राष्ट्रवाद के सरकारी नारे नहीं, संस्कृत को स्वतंत्र शोध चाहिए

संस्कृत को एक विशेष धर्म या संस्कृति के ‘मूल्यों’ की वाहक बना दिया गया है. उसका मूल उद्देश्य ज्ञान का प्रसार नहीं, लोगों को राष्ट्रवादी और संस्कारी बनाने का है. एक विशेष प्रकार की नैतिकता के बोझ से दबी बेचारी संस्कृत किस तरह विद्यार्थियों को आकर्षित करे?

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: यूट्यूब/ RC PassionART)

संस्कृत शिक्षण और अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आर्थिक सहायता की घोषणा की है. अगर राज्य किसी भी भाषा के अध्ययन-अध्यापन में रुचि ले तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. पूरी दुनिया में भाषा, साहित्य, मानविकी के अध्ययन-अध्यापन से राज्य अपना हाथ खींच रहा है. वह इस पर पैसा लगाना बर्बादी मानता है. ऐसी स्थिति में अगर कोई राज्य किसी भी भाषा के अध्ययन में सहायता के लिए हाथ बढ़ाता है तो ख़ुशी होनी चाहिए.

मुख्यमंत्री ने संस्कृत-अध्ययन के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्तियों की संख्या में वृद्धि की घोषणा की. साथ ही गुरुकुल व्यवस्था को फिर से बहाल करने का संकल्प व्यक्त किया. उनका कहना था कि संस्कृत अध्ययन का महत्त्व इसलिए अधिक है कि वह भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ने में मदद करेगा. उनका कहना था कि संस्कृत को ठीक से समझने के लिए उसकी आध्यात्मिक गहराई में उतरना अनिवार्य है. संस्कृत लोगों को दैवी तत्त्व से जोड़ती है. गुरुकुल व्यवस्था क्यों आधुनिक जनतांत्रिक समाज के अनुकूल नहीं, इस पर अलग से चर्चा की ज़रूरत होगी.

मुख्यमंत्री ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि पहले संस्कृत को उपेक्षित किया जाता रहा. 2017 से राज्य में संस्कृत को लेकर उत्सुकता बढ़ी है, इस पर उन्होंने प्रसन्नता ज़ाहिर की. पहले से उनका क्या मतलब है यह स्पष्ट हो जाता है जब वे कहते हैं कि 2017 से राज्य में संस्कृत को लेकर नई जागृति आई. यानी उनकी सरकार बनने के पहले संस्कृत को लेकर राजकीय और सार्वजनिक उदासीनता थी. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद संस्कृत का पुनरुद्धार आरंभ हुआ.

यह बहुत दिलचस्प है कि भारतीय जनता पार्टी का एक नेता 2014 को भारत या हिंदुओं के लिए नई जागृति का आरंभ बिंदु बतलाता है और दूसरा 2017 को अपने राज्य के लिए नवजागरण काल का प्रस्थान बिंदु ठहराता है.

भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ख़ुद का संस्कृत का संरक्षक घोषित कर देना संस्कृत अध्ययन और शोध के लिए शुभ नहीं है. क्योंकि तब संस्कृत एक ऐसी विचारधारा के अनेक प्रतीकों में से एक बनकर रह जाएगी जो श्रेष्ठतावादी, अलगाववादी, और घृणावादी है. यह किसी भी भाषा के साथ अन्याय होगा. सबसे बुरी बात होगी उसका संकीर्ण राजनीति के लिए इस्तेमाल. जब भी किसी भाषा को किसी संस्कृति के गौरव के साथ जोड़ा जाता है, उसे नुक़सान होता है भले ही जो राजनीति यह कर रही हो, उसे फ़ायदा हो.

अपने समृद्ध साहित्य के कारण संस्कृत भारतीय और ग़ैर भारतीय विद्वानों के लिए आकर्षण का विषय रही है. जिन्हें पर्याप्त भारतीय नहीं माना जाता, उन जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत की खोज’ में अत्यंत उदात्त भाषा में संस्कृत की विशिष्टता का लंबा उल्लेख किया है. 1957 में उन्हीं की सरकार ने प्रख्यात भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी के अध्यक्षता में पहले संस्कृत आयोग गठित किया. इसकी सिफ़ारिश पर 1961 में तिरुपति में राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की गई. इसका उद्देश्य था पारंपरिक शास्त्रों का अध्ययन, संस्कृत शिक्षण पद्धति में शोध और परिष्कार, पारंपरिक संस्कृत शिक्षण को आधुनिक शोध से जोड़ना.

