‘आज के गोल्दा चिंग्ड़ीर दाम बेड़े जाबे’ (आज बड़ी झींगा मछली का दाम बढ़ जाएगा), एक हाथ में झोला लटकाए बाज़ारमुखी मुखर्जी महाशय ने मुस्कराते हुए ऐलान किया. सुबह-सुबह किसी बंगाली का मछली के दाम बढ़ने पर चिंता व्यक्त करना स्वाभाविक है परंतु इस पर उनकी ख़ुशी का इज़हार रहस्यमय था. मेरी पत्नी और मैं प्रातः टहलने जा रहे थे परंतु मैंने उनसे पूछ ही लिया, ‘केनो, चिंग्ड़ीर दाम केनो बेड़े जाबे?’ (क्यों, झींगे का भाव क्यों बढ़ जाएगा?). फिर मुखर्जी महाशय ने पूरे विषय का खुलासा किया.
पिछली संध्या कलकत्ता में मोहन बागान और ईस्ट बंगाल क्लबों के बीच फुटबाल का महाघमासान था, जिसे बंगाल में डर्बी के नाम से जाना जाता है. मुखर्जी बाबू घोटी थे और अपरिहार्य रूप से मोहन बागान क्लब के समर्थक. चूंकि मोहन बागान ने यह मैच जीता था इसलिए मुखर्जी बाबू का आज गोल्दा चिंग्ड़ी खाकर ख़ुशी मनाना अनिवार्य था. अगर ईस्ट बंगाल ने यह मैच जीता होता तो बांगाल लोगों की बाछें खिली होतीं और आज इलिश (हिलसा) मछली का बाज़ार गरम हो जाता. पैंतीस वर्ष पूर्व घोटी और बांगाल से यह मेरा पहला परिचय था.
दूर-पास के राज्यों पर अगर हम नज़र दौड़ाएं तो पाते हैं कि वहां के वासियों ने अपने राज्य के विभिन्न क्षेत्रों और एक दूसरे की पहचान मुख्यतः ऐतिहासिक, भाषीय, प्रजातीय और भौगोलिक मानदंडों या फिर इनमें से किन्हीं दो के संयोजन पर आधारित करके स्थिर की है. जैसे बिहार के प्रमुख क्षेत्र हैं, मगध, मिथिला तथा भोजपुर जहां क्रमशः मगधी, मैथिली और भोजपुरी बोली जाती है. (हां, यह कहना मुश्किल है कि मगध साम्राज्य के नाम पर भाषा का नाम पड़ा या साम्राज्य ने भाषा का नाम लिया). इसी तरह उत्तर प्रदेश के प्रधान क्षेत्र हैं, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध, ब्रज, बुंदेलखंड और रोहिलखंड, दोआब और तराई जहां क्षेत्रों और लोगों को उनके पारंपरिक भौगोलिक या ऐतिहासिक अवस्थिति या भाषा से चिह्नित किया जाता है.
पश्चिम बंगाल में स्थिति कुछ अलग है. यहां की मूल भाषा तो बांग्ला है किंतु इस राज्य में बंगालियों की एक बहुत बड़ी संख्या ने उपरोक्त मानदंडों में से किसी एक या दो के अनुसार अपने आप या अन्य को चिह्नित करने का कोई विलक्षण आधार नहीं बनाया है- बंगाल होने की वजह से यहां के लोगों ने इन सारे मानदंडों के मिश्रण को सांस्कृतिक छौंक लगाकर बेहद चटपटा बना दिया है.
घोटी और बांगाल एक नदी के दो तीर हैं. यह नदी है गंगा जो पश्चिम बंगाल में हुगली बन जाती है. हुगली नदी का पश्चिमी किनारा घोटी लोगों का निवास स्थान माना जाता है और इसके पूर्वी किनारे से सटे सीमांत के आगे बांगाल लोगों का इलाक़ा है. इस विभाजन का रेखांकन 1911 के बंगाल विभाजन से जुड़ा हुआ है, लेकिन यह अंतर 1947 में स्वतंत्रता के बाद घटने वाले विशाल जनसांख्यिक स्थानांतरण के साथ इस प्रांत के सामाजिक पटल पर गहराकर उभर आया.
