01 अक्टूबर को पुणे की महाराष्ट्र गांधी स्मारक निधि द्वारा आयोजित महात्मा गांधी सप्ताह के पहले दिन मुझे ‘आज गांधी’ पर बोलने का सुयोग मिला; उस पुणे में जहां से उनका हत्यारा नाथूराम गोडसे आता था और जहां के यरवडा जेल से गांधी जी 100 वर्ष पहले छूटे थे. तीन दिन बाद 4 अक्टूबर को दिल्ली में लेखक-शिक्षाविद् कृष्ण कुमार की पेंगुइन द्वारा प्रकाशित नई पुस्तक ‘थैंक यू गांधी’ को लोकार्पण करने का अवसर मिला. इस पुस्तक में एक पंक्ति आती है: ‘मैं जानता हूं यह हमारा समय नहीं है’.
पिछली जनवरी में प्रकाशित मेरे कविता-संग्रह का शीर्षक ही है ‘अपना समय नहीं’. कृष्ण कुमार जी की एक और पंक्ति है: ‘अब हम सब बुझे हुए हैं’. आगे वे कहते हैं कि ‘हम गांधी की कल्पना के सदस्य थे, महान् स्वप्न के. जब स्वप्न समाप्त हुआ हम सो रहे थे और हमें पता नहीं चला.’ अपने समय को खोने, अपने बुझ जाने को ओर अपने स्वप्नभंग को पहचानने की कोशिश करना अपने को, किसी हद तक, उस अंधेरे की जकड़बंदी से मुक्त करना है जो हमें अपनी गिरफ्त में लिए है.
कृष्ण कुमार की पुस्तक ऐसे रूपाकार में है कि उसमें विधाओं की सीमाएं एक-दूसरे में घुल-मिल गई हैं. उसमें कथा, कथा-इतर गद्य, स्मृतियां, आत्मवृतांत, विचार-विश्लेषण आदि सब का रसायन बन गया है और उनमें पाठक की आवाजाही सहज ढंग से होती चलती है. उसमें कम से कम तीन पक्ष स्पष्ट हैं- कस्बाई ज़िंदगी, एक सिविल सेवक के नैतिक द्वंद्व और गांधी के विचार और संशय. पुस्तक कई बार संस्मरणात्मक लगते हुए भी आज के भारत के बारे में है.
एक जगह कहा गया है कि ‘भारतीय संस्कृति का केंद्र ऐसी जगह चला गया है जहां प्रशासन की एक नई संस्कृति पदासीन हो गई है… सत्ता की नई खोज यह है कि प्रशासन बहुत सुचारू हो जाएगा अगर लोगों की विविध आकांक्षाएं और भावनाएं मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के विरुद्ध कर दी जाएं.’ उनकी व्याख्या यह भी है कि ‘व्यावसायिक जीवन में सच आपको दूर तक नहीं ले जा सकता. राजनीति में आप हास्यास्पद हो जाएंगे. समझ-बूझकर झूठ, बोलना, तथ्यों को छुपाना, ग़लत सूचना फैलाना, सत्ता के टूलकिट हैं. जनता इन टूलकिटों को पहचान जाती है और जब उनका इस्तेमाल होता है तो मुस्कराती है.’
एक जगह उनका तर्क है: ‘लोग जैसे-जैसे राजकीय नियंत्रण के लिए अधिक वेध्य होते जाते हैं, वैसे-वैसे उनकी शांत ढंग से जीवन बिताने की क्षमता घटती जाती है. राज्य का यह रुख़ दिखाता है कि लोग नहीं जानते कि अपना सामुदायिक जीवन वे कैसे जियें.’
यह वैचारिक प्रसंग आता है कि गांधी जी की वकालत के बावजूद, अहिंसा एक विश्वसनीय और लोकप्रिय वृत्ति नहीं बन पाई. उसकी विरोधी हमेशा आसपास मंडराती रही. हर क़िस्म की हिंसा सत्ता की अभिव्यक्ति होती है. अहिंसा में अपने आप कोई नई सत्ता नहीं होती. गांधी जी ने हिंसा के विरुद्ध इतना दिखा-बोला, उसके विरुद्ध अहिंसा का इतना आचरण और पालन किया. पर यह सब फिर भी काफ़ी नहीं है कि हमें आश्वस्त कर सके कि मनुष्य और संसार हिंसा के बिना चल सकते हैं.
यह नोट किया गया है कि राज्य की हिंसा की क्षमता से आतंकित होकर सत्य राष्ट्र से भाग गया है. न्याय के वैयक्तिकीकरण ने लोकतंत्र को बचे रहने में मदद की है और जातिप्रभा को अकेला छोड़ दिया है कि वह संस्कृति और उसकी धार्मिक वस्तु का पालन करे. संस्कृति और इतिहास के डीप फ्रीज़र में घृणा रखी होती है और कोई भी सक्षम लोकलुभावन नेता फ्रीज़र का तापमान बढ़ा सकता है ताकि दबी भावनाएं प्रवाहित होने और गरम खून उबलने लगें.
हिंदू-मुसलमान प्रश्न पर कृष्ण कुमार कहते हैं कि मुस्लिम बच्चे जानते हैं कि न्याय उनके लिए नहीं है. जो उसे पाने की कोशिश करेंगे उन्हें बहुत तकलीफ़ होगी. यह स्थायी कम तापमान की अर्द्धहिंसा है. ‘स्थायी पूर्वाग्रह चमत्कार करता है: वह घृणा को वैध ऊर्जा के रूप में पेश करता है.’ ‘उर्दू के शब्द शब्द नहीं हैं- वे मुस्लिम हैं.’ अपने महाकाव्यात्मक आख्यानों में हिंदू धर्म में अगर कोई एक भाव है जिसका कोई उदाहरण उसमें नहीं दिया तो वह है सामूहिक अपराध का कोई बोध. हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा में दोष या पश्चात्ताप के लिए कोई जगह नहीं है- वह सिर्फ़ गर्व की जड़ें सींचती है.