नेहरू के बाद कांग्रेस पार्टी ने संस्कृत अध्ययन को राजकीय समर्थन की नीति जारी रखी. लालबहादुर शास्त्री की सरकार ने केंद्रीय संस्कृत संस्थान की स्थापना की. सोचा गया था कि इसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान का दर्जा दिया जाएगा. उनके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान की स्थापना की. देश भर में इसके 15 परिसर हैं. उन्होंने ही रेडियो पर संस्कृत में समाचार वाचन शुरू करवाया. एक नए गणराज्य ने संस्कृत पर जो पैसा लगाया, वह बाक़ी भाषाओं पर निवेश के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा था.

लेकिन उन प्रधानमंत्रियों ने ऐसी पहलकदमियों का ढिंढोरा नहीं पीटा.

धर्म और भाषा 

संस्कृत एक भाषा है और इसका भारत के इतिहास में विशेष दर्जा है, यह वे सभी समझते थे. यह भी सच है कि संस्कृत का हिंदुओं के लिए विशेष महत्त्व है. यह उनके धार्मिक अवसरों के लिए प्रायः अनिवार्य है. इसमें भी कुछ ग़लत नहीं. बौद्ध और जैन धर्मों के लिए भी संस्कृत का धार्मिक महत्त्व है. अलग-अलग धर्म के लिए अलग-अलग भाषा की केंद्रीयता पूरी दुनिया में देखी जाती है. यहूदियों के लिए हिब्रू, इस्लाम के लिए अरबी, ईसाई धर्म के लिए लैटिन, बौद्ध धर्म के लिए पालि का महत्त्व कुछ वैसा ही है जैसा हिंदुओं के लिए संस्कृत का. लैटिन भी आहिस्ता-आहिस्ता ही ईसाइयत की भाषा बन गई. ईसाई धर्म के संदर्भ में ग्रीक भाषा से लैटिन की यात्रा का काफ़ी अध्ययन किया गया है.

धर्म से भाषा का संबंध उसके जीवित बने रहने का एक कारण बनता है, लेकिन एकमात्र नहीं. गिरिजाघरों का लैटिन का इस्तेमाल होता है, लेकिन सारे ईसाई लैटिन नहीं बोलते-पढ़ते या लैटिन उनकी रोज़मर्रा की भाषा नहीं. कुछ अवसरों पर उसका प्रयोग होता है. वह शैक्षणिक और शोध के उद्देश्य से विश्वविद्यालयों में जीवित है. जो भी हो, ईसाई दुनिया में लैटिन को जबरन ‘आधुनिक’ भाषा बनाने का अभियान नहीं दिखता.

लेकिन ऐसा कोई नियम नहीं कि धार्मिक या आनुष्ठानिक मक़सद के लिए प्रयुक्त भाषा घर और सड़क पर कामकाज के लिए न इस्तेमाल हो. अरबी रोज़ाना इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बनी रही है. हिब्रू को ज़रूर इज़रायल ने इज़रायली राष्ट्रवाद की भाषा बनाया है. संस्कृत को हिब्रू की तरह आधुनिक बनाने की कोशिश की जा रही है. जैसे हिब्रू इज़रायली राष्ट्रवाद से जुड़ी हुई भाषा बन गई है, वैसे ही संस्कृत के साथ भी करने की कोशिश की जाती रही है. संस्कृत को रोज़मर्रा के कामकाज की भाषा के रूप में स्वीकार करने की ज़िद एक ख़ास राष्ट्रवादी राजनीति के प्रवक्ता करते रहे हैं. वे जानते हैं कि वे सच नहीं बोल रहे फिर भी वे कहते रहे हैं कि संस्कृत ‘आधुनिक’ भाषा है.