विशेष रूप से 1971 में बांग्लादेश के गठन के बाद दक्षिण बंगाल में राजमहल पहाड़ियों और छोटा नागपुर पठार की सीमा से गंगा-हुगली के तट तक के इलाक़े में रहने वाले लोग घोटी चिह्नित हो गए, तथा पहले पूर्व पाकिस्तान और उसके बाद बांग्लादेश से आने वाले लोग आप से आप बांगाल के नाम से जाने जाने लगे. यहां एक स्पष्टीकरण आवश्यक है- उत्तर बंगाल में बांगाल-घोटी का यह भेद प्रचलित नहीं है. फिर भी वहां पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से आए लोगों को ‘भाटिया’ बुलाया जाता है, यानी वे लोग जो नीची भूमि, भाट स्थान, से आए हैं.
बिना कहे ही पश्चिम बंगाल के सार्वजनिक जगत में यह जन-जाहिर है कि घोटी या बांगाल शब्द अधिकतर हिंदू जनसंख्या के संदर्भ में ही व्यवहार होता है. आज़ादी के समय या तत्पश्चात् पूर्व पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल आए लोगों में एक बहुत बड़ी संख्या विस्थापित परिवारों की थी जो अपना सर्वस्व पीछे छोड़ आए थे. ज्ञात होगा कि उस काल में यही स्थिति दिल्ली में पश्चिम पाकिस्तान के पंजाब से आए शरणार्थी परिवारों की थी.
पश्चिमी और पूर्वी सीमाओं से शरणार्थियों के भारत आगमन में एक बड़ा अंतर था- स्वतंत्रता और विभाजन के समय देश के पश्चिम में एक बार में ही लोगों का विशाल देशांतरण हुआ जबकि पूर्व में यह प्रक्रिया भिन्न गति से स्वतंत्रता के दो-तीन दशकों के बाद तक चलती रही, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के सृजन के पश्चात तक. स्वाभाविक है कि घर-बार, माल-असबाब और खेत-कारोबार पीछे छोड़ आने वाले लोगों को परिश्रम के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिखाई दिए. इसलिए उत्तर भारत में सिखों और पंजाबियों की तरह देश के पूरब में बांगाल अपने अथक परिश्रम और उद्यम के लिए जाने गए.
शिक्षा के महत्व को समझकर उन्होंने उसे व्यापक रूप से अपनाया और महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया. यही वजह है कि बंगाली मध्य वर्ग में सर्वप्रथम बांगाल महिलाएं बड़ी संख्या में घर से बाहर भी काम करने लगीं, और अब तो पश्चिम बंगाल में यह आम बात हो गई है. बांगालों में आगे बढ़ने की एक भूख थी जो घोटियों में नहीं थी. ज़मीन हो या व्यापार, नौकरी हो या उद्योग, घोटी अपनी आजीविका की ओर से अपेक्षाकृत कहीं अधिक आश्वस्त रहे. घोर अभाव से अछूते घोटियों के बोल-चाल, रहन-सहन, तथा शौक़-संगीत पर बंगाली ‘भद्र लोक’ तहज़ीब का प्रभाव कहीं अधिक दिखता है.
कहते हैं कि भाषा हर दस मील पर बदल जाती है. अगर आप इस राज्य के पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक पदयात्रा करें तो पाएंगे कि बांग्ला भाषा अगर हर दस मील में न भी बदले तो भी हर ज़िले की बांग्ला में तो आप कई बार परिवर्तन पहचान जाएंगे. इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि हालांकि घोटी और बांगाल दोनो ही बांग्ला बोलते हैं उनके बोलने के तौर तरीके में, उच्चारण, तथा शब्दों के चुनाव में फर्क़ है.
लेकिन यह भी सही है कि लिखित साधु भाषा और व्याकरण में दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है. बस थोड़ा-सा ही फर्क़ घोटियों और बांगालों के धार्मिक, विशेषकर शादी ब्याह के, रीति-रिवाजों में दिखाई देता है. घोटी और बांगाल परिवारों के बीच कम से कम दो-तीन दशकों से विवाह संबंध अब सामान्य हो गए हैं. वर्षों पहले मैंने अपने एक बांगाल मित्र से पूछा था कि बांगाल और घोटी दंपत्ति के बच्चों को क्या कहते हैं. उसने सहजता से मुस्कराते हुए से उत्तर दिया, ‘बाघ’ और फिर मुस्कराते हुए ही कहा, ‘बा बाटी’ (या कटोरी).
