खबर है कि जब बाबरी मस्जिद की ज़मीन की मिल्कियत तय करने के मामले में कोई रास्ता नहीं निकल रहा था तब देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ अपने ईश्वर के सामने करबद्ध बैठे और कहा कि अब तुम्हीं राह दिखलाओ. यह चंद्रचूड़ साहब ने अपने गांववालों को बतलाया. मतलब यह कि जो फ़ैसला न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और उनके बिरादर न्यायमूर्तियों ने दिया, वह उनका नहीं था, ईश्वर ने लिखवाया था.
लेकिन यह कहकर एक तरह से चंद्रचूड़ साहब ने यह स्वीकार कर लिया कि निर्णय उनका लिखा हुआ था जिस पर बाक़ी 4 बिरादर न्यायमूर्ति राज़ी हो गए. उनके इस वक्तव्य से इस प्रश्न का उत्तर भी मिल गया कि क्यों फ़ैसले पर किसी न्यायमूर्ति का दस्तख़त नहीं था. यानी आजतक लोग-बाग सिर्फ़ अंदाज लगा रहे थे कि फ़ैसला किसने लिखा. उसकी भाषा और शैली देखकर कानाफूसी हो रही थी कि यह उसी का कमाल हो सकता है जिसके पास वाग्मिता हो, वाक् कौशल हो, जो विचारों की कलाबाज़ी में माहिर हो. अब यह मालूम हुआ कि यह तो ईश्वर ने डिक्टेट करवाया था, न्यायमूर्तियों ने मात्र लिपिक का काम किया.
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह नहीं कहा कि वे अकेले ईश्वर के समक्ष गए या पांचों न्यायमूर्तियों ने ईश्वर से सामूहिक प्रार्थना की. अपनी सामूहिक असमर्थता बतलाई और ईश्वरीय हस्तक्षेप का अनुरोध किया. क्या दैवीय वाणी सबको एक सी सुनाई दी?
यह सुनकर कई आस्तिकों की ईश्वर पर आस्था चूर-चूर हो गई होगी. मैं अपने जैसों की बात नहीं कर रहा लेकिन कई कर्मकांडी और अन्य धार्मिक लोग इस फ़ैसले को पाप मान रहे थे. कई राम उपासक भी दुखी थे कि उनके आराध्य देव के नाम पर यह अन्याय किया गया. वे इस बात से आहत थे कि विश्व हिंदू परिषद को राम का अभिभावक या मित्र मान लिया गया और राम हमेशा के लिए नाबालिग मान लिए गए जिनके हितों के बारे में उनसे अधिक परिषद को पता है. राम ख़ुद अपने हितों की रक्षा नहीं कर सकते.
चंद्रचूड़ साहब ने यह नहीं बतलाया कि ईश्वर के अनेकानेक रूपों में किस रूप के आगे उन्होंने विनती की. उन्होंने अपने गांववालों को बतलाया कि वे लंबे समय से पूजा करते रहे हैं. हमने हाल में इसका एक सबूत देखा. वे देश के प्रधानमंत्री के साथ गणेश की पूजा कर रहे थे. उस तस्वीर से तो लग रहा था कि मुख्य रूप से पूजा तो प्रधानमंत्री कर रहे थे. वे और उनकी पत्नी सहायक भूमिका में प्रधानमंत्री के सुर से सुर मिलाने और घंटी बजाने का काम कर रहे थे.
क्या ऐसा हमेशा उनके याह होता है कि कोई ताकतवर आकर देवता या देवी के आगे की जगह ले लेता है और वे उसके अगल-बगल की जगह?
किसी ने कहा कि उनके ईश्वर के समाधान को अल्लाह को मानने वाले न्यायाधीश ने भी मान लिया तो क्या चंद्रचूड़ साहब निराकार के आगे ध्यान लगाकर रास्ता सुझाने की अरज कर रहे थे?