आधुनिकता के प्रति ‘संस्कृतवादियों’ के अतार्किक आग्रह ने संस्कृत के साथ बहुत अन्याय किया है. वे ज़िद करते रहे कि यह आज के विज्ञान, समाजविज्ञान आदि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है. संस्कृत शिक्षण की वैधता के लिए आधुनिकता के तर्क की आवश्यकता नहीं थी. उसमें जो भाषा-चिंतन हुआ है, दर्शन, धर्म को लेकर जो विचार विमर्श हुआ है, जो काव्य रचा गया है, वह पूरी दुनिया में आज भी शोधार्थियों को आकर्षित करता है.

हिंदू धर्म के आचार-व्यवहार के लिए इस भाषा की अनिवार्यता उसके शिक्षण का पर्याप्त कारण है. इस तरह हिंदू धर्माचार्य ईसाइयों और मुसलमानों का अनुकरण कर सकते थे. वे अपने धर्मशास्त्र के साथ उसके लिए अनिवार्य भाषा का भी प्रशिक्षण देते हैं. उसके लिए उनके पास अपनी संस्थाएं हैं. वे मांग नहीं करते कि विश्वविद्यालय यह काम करें. भारत के मंदिरों के पास जो अकूत संपत्ति है, उसके एक अंश का उपयोग वे इस काम के लिए कर सकते थे.

संस्कृत को कामकाज के लिए प्रासंगिक भाषा मानते रहने के कारण त्रिभाषा सूत्र के तहत हमारे स्कूलों में संस्कृत पढ़ाई जाती रही है. बल्कि उत्तर भारत के राज्यों में तो वह एक तरह से तीसरी भाषा रही है. यह हर तरह के स्कूल पर लागू होता है.

मुझे बिहार के सीवान के इस्लामिया हाई स्कूल में, जहां मेरे बड़े भाई ने पढ़ाई की, संस्कृत पढ़ाने वाले पंडितजी की अलग धज याद है. मैं जिस डीएवी स्कूल में पढ़ा, वहां भी संस्कृत पढ़ाई जाती थी. यह बात हर स्कूल के लिए सच है. इसका मतलब यह है कि संस्कृत शिक्षण के लिए सरकारी संरक्षण हमेशा से बना रहा है. लेकिन उसका संस्कृत के अध्यापकों ने क्या किया? वह किस क़िस्म का शिक्षण रहा है? अब तक करोड़ों लोगों ने चार-पांच साल संस्कृत पढ़ी होगी, लेकिन वे कितनी संस्कृत सीख पाए? इसके लिए दोषी कौन है? अब तक स्कूल में संस्कृत शिक्षण की असफलता पर कोई चिंता दिखलाई नहीं पड़ी है. किसी संस्कृत संस्थान ने इस पर कोई अध्ययन नहीं किया है. क्यों संस्कृत शिक्षण कामचलाऊ बना रहा?

संस्कृत का उद्देश्य लोगों को राष्ट्रवादी बनाना नहीं 

संस्कृत को एक विशेष धर्म या संस्कृति के ‘मूल्यों’ की वाहक का काम करना पड़ता है. उसका मूल काम लोगों को राष्ट्रवादी और संस्कारी बनाने का है. परंपरा और आधुनिकता के बीच संस्कृत शिक्षण फंसा रहता है. आधुनिक बनाने के चक्कर में सतही पाठ भर दिए जाते हैं. राष्ट्रीय चरित्रों और विषयों का बोझा तो उसे ढोना ही है. एक विशेष प्रकार की नैतिकता के बोझ से दबी बेचारी संस्कृत किस तरह विद्यार्थियों को आकर्षित करे? यह भी पाया गया कि संस्कृत शिक्षण में भाषा शिक्षण की आधुनिक पद्धतियों का प्रयोग नहीं होता. लेकिन इस अध्ययन पर संस्कृत शिक्षण समुदाय में कोई बहस नहीं हुई.

संस्कृत के राष्ट्रीयकरण और राष्ट्र के संस्कृतीकरण के बारे में सुमति रामास्वामी का लेखन सुपरिचित है. उसमें वे पहले संस्कृत आयोग की रिपोर्ट के माध्यम से बतलाती हैं कि संस्कृत पठन-पाठन में क्यों समस्या रही है. वास्तव में संस्कृत को नए राष्ट्र के संगठन का जिम्मा दे दिया गया. संविधान सभा की बहसों में भी यह बात स्पष्ट थी कि हिंदी और दूसरी इस्तेमाल की जाने वाली भाषाओं के मुक़ाबले संस्कृत को तरजीह देने की वजह एक राष्ट्र के रूप में भारत को गठित करने की चिंता थी. उस बहस में हिंदी वालों ने संस्कृत की अच्छी ख़ासी आलोचना की थी.