गांधी की अपर्याप्तता का कुछ विवेचन भी है. उनके मुख्य लक्ष्य भारत के लोगों की एकता के विफल होने का उन्हें तीख़ा बोध था. उनके लिए बंटवारा और उसके साथ हुए दंगे इस बात का सुबूत थे कि वे अपर्याप्त थे: वे भारतीयों को एक स्वतंत्र अविभाजित भारत नहीं दे पाए. वे जीवन भर भगोड़े रहे. उन्होंने कोई पद नहीं लिया और उन्हें अधिकार और सत्ता की अनिवार्यताओं का कोई अनुभव नहीं था. सत्य के हित में उनका साहस और वीरता का संदेश ऊंचा था, सन्तोचित था पर वह ज़्यादा दिन चल नहीं सकता था.
गांधी का विज्ञान अलग क़िस्म का था- वह किसी की भी उपेक्षा नहीं करता था और हरेक की चिंता करता था. वह प्राकृतिक और मनुष्य-रचित दुर्घटनाओं के बीच अंतर या भेद नहीं करता था. वे मनुष्य के संसार को मनुष्येतर संसार से अलग नहीं करते थे.
नब्बे और उसके बाद
चित्रकार-मूर्तिकार हिम्मत शाह अपनी आयु में नब्बे पार कर चुके हैं और उनकी कुछ कलाकृतियों की एक प्रदर्शनी इन दिनों बीकानेर हाउस में अनंत आर्ट फाउंडेशन द्वारा आयोजित है. कई गंभीर अर्थों में हिम्मत मिट्टी के कलाकार रहे हैं. उनमें शुरू से मिट्टी की अनंत संभावनाओं में, उसकी कला-संभावना में अटल आस्था रही है.
वे मानते रहे हैं कि मिट्टी में सब कुछ संभव है. उन्हें मिट्टी में ऐन्द्रिय उपस्थिति, वैभव, स्वप्न और सचाई, सूक्ष्मता-जटिलता सब संभव लगते हैं. अगर मुक्तिबोध की एक आकांक्षा उधार लेकर कहें, तो कह सकते हैं कि हिम्मत के लिए मिट्टी में ‘आत्मसंभव परम अभिव्यक्ति’ संभव लगती रही है.
मिट्टी पर एकाग्रता ने उन्हें कला के लिए अन्य माध्यम रेखाचित्र, धातु, शिल्प आदि आज़माने और उसमें उत्कृष्ट कलारूप संभव करने से बाधित नहीं किया है. एक तरह से अन्य सामग्री हिम्मत के लिए मिट्टी के ही संस्करण हैं, उसी का विस्तार हैं. शायद हिम्मत का दूसरा स्रोत ऊर्जा है. इस आयु में भी उनकी कला-सक्रियता इस ऊर्जा का एकमात्र उदाहरण नहीं है. उनके समूचे काम में एक तरह की अदम्य ऊर्जा स्पष्ट देखी जा सकती है.
विशालाकार कलाकृतियां, भीमकाय शिल्प आदि के अलावा इस ऊर्जा से ही हिम्मत ने एक तरह से कला और जीवन का सत्व, उसकी अदम्य सुंदरता में लगातार खोजा-पाया है. उनकी कला, कहा जा सकता है, मिट्टी की गंध और ऊर्जा के संस्पर्श से सुवासित है. यह अलक्षित नहीं जा सकता कि ठोस सामग्री पर आधारित उनकी कला अगर वस्तुनिष्ठ है तो उस पर हिम्मत की उंगलियों की छाप भी है, अक्सर अदृश्य पर अनुभव की जा सकने वाली है. हर हाल में, यह कला हिम्मत की आत्माभिव्यक्ति है. वह अपने समय की इतनी परवाह नहीं करती जितनी परवाह वह मिट्टी की, आज भी गांव-घरों में बची परंपरा की, उसमें रसे-बसे अनंत समय की.
हिम्मत की कुछ कलाकृतियों की एक प्रदर्शनी 1976 में भोपाल के बहुकला समारोह ‘उत्सव 76’ में मध्य प्रदेश कला परिषद् के तत्वाधान में आयोजित करने का सुयोग मुझे मिला था. उन दिनों हिम्मत कई बार भोपाल आते थे- कभी कोई कला कार्यशाला का निर्देशन करने, कभी यों ही तफ़रीहन. मेरी बेटी दूर्वा के बचपन के सबसे मनोरम फ़ोटो, हमारे बंगले के फाटक पर सवार और अन्य खिलन्दरी मुद्राओं में, हिम्मत ने ही लिए थे.
उन्होंने ‘पहचान’ पत्रिका के कुछ अंकों के आवरण बनाए थे और बाद में ‘पूर्वाग्रह’ पत्रिका के एक बड़े कविता विशेषांक का आवरण और अंदर कई चित्र उन्हीं के थे. हिम्मत की पारिवारिकता में सिर्फ़ लोग ही नहीं होते, प्रकृति, अक्सर अल्पलक्षित चीज़ें, दृश्य सब होते हैं. समाज में संयुक्त परिवार भले ग़ायब हो गया है, हिम्मत की कला में एक बड़ा संयुक्त परिवार अब भी सजीव और सक्रिय है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)