सुप्रीम कोर्ट ने मदरसों को बंद करने की एनसीपीसीआर की सिफारिश पर अंतरिम रोक लगाई

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम का पालन नहीं करने वाले सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों को बंद करने की सिफारिश की थी, जिसके ख़िलाफ़ जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने शीर्ष अदालत का रुख़ किया था.

(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (21 अक्टूबर) को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा जारी उन सिफारिशों पर फिलहाल रोक लगा दी है, जिसमें शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम का पालन नहीं करने वाले सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों को बंद करने की बात कही गई थी.

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, अदालत ने यह भी आदेश दिया है कि इस मामले में केंद्र, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा सरकार के आगामी निर्देशों पर भी कार्रवाई नहीं की जाएगी, ये आदेश स्थगित रहेंगे.

मालूम हो कि ये अंतरिम आदेश भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन-जजों की पीठ ने जमीयत उलेमा-ए-हिंद की याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया है.

द हिंदू के मुताबिक, इस संबंध में शीर्ष अदालत के समक्ष एक अन्य याचिका भी लंबित है, जिसमें मदरसा अधिनियम- 2004 को रद्द करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 22 मार्च के फैसले को चुनौती दी गई है.

सोमवार को हुई सुनवाई में अदालत ने उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा सरकार के उन आदेशों पर भी रोक लगा दी है, जिसमें गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों के छात्रों को सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने का अनुरोध किया गया था.

याचिका में तर्क दिया गया है कि इस साल 7 जून और 25 जून को जारी एनसीपीसीआर की सिफारिशें अनुच्छेद 30 के तहत धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को प्रभावित करती हैं.

ज्ञात हो कि संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने के अधिकार की गारंटी देता है.

जमीयत ने अदालत को बताया कि इस संबंध में राज्य की व्यापक कार्रवाई ऐसे मदरसे चलाने वाले अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, क्योंकि कानून में भी इस तरह की व्यापक कवायद करने का कोई अधिकार न तो राज्य के पास, न ही केंद्र के पास और निश्चित तौर पर एनसीपीसीआर के पास तो बिल्कुल भी नहीं है.

याचिका में कहा गया है, ‘देश में एनसीपीसीआर द्वारा मदरसों का वर्तमान उत्पीड़न, शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम के तहत मिली शक्ति, जो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा समर्थित है,  इस माननीय न्यायालय द्वारा बरकरार रखी गई संवैधानिक सुरक्षा की पूरी तरह से अवहेलना करता है और मदरसों के प्रशासन में मनमाने ढंग से हस्तक्षेप करना चाहता है.

आरटीई अधिनियम की धारा 1(5) में कहा गया है, ‘इस अधिनियम में निहित कोई भी बात मदरसों, वैदिक पाठशालाओं और मुख्य रूप से धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाले शैक्षणिक संस्थानों पर लागू नहीं होगी.’

मालूम हो कि अपने 7 जून 2024 के पत्र में, एनसीपीसीआर ने यूपी सरकार से राज्य के सभी सरकारी सहायता प्राप्त/मान्यता प्राप्त मदरसों की विस्तृत जांच करने को कहा था जो गैर-मुस्लिम बच्चों को प्रवेश देते हैं ताकि ऐसे बच्चों को औपचारिक शिक्षा के लिए स्कूलों में प्रवेश दिया जा सके.

समिति के 25 जून के पत्र में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के शिक्षा और साक्षरता विभाग के सचिव से सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को मौजूदा मदरसों का निरीक्षण करने और आरटीई अधिनियम का अनुपालन नहीं करने वालों की मान्यता वापस लेने का निर्देश देने को कहा गया है.

इसके बाद 26 जून को यूपी के मुख्य सचिव ने जिला मजिस्ट्रेटों को 7 जून के एनसीपीसीआर पत्र में दिए गए निर्देशों का पालन करने के लिए कहा था. त्रिपुरा सरकार ने भी 28 अगस्त 2024 को इसी तरह के निर्देश जारी किए थे. वहीं, केंद्र ने भी 10 जुलाई 2024 को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को खत लिखकर एनसीपीसीआर की सिफारिशों के तहत उचित कार्रवाई करने को कहा था.

पीठ, जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे, ने याचिका में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को पक्षकार बनाने के लिए जमीयत की वकील वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह के अनुरोध को स्वीकार कर लिया.

गौरतलब है कि अकेले यूपी में 16,513 मान्यता प्राप्त मदरसे हैं, जो लगभग 27 लाख छात्रों को शिक्षा देते हैं. इनमें से 558 पूरी तरह से राज्य द्वारा वित्त पोषित हैं और बाकी सरकारी सहायता प्राप्त निजी मदरसे हैं.