संस्कृत को प्राचीन और नवीन दोनों मानने की ज़िद के कारण उसे संविधान की 8वीं अनुसूची में जगह मिल गई जो कि सांसारिक भाषाओं की सूची है. रामास्वामी लिखती हैं कि यह अजीब बात हुई कि संस्कृत को उसकी उच्च पदवी से उतारकर बाक़ी भाषाओं के साथ बिठा दिया गया.

शेल्डन पोलोक ने ‘संस्कृत की मृत्यु’ शीर्षक लेख में विस्तार से बतलाया कि किस प्रकार संस्कृत में सृजनात्मकता का अंत हो गया. उनके इस निष्कर्ष से संस्कृत का समुदाय आहत तो है, लेकिन उन्होंने जो तर्क दिए हैं, उनका उत्तर नहीं दिया गया.

संस्कृत में ‘आधुनिक काल’ में कलात्मक दृष्टि से सौंदर्यात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट लेखन नहीं हुआ है. औसत दर्जे की रचनाओं के माध्यम से, जिनमें रीति निर्वाह होता है, बलपूर्वक साबित करने की कोशिश की जाती रही है कि वह अभी भी सृजन की भाषा है. पिछले 70 सालों में संस्कृत में जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए गए उनमें से किनके नाम संस्कृत वालों को ही याद हैं? प्राचीनता और आधुनिकता के द्वंद्व को न सुलझा पाने के कारण भी उसके पठन-पाठन को लेकर स्पष्टता नहीं आ पाई. उसे कैसे पढ़ा, पढ़ाया जाए?

संस्कृत को आधुनिक बनाने की बेचैनी ने उसके शिक्षण को प्रतिकूल तरीक़े से प्रभावित किया है. तीसरे दर्जे के पाठ जो नक़ली जान पड़ते हैं, संस्कृत के विद्यार्थियों को पढ़ने पढ़ते हैं. यह बतलाया जाता है कि दुनिया का सारा ज्ञान या तो संस्कृत में है या उसी में शुरू हुआ था. यहां तक कि संस्कृत की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में नवीनतम टेक्नोलॉजी का स्रोत भी संस्कृत ग्रंथों को बतलाया जाता है, चाहे वह गणेश जी का अंग प्रत्यारोपण (Organ transplant) हो या पुष्पक विमान हो.

यह झूठ बचपन से ही संस्कृत पढ़ने वालों के दिमाग़ में भर दिया जाता है. उसी तरह यह हास्यास्पद झूठ भी कि वह दुनिया की सारी भाषाओं की जननी है. हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय ने आरएसएस की संस्था ‘संस्कृत भारती’ को संस्कृत दिवस के मौक़े पर प्रदर्शनी लगाने को जगह दी. पंडाल के प्रवेश पर घोषणा थी कि संस्कृत हमारी मातृभाषा है. वहां मौजूद किसी की भी ‘मातृभाषा’ संस्कृत नहीं थी. लेकिन यह दावा बैनर पर किया जा रहा था.

उसी तरह संस्कृत आधुनिक भाषा है, यह दावा किया जाता है, लेकिन उसमें दूसरी भाषाओं से शब्द या मुहावरे लेने में ख़ासा संकोच है, मानो वह अपवित्र हो जाएगी. किसी भी भाषा के जीवित रहने का एक प्रमाण उसके भीतर की ग्रहणशीलता और प्रवहमानता है. संस्कृत का जल ठहरा हुआ है.