उसके पहले उन्होंने अपनी धार्मिकता का प्रमाण दिया था गुजरात यात्रा के दौरान. द्वारकाधीश और सोमनाथ के मंदिरों का भ्रमण उन्होंने सपत्नीक किया और यह निश्चित किया कि इसे रिकॉर्ड करके व्यापक तौर पर प्रसारित किया जाए. यह संभव न था कि बिना उनकी जानकारी और इजाज़त के उनकी यह निजी यात्रा सार्वजनिक चर्चा का विषय बने.
गुजरात के यात्रा में उन्होंने मंदिरों के ऊपर लहराती धर्म ध्वजा को देखकर प्रेरणा प्राप्त की. कहा कि उन्हें द्वारकाधीश के ऊपर की ध्वजा देखकर जगन्नाथपुरी की ध्वजा की याद आ गई: ‘हमारे देश की परंपरा की सर्वव्याप्ति को तनिक देखिए, यह हम सबको बांधती है. इस ध्वजा का हम सबके लिए एक विशेष अर्थ है. हम सबके, (वकील, न्यायाधीश, नागरिक) ऊपर हमें एक करने वाली ताक़त है, जो क़ानून के राज और भारत के संविधान से चालित होती है.’
यह संभव है कि किसी चंद्रचूड़ साहब को द्वारकाधीश मंदिर के ऊपर की ध्वजा देखकर पुरी की ध्वजा याद आ जाए. लेकिन क्या यही इस देश की एक करने वाली परंपरा है? हम सबके ऊपर की शक्ति कौन है? क्या उसका प्रतीक धर्म ध्वजा हो सकती है?
प्रधानमंत्री अपने मतदाताओं के सामने अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करे, यह समझ में आता है लेकिन न्यायाधीश अगर ऐसा करने लगें और उसे अपने फ़ैसलों का स्रोत या प्रेरणा अपने धर्म या ईश्वर को बतलाने लगें तो फिर अदालत से सबका विश्वास उठ जाएगा.
बाबरी मस्जिद के मामले को सुलझाने का ज़िम्मा लेकर ही हमारे न्यायमूर्तियों ने गलती की थी. वह उनकी औक़ात के बाहर की चीज़ थी. उनके सामने तो बाबरी मस्जिद की ज़मीन की मिल्कियत तय करने का मसला था. उन्होंने ख़ुद क़बूल किया कि मस्जिद सदियों से उस ज़मीन पर खड़ी थी. वह ज़िंदा मस्जिद थी, उसमें 400 साल से इबादत की जा रही थी. अदालत ने यह भी क़बूल किया कि इसका कोई प्रमाण नहीं है कि यह किसी मंदिर को ध्वस्त करके बनाई गई थी. उसे उन्होंने प्रासंगिक भी नहीं माना था. यह भी माना कि 1949 में मस्जिद में हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां चोरी-चोरी रात के अंधेरे में रख दी गई थीं. न्यायमूर्तियों के मुताबिक़ यह अपराध था.
उसी तरह 6 दिसंबर, 1992 को मस्जिद को ढहाने का काम भी आपराधिक कृत्य था, यह सारे न्यायमूर्तियों ने कहा. लेकिन यह सब कहने के बाद उन्होंने कहा कि मस्जिद की ज़मीन राम के अभिभावक या मित्र को दे देनी चाहिए. यानी उसी को जिसने अदालत की ज़बान में ही दो बार अपराध किए थे: एक बार 1949 में और फिर 1992 में. उनका तर्क यह था कि वे बेचारे बार-बार जो उपद्रव या अपराध बाबरी मस्जिद में कर रहे थे उससे साबित होता है कि वे लगातार उस पर अपना दावा पेश कर रहे थे. इस दावे को कैसे ठुकराया जा सकता है?
इस न्यायिक कलाबाज़ी के ज़रिये बाबरी मस्जिद की ज़मीन की मिल्कियत उन्हीं को दे दी गई जिन्होंने वहां अपराध किए थे.
