नई दिल्ली: कांग्रेस नेता और राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने शनिवार को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को एक और पत्र लिखकर ग्रेट निकोबार द्वीप विकास परियोजना को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी पर पुनर्विचार करने के लिए गठित उच्चस्तरीय समिति (एचपीसी) के आचरण, गठन और निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री रमेश ने कहा कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय का यह इनकार कि निकोबार परियोजना क्षेत्र का कोई भी हिस्सा निर्माण के लिए निषिद्ध तटीय क्षेत्रों में आता है, एक ‘नाटकीय यू-टर्न’ है.
उन्होंने पूछा कि प्रस्तुत किए गए नए तथ्यों पर क्या भरोसा किया जा सकता है.
इससे पहले एक मीडिया रिपोर्ट में यह सामने आया था कि पर्यावरण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) से कहा था कि ग्रेट निकोबार द्वीप विकास परियोजना के लिए दी गई मंजूरी ने द्वीप तटीय विनियमन क्षेत्र (आईसीआरजेड) अधिसूचना, 2019 का उल्लंघन नहीं किया है. यह भी कहा गया कि परियोजना की हरित मंजूरी पर फिर से विचार करने के एनजीटी के आदेशों का अनुपालन किया गया है.
यह जवाब पर्यावरण कार्यकर्ता आशीष कोठारी द्वारा अप्रैल 2023 के एनजीटी निर्देश के बाद गठित एचपीसी की रिपोर्ट पर आधारित दो याचिकाओं को लेकर दिए गए थे.
रमेश ने कहा कि वह इस बात से हैरान हैं कि एनजीटी द्वारा दी गई छूट के बावजूद एचपीसी ने किसी स्वतंत्र संस्था या विशेषज्ञ से संपर्क नहीं किया. एचपीसी में नीति आयोग के सदस्य शामिल थे, जिसने परियोजना की परिकल्पना की थी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह एकीकृत विकास निगम, जो परियोजना को क्रियान्वित कर रहा है और पर्यावरण मंत्रालय, जिसने मंज़ूरी दी थी.
News reports have emerged about the counter-affidavit filed by the Ministry of Environment, Forests, and Climate Change in the National Green Tribunal on the Great Nicobar Island Development Project. I have written yet again to the Honourable Minister on this ecological and… pic.twitter.com/AT3FLUk0GJ
— Jairam Ramesh (@Jairam_Ramesh) September 29, 2024
रमेश ने कहा कि एचपीसी ने एनजीटी के निर्देशों को भी कमजोर किया और परियोजना मंजूरी और पर्यावरण संबंधी मुद्दों का कोई सार्थक और व्यापक पुनर्मूल्यांकन नहीं किया.
इसके अलावा उन्होंने एचपीसी की रिपोर्ट को गुप्त रखने के मंत्रालय के तर्क पर भी सवाल उठाया.
रमेश ने कहा, ‘मुझे यह समझ में नहीं आता, जब मंजूरी देने की मूल प्रक्रिया को ही ‘विशेषाधिकार प्राप्त और गोपनीय’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया था, तो समीक्षा, चाहे वह कितनी भी दोषपूर्ण क्यों न हो और वह भी अदालत द्वारा अनिवार्य की गई हो, उसे इस तरह कैसे वर्गीकृत किया जा सकता है?’
मालूम हो कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में गठित एचपीसी का काम एनजीटी के आदेश पर परियोजना की पर्यावरण मंजूरी की समीक्षा करना था. इसे कोरल कॉलोनियों की सुरक्षा और पर्यावरण प्रभाव अध्ययनों के लिए अपर्याप्त आधारभूत डेटा जैसे मुद्दों को संबोधित करना और यह जांचना भी था कि क्या परियोजना के घटक प्रतिबंधित आईसीआरजेड-आईए पर्यावरण-संवेदनशील तटीय क्षेत्रों में आते हैं.
परियोजना के लिए पेड़ों की गणना, कटाई और कटाई पर अंडमान और निकोबार द्वीप प्रशासन द्वारा जारी एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट का उल्लेख करते हुए रमेश ने कहा कि यह गंभीर चिंता का विषय है.
उन्होंने कहा, ‘जब एनजीटी उसके समक्ष याचिकाओं पर विचार-विमर्श कर रहा है, एएनआईआईडीसीओ (अंडमान और निकोबार द्वीप एकीकृत विकास निगम लिमिटेड) ने पहले ही एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट मांगना जैव विविधता से भरपूर लगभग 65 वर्ग किलोमीटर के जंगलों को साफ करने की शुरुआत है. मेरा मानना है कि भारत सरकार हमारे देश पर पारिस्थितिकी और मानवीय आपदा थोपने पर तुली हुई है.’
मालूम हो कि इस परियोजना में ग्रेट निकोबार द्वीप की 16,610 हेक्टेयर भूमि पर एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल (आईसीटीटी), एक ग्रीनफील्ड अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, एक टाउनशिप और 450 एमवीए गैस और सौर-आधारित बिजली संयंत्र आदि विकसित करना शामिल है.
इन विकास परियोजनाओं के निर्माण के लिए 130 वर्ग किलोमीटर जंगल को परिवर्तित करना भी शामिल है. यह द्वीप पर रहने वाले स्वदेशी शोम्पेन और निकोबारी समुदायों को भी प्रभावित करेगा.
पारिस्थितिकीविदों, मानवविज्ञानियों, सांसदों और नागरिक समाज संगठनों ने इस परियोजना का विरोध किया है क्योंकि इससे स्थानीय लोगों पर संभावित प्रतिकूल सांस्कृतिक प्रभाव पड़ेगा. दस लाख से अधिक पेड़ों की कटाई, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील तटीय क्षेत्रों के आसपास निर्माण और पर्यटन के लिए आगंतुकों की आमद के कारण संभावित पारिस्थितिक प्रभावों के लिए भी इसकी आलोचना की गई है.