2014 या 2017 के बहुत पहले से प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में शुरू से ही संस्कृत विभाग रहे हैं. भारतीय संस्कृति और संस्कृत के आज के उद्धारकों को याद रखना चाहिए कि संस्कृत पर गहन और विस्तृत शोध पश्चिम में तीन सदियों से हो रहा है. भारत में भी 2014 या 2017 के बहुत बहुत पहले से प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में शुरू से ही संस्कृत विभाग रहे हैं. बल्कि ज़्यादातर जगहों पर हिंदी विभाग बाद में स्थापित हुए. सेंट स्टीफेंस कॉलेज में अभी तक संस्कृत विभाग है, लेकिन हिंदी विभाग नहीं. इन्हें शुरू करने के लिए आरएसएस या भाजपा के सत्तासीन होने का इंतज़ार नहीं करना पड़ा.

पश्चिम के संस्कृत विद्वान बनाम भारतीय संकीर्णता  

हमारे संस्कृत विभागों ने संस्कृत भाषा और साहित्य में कितना उत्कृष्ट शोध किया? उन्होंने कितने भाषाविद्, वेद और पुराणविद् पैदा किए? कितने शोध हम विश्वासपूर्वक गिना सकते हैं जिनसे संस्कृत को समझने में सहायता मिलती हो या उसके अध्ययन में नया आयाम जुड़ता हो?

संस्कृत विभागों की तरफ़ से किए जाने वाले सेमिनारों के विषयों से ही मालूम हो जाता है कि संस्कृत अध्ययन को बौद्धिक व्यापार माना ही नहीं जाता. उसे प्रासंगिक बनाने के चक्कर में कभी विज्ञान की भाषा, कभी कंप्यूटर की भाषा तो कभी चिकित्साशास्त्र की भाषा के रूप में उसका गुणगान भर किया जाता है. संस्कृत को संप्रेषण की भाषा बनाने की फ़िक्र भी कई बार सबसे ऊपर जान पड़ती है. ऐसे सारे सेमिनारों में प्रायः पिष्टपेषण किया जाता है और संस्कृत की जय-जयकार की जाती है. इसके अलावा उसे भारतीयता का निर्माण करना है. इन कारणों से संस्कृत ने स्वतंत्र मेधा की कोई जगह नहीं रह गई है. जो संस्कृत के वास्तव में विद्वान हैं, वे संस्कृत की भारतीय मुख्यधारा से बाहर है. हमें समझने की ज़रूरत है कि वेदपाठी अवश्य होने चाहिए, लेकिन असल काम वेद की वास्तविक और नवीन विश्लेषण क्षमता के निर्माण का है. क्या वह करने की इच्छा संस्कृत विभागों में है?

हम ईमानदारी से ख़ुद से पूछें कि संस्कृत अध्ययन के प्रति कितना अनुराग और गंभीरता संस्कृत के विभागों और संस्थानों में है. संस्कृत विभागों पर दक्षिणपंथी वर्चस्व ने बहुत नुकसान पहुंचाया है. दक्षिणपंथी वर्चस्व के साथ परेशानी यह है कि वह बौद्धिकता का शत्रु है. इसलिए वह किसी तरह स्वतंत्र मस्तिष्क को बर्दाश्त नहीं कर सकता. संस्कृत महान है, सर्वश्रेष्ठ है, संस्कृत में सब कुछ है, इस कीर्तन के आगे संस्कृत संसार के स्वामी बढ़ते ही नहीं. इस प्रवृत्ति ने कभी वास्तविक विद्वत्ता को पनपने नहीं दिया.

यह भी अध्ययन का विषय है कि देश भर के संस्कृत विभागों और संस्थानों में दक्षिणपंथी प्रभुत्व उनपर क्या असर डाल रहा है. हम जानते हैं कि दुनिया भर में विश्वविद्यालयों में संस्कृत अध्ययन और शोध चल रहा है. उसके लिए आरएसएस और भाजपा की तरफ़ से प्रेरणा की आवश्यकता नहीं. क्या भारत की संस्कृत की विद्वत्ता संस्कृत की अंतरराष्ट्रीय विद्वत्ता का जीवंत अंग है? क्या यह साहस यहां के संस्कृतवालों को है कि वे इस अंतरराष्ट्रीय संस्कृत समाज से संवाद कर सकें. चूंकि उनमें यह बौद्धिक क्षमता नहीं है, भारत एक भीतर अपना गोल बनाकर वे अपना ही ढोल पीटते रहते हैं. संस्कृत के वैसे पैरोकार जिन्होंने उस पर भारतीय संस्कृति की लादी लाद रखी है, उसे कभी मुक्त करेंगे?