भगत सिंह: ‘प्रेम हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊंचा उठाता है…’

भगत सिंह ने अंतिम दिनों में अपने साथी शहीद सुखदेव को लिखे पत्र में जताया था कि प्रेम में अनुरक्ति न किसी महान उद्देश्य के लिए जान देने से रोकती है, न कायर बनाती है. इसके उलट वह जान देने की तमीज़ सिखाती है.

भगत सिंह. (फोटो साभार: Wikimedia Commons)

शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयंती हो या शहादत दिवस, उन पर होने वाली चर्चाओं में उनके इंकलाब संबंधी विचार और प्रयत्न हावी रहते हैं. खास तौर पर 8 अप्रैल, 1929 के ऐतिहासिक असेंबली बम कांड के फैसले को लेकर जनवरी, 1930 में हाईकोर्ट में दाखिल अपील में उनके द्वारा व्यक्त किया गया यह दृष्टिकोण कि पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही वह चीज थी, जिसे वे अपनी क्रांतिकारी कार्रवाइयों से प्रकट करना चाहते थे.

उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व और कृतित्व के लिहाज से ऐसा होना स्वाभाविक भी है. फिर भी इस बात को भुलाया नहीं जा सकता कि उनके चिंतन का एक बड़ा हिस्सा गैरबराबरी व शोषण जैसी विडंबनाओं और मानवीय भावनाओं पर उनके असर की विवेचना को समर्पित रहा है. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने कई लेखों व पत्रों में विश्वबंधुत्व, शांति और प्रेम जैसे विषयों पर भी खुलकर अपने विचार व्यक्त किए हैं- हां, देशप्रेम के साथ युवक-युवतियों के प्रेम पर भी.

कैसा विश्वप्रेम!

कोई सौ साल पहले कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित साप्ताहिक ‘मतवाला’ के 15 व 22 नवंबर, 1924 के अंकों में छद्म नाम से प्रकाशित अपने ‘विश्वप्रेम’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा था, ‘जब तक ‘काला-गोरा’, ‘सभ्य-असभ्य’, ‘शासक-शासित’, ‘धनी-निर्धन’ व ‘छूत-अछूत’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है, तब तक कहां की विश्वबंधुता और कैसा विश्वप्रेम?’ क्योंकि ‘कोई गुलाम जाति इस उच्चतम सिद्धांत का नाम तक लेने की अधिकारिणी नहीं है.’

इसी लेख में उनके आगे के शब्द थे, ‘(इस स्थिति को बदलने के लिए) शक्ति एकत्र करनी होगी. घोर परिश्रम करना होगा. गिरे हुओं का उत्थान करना होगा. ‘पस्ती’ वालों को उन्नति का मार्ग दिखाना होगा. मिथ्याशक्तिवादियों को घसीटकर अपने साथ खड़े होने को विवश करना होगा. अहंकारियों का अहंकार तोड़ उन्हें नम्रता प्रदान करनी होगी. निर्बलों को बल, पराधीनों को स्वाधीनता, अशिक्षितों को शिक्षा, निराशावादियों को आशा की आभा, भूखों को रोटी, बेघरों को घर, नास्तिकों को विश्वास और अंधविश्वासवादियों को विचार की स्वतंत्रता देनी होगी.’

फिर उन्होंने पूछा था, ‘क्या विश्वबंधुत्व के लिए लोग इतना करेंगे? इसके लिए बलिदान देंगे?’

आज, उनके यह सवाल पूछने के सौ साल बाद, जब यूक्रेन व गाजा पट्टी में लाशें बिछाई जा रहीं और युद्ध के संबंधित पक्षों द्वारा उनकी जिम्मेदारी एक दूजे पर ओढ़ाई जा रही है, यह सवाल पहले से ज्यादा बड़ा हो गया है. साथ ही उनकी यह मान्यता भी पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो चली है कि पूरी दुनिया में पूर्ण स्वतंत्रता की स्थिति में ही ऐसे विश्वबंधुत्व की कल्पना साकार हो सकती है, जिसमें सभी अपने होंगे, कोई पराया नहीं होगा.

