नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (17 अक्टूबर) को मैरिटल रेप से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए ये जानना चाहा कि क्या अदालत आईपीसी की धारा 375 के तहत मिला अपवाद के प्रावधान को खत्म करके एक नया अपराध पैदा करेगी, जो फिलहाल पत्नियों को अपने पतियों पर बलात्कार के लिए मुकदमा चलाने से रोकता है.
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ, जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल हैं, इस मामले पर सुनवाई कर रही है.
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में आईपीसी की धारा 375 के तहत अपवाद 2 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार कर रहा है, जो एक पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने के लिए मुकदमा चलाने से छूट देती है. इन जनहित याचिकाओं (पीआईएल) में तर्क दिया गया है कि यह अपवाद उन विवाहित महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण है, जिनका उनके पति द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है.
इस मुद्दे में मई 2022 से दिल्ली उच्च न्यायालय का खंडित फैसला भी शामिल है, जो सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के लिए लंबित है. उस फैसले में हाईकोर्ट की पीठ के एक जज ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत दिए गए अपवाद के प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा था कि यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है.
मालूम हो कि आईपीसी की धारा 375 का अपवाद 2 किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ गैर-सहमति वाले यौन संबंध को ‘बलात्कार’ की परिभाषा से बाहर रखता है. इसी तरह का प्रावधान हाल ही में लागू भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में भी मौजूद है.
लाइव लॉ के अनुसार, याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट करुणा नंदी ने ज़ोर देकर कहा कि पुराने और नए दंड प्रावधानों के अनुसार, बलात्कार की परिभाषा के तहत अपवाद 2 संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 19 के तहत एक महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और उसे केवल यौन वस्तु की तरह देखता है.
नंदी ने कहा कि यह मामला ‘महिला बनाम पुरुष’ के बारे में नहीं है, बल्कि ये ‘जनता बनाम पितृसत्ता’ के बारे में है.
इस संबंध में सीजेआई चंद्रचूड़ ने सवाल पूछा, ‘आप कहते हैं कि वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को ख़त्म करने से कोई नया अपराध नहीं बनता है. जब संसद ने अपवाद अधिनियमित किया, तो उसका इरादा यह था कि किसी पुरुष द्वारा 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिला, जो उसकी पत्नी है, के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य को बलात्कार का अपराध न माना जाए. अब अगर हम अपवाद को ख़त्म कर दें… तो क्या हम एक नया अपराध बना रहे होंगे? क्या न्यायालय के पास स्वतंत्र रूप से अपवाद की वैधता का परीक्षण करने की शक्ति है?’
इस पर करुणा नंदी ने पीठ को बताया कि यह सवाल ‘इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ मामले में भी उठाया गया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा था कि इस संवैधानिक व्यवस्था में पितृसत्ता और स्त्रीद्वेष की कोई जगह नहीं है.
नंदी ने कहा कि हेल का सिद्धांत, जिसका पालन इंग्लैंड में किया जाता है, एक पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार के लिए दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि इसके मुताबिक विवाह में पत्नी पति को ‘अपना शरीर’ सौंप देती है.
इस पर सीजेआई ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि भारत सरकार ने अपने जवाबी हलफनामे में हेल के सिद्धांत को छोड़ दिया है, उस पर भरोसा नहीं किया और इस बात पर सहमति जताई है कि विवाह किसी महिला को अपने पति को सहमति का लाइसेंस नहीं दे सकता. सरकार इस तथ्य को स्वीकार करती है कि सहमति जरूरी है… उनका कहना है तलाक के आधार के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, क्रूरता करना आदि जैसे अन्य प्रावधान भी हैं.’
इस पर नंदी ने कहा कि सरकार ने यह बात साफ़ नहीं कही है, हालांकि, ये सभी अन्य प्रावधान पूरी तरह से अलग बातों से संबंधित हैं और पूरी तरह से अलग प्रभाव रखते हैं.
