो
यह जगत् काव्य है तुम्हारा
उसका सत्य भाव से धारण करो (सूक्त 96)

आहोपुरुषिका

वागीश शुक्ल हिंदी जगत् में एक उद्भट विद्वान के रूप में सुप्रतिष्ठित हैं. वे असाधारण संवेदनशीलता और जतन के साथ कविता को, उसकी सारी अंतर्ध्‍वनियों में, सुनते और गुनते रहे हैं. उनकी विद्वत्ता संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं के साहित्य, दर्शन, शास्त्र, परंपरा, रीति-रिवाज़ आदि को समेटती है. उन्होंने हिंदी कविता के अलावा बेदिल, ग़ालिब, कालिदास, निराला आदि के बारे में बहुत सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा है.

उनके लिये कविता निरी भाषिक संरचना नहीं है- उसमें अनेक स्मृतियां, अनुगूंजें, और संदर्भ रस-बसे होते हैं और कविता का रसास्वादन बिना इन्हें समझे प्रामाणिक रूप से नहीं किया जा सकता. अपनी बेहद सघन-समृद्ध विद्वत्ता का उपयोग वागीश जी कविता के कई मर्म, आयाम और आशय खोलने के लिए करते रहे हैं. वे कई बार कई काम अधूरे छोड़ने के भी आदी हैं. इस अधूरेपन में शायद यह अलिखित स्वीकार है कि कोई भी व्याख्या, कविता के मुकम्मल होने के बरक्स, अधूरी रहने को अभिशप्त है और कभी तथा कैसे भी उसका स्थान नहीं ले सकती: विद्वत्ता कविता का स्थानापन्न नहीं है, न हो सकती है.

(साभार: सेतु प्रकाशन)

‘आहोपुरुषिका’ में उन जैसे काव्य-रसिक विद्वान ने कविता लिखने का दुस्साहस किया है. उसका आरंभिक अंश वागीश जी द्वारा लिखी गई कविताओं और उनकी संदर्भ-व्याख्या का है. अपनी पत्नी के देहावसान के बाद उन्हें एक विद्वान् द्वारा लिखे गए शोकगीत के रूप में भी देखा-पढ़ा जा सकता है. उन्होंने स्वयं इस खंड का शीर्षक रखा है: ‘बक रहा हूं जुनूं में क्या क्या कुछ’.

कविताओं के इस संग्रह में हिंदी कविता की भाषा-संपदा में अनेक नए शब्द, शब्द-समुच्चय जोड़े गए हैं जिनमें से बहुतों का हिंदी में कविता-प्रवेश, मेरे जाने, शायद पहली बार हो रहा है.

इस अनूठी पुस्तक का दूसरा बड़ा हिस्सा विवाह-सूक्तों के अनुवाद, उनकी पृष्ठभूमि का विवेचन आदि है. वहां भी अनुवाद के साथ-साथ टिप्पणियां हैं. सारे संदर्भ स्पष्ट किए गए हैं.

इन कविताओं में जो शब्द आए हैं उन्हें देखें: ‘वृषस्यन्ती’, ‘नेदिष्ठ’, ‘अपटान्तर’, ‘कमींगाह’, ‘सादालौह’, ‘कान्दिशीक दर्पण’, ‘मलयानिल में शस्त्रता’, ‘पद्मविजयी मुख’, ‘महमिल की रवानी’, ‘देहवास से परास्त कस्तूरी मृगनाभि’, ‘तौर्यत्रिक’, ‘पद्मराग मणि के हर्म्‍य-शिखर’, ‘उरियान-ए-ख़राबात’, ‘चंचूर्यमाणा परिखा’, ‘मुहीत-ए-बेकरां’, ‘हुस्न की अदबगाह’, ‘नाम-ए-आमाल’, ‘बिछुओं की तजल्ली’, ‘तेग़-ए-कोह’, ‘अग्नि की तन्मात्रा’, ‘डमरू को तुलाकोटि’, ‘काली-कराली-मनोजवा-सुलोहिता-सुधूम्रवर्णा-स्फुलिंगिनी-विश्वदासा’, ‘हव्य-कव्य-क्रव्य सबका बहिंगा’, ‘बरंग-ए-दिगर बन्द-वो-बस्त में’, ‘दिलबरी के मन्सब’, ‘फ़ित्नाखि़रामी’, ‘मन्मथ के पौष्प धनुष की मौर्वी’.

इन कुल बीस कविताओं में शब्‍द, बिंब आदि ‘सौन्दर्यलहरी’, अल्ताफ़ुर्रहमान ‘फ़िक्र’ यज़दानी, ‘वैदिक विवाह सूक्त’, ‘दुर्गासप्तशती’, परवीन शाकिर, ग़ालिब, फ़ारसी-उर्दू काव्य-परिपाटी, ‘भगवद्गीता’, ‘भट्टिकाव्य’, ‘मेघदूत’, ‘कठोपनिषद्’, जिगर मुरादाबादी, ‘कामसूत्र’, मौलाना रूमी, कबीर, काश्मीर शैव दर्शन, ‘संगीतरत्नाकर’, ‘कामकुंजलता’, ‘तन्त्रालोक’, ‘रघुवंश’, ‘अनंगरंग’, ‘सामवेद’, ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’, ‘कात्यायन-श्रौत-सूत्र’, ‘ऋग्वेद’ आदि से आए हैं.

जाहिर है कि यह शोकगीत कोई एकांत में विलपता गान नहीं है: वह इतनी सारी यादों और कवियों और ग्रंथों के बीच गाया जा रहा है. कवि अकेला नहीं है- वह एक समवाय का हिस्सा है. यह सीधा-सादा साधारणीकरण नहीं है: यह एक आवाज को कई आवाज़ों के साथ, उन्हें अंतर्गुंजित करते हुए अलग सुन पाना है. हर कविता के साथ छोटी-बड़ी टिप्पणी संलग्न है जो सभी संदर्भ स्पष्ट करती चलती है.

दूसरे शब्दों में, एक तरह से, कविता और उसकी किंचित् टीका साथ-साथ हैं. यह अनूठी पुस्‍तक सेतु प्रकाशन से आई है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)