उन्हीं के शब्दों में, ‘उस दिन शांति-शांति की पुकार भी शांति भंग न कर सकेगी, भूख लगने पर रोटी के लिए किसी को चिल्ल-पों मचाने की आवश्यकता नहीं हुआ करेगी, व्यापार उन्नति के शिखर पर होगा, परंतु फ्रांस और जर्मनी में व्यापार के नाम पर घोर युद्ध नहीं हुआ करेंगे. इतना ही नहीं, उस दिन अमेरिका व जापान दोनों होंगे, परंतु उनमें पूर्वी व पश्चिमीपन नहीं होगा. काले-गोरे उस दिन भी होंगे, परंतु अमेरिकावासी वहां के काले निवासियों (रेड इंडियंस) को जीते जी जला नहीं सकेंगे. शांति होगी, मगर पीनल कोड की आवश्यकता नहीं होगी. अंग्रेज भी होंगे और भारतवासी भी, परंतु उनमें गुलाम और शासक का भाव नहीं होगा. उस दिन महात्मा टॉलस्टॉय के ‘रेसिस्ट नाट इविल’ वाले सिद्धांत की उच्च ध्वनि न लगाने पर भी संसार में बुराइयां नजर न आएंगी.’

पतित भारत का उत्थान

लेकिन उनका साफ मानना था कि इस कल्पित सुखमय भविष्य का साकार होना लोगों के सर्वोच्च बलिदानों की बिना पर ही संभव होगा. अगर वे, उसकी आशामात्र के लिए मर मिटने को तैयार नहीं होंगे और पूरे या आंशिक रूप से पराधीन, परतंत्र और बंदी होंगे तो न विश्वबंधुत्व के लिए वांछित पूर्ण स्वतंत्रता होगी, न ही विश्वबंधुत्व ढोंग और आडंबर से आगे बढ़ पाएगा. विश्वशांति भी तब तक कल्पना ही बनी रहेगी.

उन्होंने अंत में विश्वबंधुत्व, प्रेम व शांति को देशप्रेम से संदर्भित किया और लिखा था कि उस कल्पित समय को लाने की आकांक्षा है तो सबसे पहले पतित भारत का उत्थान करना होगा, गुलामियों की जंजीरों को काटना, मिट्टी में मिला देना और अत्याचार का सर्वनाश करना होगा. क्योंकि इन सबके कारण ही वह मनुष्य जाति, जिसकी सृष्टि परमपिता ने अपने ही अनुरूप की थी, प्रलोभनों की शिकार होकर न्यायपथ से भ्रष्ट हुई जा रही है.

प्रेम ऊंचा उठाता है

अपने अंतिम दिनों में अपने साथी शहीद सुखदेव को लिखे एक पत्र में उन्होंने स्वीकार किया था कि आदर्श के स्तर पर वे ‘एक आदमी के एक आदमी से प्यार’ के निंदक रहे हैं और प्यार की ऐसी गहरी भावना पर जोर देते रहे हैं, जिसे आदमी एक ही आदमी में सीमित न कर दे, बल्कि विश्वमय रखे. इस पत्र में उन्होंने इस प्रश्न पर भी विचार किया था कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है?

और उनका उत्तर था, ‘हां, अपनी पहली विद्रोही असफलता, मन को कुचल डालने वाली हार और मरे हुए साथियों की याद में विकल मैजिनी (इतालवी क्रांतिकारी और लेखक) को अपना पहला विद्रोह विफल होने के बाद प्यार नहीं मिलता तो वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता. वह इससे बच पाया तो इसलिए कि अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वह, यही नहीं कि किसी एक से बल्कि सबसे अधिक मजबूत हो गया.’

इस पत्र में उन्होंने व्यवस्था-सी दी थी कि जहां तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है, यह पाशविक वृत्ति नहीं, बल्कि एक अत्यंत मधुर मानवीय भावना है. वह हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊंचा उठाता है, कभी भी उसे नीचा नहीं करता. बशर्तें वह सचमुच प्यार हो. हां, सच्चा प्यार गढ़ा नहीं जा सकता, अपने मार्ग से ही आता है और कोई नहीं कह सकता कि कब आएगा.

उन्होंने यह भी लिखा था कि मैं कह सकता हूँ कि एक युवक और एक युवती एक-दूसरे से प्यार कर सकते हैं. वे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं और अपने प्यार की मदद से अपनी पवित्रता बनाए रख सकते हैं.

जानकारों के अनुसार, उन्होंने यह पत्र आठ अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने से पहले हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की बैठक में सुखदेव से हुए वाद-विवाद के बाद उन्हें लिखा था. इसे सुखदेव की गिरफ्तारी के वक्त गोरी पुलिस ने उनके पास से बरामद किया और लाहौर षड्यंत्र मामले में सबूत के रूप में अदालत में पेश किया था.