जैसा कि अवश्यंभावी था घोटी और बांगाल, दोनों ही वर्गों में सर्वाधिक अंतर खान-पान के प्रसंग में ही नज़र आता है. दोनों ही खाने-पीने के बेहद शौक़ीन हैं परंतु दोनों की पसंद में तेल-मसाले से लेकर सब्ज़ी-मछली तक की भिन्नता है. घोटियों के खाने में मंद मिठास होती है और उन्हें हल्के मसाले परंतु छने-तले पदार्थ प्रिय हैं, बांगालों को कम तेल का मसालेदार और तीखा भोजन रास आता है. जहां घोटी विभिन्न तरह की सब्ज़ी-भाजी तथा तरह तरह की बड़ियों के संग बने व्यंजन पसंद करते हैं वहीं बांगाल को सुबह के नाश्ते में भी हो सके तो मछली चाहिए.
घोटी नदी या पोखर, मीठे जल, में होने वाली मछली जैसे रोहू और कतला, पसंद करते हैं, तो बांगाल को समुद्री और खारे पानी के नदियों में पाई जाने वाली हिलसा, पारशे, पाब्दा जैसी अनगिनत प्रकार की मछलियां पसंद हैं. खाने में अगर कुछ भी सामिष न हो तो घोटी सब्ज़ी में पोस्तो, यानी खसखस, डालकर काम चला लेंगे, परंतु बांगाल वहां शुक्टी, यानी सुखाई गई मछली, का व्यवहार करने से नहीं चूकेंगे.
मेरे विचार से बांगाल भोजन में विविधता और स्वाद दोनों का बाहुल्य है, जिसके समक्ष घोटी व्यंजन हथियार डाल देते हैं. इस मत से मेरे कई घोटी मित्र भी व्यक्तिगत रूप से सहमत हैं.
घोटी और बांगाल कई विषयों पर एकमत हो सकते हैं परंतु जिस बात पर सहमति लगभग असंभव है वह है- फुटबॉल के मैदान में सर्वोच्च कौन है, मोहन बागान या ईस्ट बंगाल? इन दो टीमों में पहला मैच 1921 में हुआ था जिसमें दोनों ही टीमें गोल करने में असमर्थ रही थीं. तब से चली आ रही इस प्रतिस्पर्धा की आंच बढ़ी ही है, कम नहीं हुई.
इन दोनों टीमों के बीच खेले गए मैच को डर्बी की संज्ञा दी जाती है. यह मैच कम, युद्ध अधिक दिखता है. जिस संध्या यह मैच निर्धारित होता है उस दिन सूर्यास्त के पूर्व ही कलकत्ता और आस-पास के ज़िलों के सारे रास्ते सॉल्ट लेक स्थित विवेकानंद युवा भारती क्रीड़ागंन की ओर मुड़ जाते हैं. बसों, ट्रकों, मिनी ट्रकों और अन्य हर तरह के निजी और सार्वजनिक गाड़ियों में ठसाठस भरे दोनों टीमों के समर्थक अपनी-अपनी टीमों की जर्सी पहने, पताका लहराते, नारे लगाते, उत्साही गीत गाते हुए क्रीड़ागंन पहुंच जाते हैं- अपने-अपने सीमांकित स्टैंड में.
और फिर अगले डेढ़-दो घंटों तक फुटबॉल का जुनून, जोश और शोर क्रीड़ागंन में हिलोरें भरता रहता है. अंत में हारने वाली टीम के समर्थकों के बीच चर्चा के दो ही विषय होते हैं- 1) वह न होने वाला गोल जो फिर भी हो गया किस खिलाड़ी की मूर्खता, आलस्य, अस्वस्थता, अकर्मण्यता, धोखाधड़ी, कुटिलता, फाउल या ऑफ-साइड की वजह से हुआ, और, 2) घर में इंतज़ार करती मलाई चिंग्ड़ी या भापा इलिश आज गले से कैसे उतरेगी?
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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