पीठ ने केंद्र के इस तर्क की ओर भी इशारा किया कि अपवाद को खत्म करने और विवाह के दायरे में गैर-सहमति से यौन संबंध के कृत्यों को अपराध घोषित करने से विवाह संस्था को अस्थिर करने की संभावना होगी. इस पर नंदी ने कहा, ‘विवाह संस्थागत नहीं बल्कि व्यक्तिगत है – विवाह की संस्था को कोई भी चीज़ नष्ट नहीं कर सकती, सिवाय उस क़ानून के जो विवाह को अवैध और दंडनीय बनाता है.’
कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने यह तर्क देने के लिए विदेशी देशों के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि ये अपवाद संवैधानिक नहीं है.
उन्होंने उन्होंने स्पष्ट किया कि नेपाल में मैरिटल रेप विवाह संस्था को अपमानित नहीं करता. यह कहता है कि विवाह के भीतर हिंसा और बलात्कार होना विवाह संस्था को नीचा दिखाता है और इसे दंडित करना वास्तव में विवाह संस्था को शुद्ध करता है.’
सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने बीएनएस की धारा 67 का भी उल्लेख किया, जो पति द्वारा उसकी पत्नी, जो अलग रह रही है, से उसकी सहमति के बिना, चाहे अलगाव की डिक्री के तहत या अन्यथा, यौन संबंध को दंडनीय बनाती है. अदालत ने कहा कि यह विवाह के भीतर एक अपराध को मान्यता देता है लेकिन ये वहां है, जहां दोनों पक्षों ने एक साथ नहीं रहने या वैवाहिक संबंध को खत्म करने का फैसला किया है.
सुनवाई के दौरान, जस्टिस पारदीवाला ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाने के नतीजों पर विचार करते हुए नंदी से ऐसी स्थिति के बारे में पूछा, जिसमें पत्नी अपने पति के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराती है. उन्होंने कहा, ‘अगर पति संभोग की मांग करता है और पत्नी मना कर देती है, तो वह मानती है कि पति को ऐसा नहीं करना चाहिए था, और अगले दिन वह जाकर एफआईआर दर्ज कराती है कि ऐसा हुआ है, तो आप इसे कैसे समझते हैं- हम इस पर आपकी सहायता चाहते हैं.’
इस पर नंदी ने अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लेख करते हुए कहा कि अपवाद की उपस्थिति विवाह में यौन कृत्यों के लिए सहमति व्यक्त करने के पत्नी के अधिकार में बाधा डालती है. उन्होंने कहा, ‘वर्तमान में मेरा न कहने का अधिकार मेरे स्वतंत्र और खुशी से हां कहने के अधिकार को भी छीन लेता है. क्योंकि मुझे इस अपवाद के तहत एक कानूनी विषय और एक यौन वस्तु तक सीमित कर दिया गया है.’
उल्लेखनीय है कि इससे पहले केंद्र सरकार ने अपने हालिया हलफनामे में न्यायालय द्वारा वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने का विरोध किया है. सरकार का कहना है कि विवाहित महिलाओं को यौन हिंसा से बचाने के लिए कानून में वैकल्पिक उपाय पहले से ही मौजूद हैं और विवाह संस्था में ‘बलात्कार’ के अपराध को जोड़ना ‘अत्यधिक कठोर’ और असंगत हो सकता है.
केंद्र का दावा है कि इस मामले का फैसला करने के लिए, सभी राज्यों के साथ उचित परामर्श के बाद एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है. ये मुद्दा ‘कानूनी’ से अधिक ‘सामाजिक’ है और वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण विधायी नीति के दायरे में आता है.
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि देश में वैवाहिक बलात्कार को ‘अपराध’ करार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अगर एक पुरुष के अपनी पत्नी से यौन संबंध बनाने को रेप माना गया, तो इससे दांपत्य संबंधों पर गहरा असर होगा. इससे विवाह संस्था में गंभीर उथल-पुथल हो सकती है.