क्या ईश्वर ने, वह राम हो या शिव या कृष्ण, हमारे न्यायमूर्ति को यह न्यायिक चतुराई करने की प्रेरणा दी थी? क्या उसने उन्हें संविधानसम्मत न्याय के मार्ग को छोड़कर संख्याबल और सत्ता को प्रसन्न करने का आदेश दिया था? जो बात एक साधारण व्यक्ति देख सकता था, क्या सर्वज्ञ ईश्वर की निगाह से वह ओझल रह सकती थी कि ये न्यायमूर्ति वास्तव में न्याय के नाम पर अन्याय कर रहे थे?
वह अन्याय न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने जारी रखा जब उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण को यह कहकर अनुमति दी कि यह तो याचकों की उत्सुकता को शांत करने के लिए आवश्यक है. वे बेचारे यह जानना भर चाहते हैं कि मस्जिद के भीतर क्या है. अब मस्जिद के तहख़ाने में पूजा हो रही है और उसके एक हिस्से पर मुसलमानों का स्वामित्व नहीं के बराबर है. क्या इस निर्णय की प्रेरणा भी ईश्वर ने दी थी?
हमेशा मुस्कुराते मुखड़ेवाले चंद्रचूड़ साहब ने जेलों में बंद उमर ख़ालिद जैसे लोगों की जमानत की अर्ज़ी वैसी पीठ को दी जो कभी सरकार के आलोचकों को राहत नहीं देती तो उन्होंने तय कर दिया कि उमर के साथ अन्याय जारी रहे. यह ठीक है कि उन्होंने साईबाबा की दोषमुक्ति पर रोक लगाने से इनकार किया था लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने उस मामले को खुला रखा.
प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में इस लोक विश्वास को सिद्ध किया गया है कि पंच में परमेश्वर का वास होता है. यानी वह सांसारिक प्रीति, लोभ, भय से ऊपर उठ जाता है. लेकिन न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और उनके बिरादरों के आचरण से यह नहीं मालूम होता वे सांसारिकता से बुरी तरह लिपटे हुए हैं. बाबरी मस्जिद की ज़मीन सत्ताधारियों को भेंट करने की एवज़ में उनमें से एक को राज्यसभा की सदस्यता मिली. एक को राज्यपाल का पद मिला. फिर अभी अगर लोग यह कह रहे हैं कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ यह जो अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करने लगे हैं, वह किसी आध्यात्मिक कारण से नहीं तो वे लोग क्या ग़लत हैं?
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ को लेकिन यह मालूम होना चाहिए कि न्यायालय की संस्था की उम्र उनसे कहीं अधिक है. जैसे उनके पिता के अन्याय को इतिहास ने दर्ज किया, वैसे ही आगे ऐसा वक्त ज़रूर आएगा जब वह उनकी और उनके कई बिरादरों की नैतिक दुर्बलता को नोट करेगा. तब यह दर्ज किया जाएगा कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की इमारत जब गिराई जा रही थी, हमारे कई न्यायाधीशों ने उसकी नींव खोदने का काम किया. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का नाम उसमें सुर्ख़ियों में होगा.
भारत में कभी न्यूरेमबर्ग मुक़दमा होगा इसकी उम्मीद नहीं लेकिन इतिहास तो लिखा ही जाएगा. चंद्रचूड़ साहब को हाल में यह चिंता भी सताने लगी है कि इतिहास उन्हें कैसे याद करेगा. इससे यह मालूम होता है कि ख़ुद को इस लायक़ तो मानते ही हैं कि वे इतिहास में फुटनोट में नहीं रहेंगे. इतिहास उन्हें कैसे याद करेगा इसका इंतज़ाम तो वे ख़ुद किए दे रहे हैं. वे इतने पारदर्शी हो चुके हैं कि अब किसी खोजबीन की ज़रूरत ही नहीं बची.
(लेखक दिल्ली विश्ववद्यालय में पढ़ाते हैं.)