जानकार यह भी बताते हैं कि उक्त आर्मी के क्रांतिकारियों की सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना को अंतिम रूप देने के लिए हुई बैठक में कई कारणों का हवाला देकर भगत सिंह को बम फेंकने की जिम्मेदारी सौंपने से मना कर दिया गया तो सुखदेव कथित रूप से यह कहकर उनको ताना मारने लगे कि तुम ‘उस स्त्री’ के प्रेम में अनुरक्त होकर मरने से डरने लगे हो और क्रांति के किसी काम के नहीं रह गए हो.

जैसा कि स्वाभाविक था, इस पर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया, जिसके चलते पहले तो वे उनसे वाद-विवाद में उलझे, फिर बोलचाल बंद कर दी. इसके कुछ दिन बाद उन्होंने उनको उक्त पत्र लिखा, जो बाद में ‘प्रेम हमें ऊंचा उठाता है’ शीर्षक से प्रसिद्ध हुआ. अनंतर, उन्होंने ज़िद करके आर्मी का फैसला बदलवाया और बटुकेश्वर दत्त के साथ खुद सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने गए. उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे सारी दुनिया जानती है.

पोच सोच का प्रदर्शन

यहां इस पचड़े में पड़ने का कोई अर्थ नहीं है कि भगत सिंह वास्तव में ‘उस स्त्री’ के प्रेम में अनुरक्त थे या नहीं. मुद्दे की बात यह है कि अगर सुखदेव को लग रहा था कि उसके प्रेम में पड़कर भगत सिंह डरपोक हो गए और क्रांतिकारी नहीं रह गए हैं तो वे स्त्री-पुरुष प्रेम को लेकर हमारे समाज में जानें कब से जड़ें जमाए बैठे पोच सोच का ही प्रदर्शन कर रहे थे.

गौरतलब है कि 1936 में महात्मा गांधी भी इस सोच के प्रदर्शन से नहीं बच पाए थे, जब कांग्रेस की महिला नेता सुचेता कृपलानी और अपने ‘दाहिने हाथ’ आचार्य जेबी कृपलानी के प्रेम विवाह का इस अंदेशे के आधार पर विरोध करने पर उतर आए थे कि इस विवाह के बाद कृपलानी राग-रंग में डूब जाएंगे और उनके दाहिने हाथ नहीं रह जाएंगे.

सुचेता ने उनको वचन दिया कि वे कृपलानी की कमजोरी नहीं, शक्ति बनेंगी, जिससे उनको दो-दो ‘दाहिने हाथ’ मिल जाएंगे, तो भी महात्मा ने उन्हें विवाह की इजाजत भर दी थी, आशीर्वाद नहीं दिया था. इससे पहले यह भी सुझाया था कि वे कृपलानी को छोड़ किसी और से विवाह कर लें. लेकिन सुचेता ने यह कहते हुुए कि उनका प्रेम कृपलानी से और विवाह किसी और से करना अनैतिक होगा, पूछ लिया था कि बापू ऐसा अनैतिक सुझाव क्यों कर दे सकते हैं?

बाद में सुचेता ने महात्मा को दिया गया वचन पूरी निष्ठा से निभाया और उन्हें गलत सिद्ध करके ही दम लिया था.

क्रांतिकारी तार्किकता

भगत सिंह द्वारा की गई प्रेम की यह व्याख्या और बलिदान दोनों अंततः सुखदेव की सोच को गलत ही सिद्ध करते हैं. वे जताते हैं कि प्रेम में अनुरक्ति न किसी महान उद्देश्य के लिए जान देने से रोकती है, न कायर बनाती है. इसके उलट वह जान देने की तमीज सिखाती है.

गौरतलब है कि विश्व-बंधुत्व, प्रेम और शांति पर बात करते हुए भी भगत सिंह तार्किकता से परे नहीं जाते. उस क्रांतिकारी तार्किकता से परे तो कतई नहीं, महात्मा गांधी द्वारा क्रांतिकारियों पर ‘बम की पूजा’ का आरोप लगाने के बाद 26 जनवरी, 1930 को देश भर में बांटे गए ऐेतिहासिक ‘बम का दर्शन’ में जिस पर जोर देते हुए कहा गया था कि एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क में विश्वास करता है. वह केवल तर्क और तर्क में ही विश्वास करता है. किसी प्रकार का गाली-गलौच या निंदा, चाहे फिर वह ऊंचे से ऊंचे स्तर से की गई हो, क्रांतिकारी को अपने निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति से वंचित नहीं कर सकती.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)