वेनिस बिनाले: कला संसार का उत्सव ज़रूर मनाती है पर उसके त्रास को अनदेखा नहीं करती

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेनिस द्वैवार्षिकी की थीम थी- फॉरेनर्स एवरीवेयर. बहुत से देशों में आवश्यक कलात्मक स्वतंत्रता, सुविधाओं के अभाव के चलते कलाकार अजनबी देशों में भागकर बसते और कला सक्रिय होते हैं. ऐसी कला में अक्सर अवसाद का भाव भी होता है, मुक्ति के अलावा.

/
वेनिस बिनाले में मक़बूल फ़िदा हुसैन की कृतियां. (सभी फोटो साभार: किरण नादर म्यूज़ियम)

वेनिस कुछ पानी में, कुछ ज़मीन पर; कुछ गलियों में, कुछ नहरों पर; कुछ सचाई में, कुछ कल्पना में; कुछ कला-संपदा में, कुछ कवि कल्पना में बसा एक पुराना शहर है जो हर बार नया अनुभव देता है. इस बार पास में कुल एक दिन था और वेनिस बिनाले, बिनाले फाउंडेशन के साथ एक बैठक और मक़बूल फ़िदा हुसैन की प्रदर्शनी. सो, अपने पचासीवें वर्ष के एक दिन हम पच्चीस हज़ार पग चले: गिनती फोन ने की.

यहां कई बार आए हैं: समुद्र जल की उत्ताल तरंगों, इतालवियों की ऊंचे स्वर में अविराम बातचीत, सैलानियों की भीड़, संकरी गलियां, प्रायः हर दिन बारिश, रोज़ीना की छोटी-मोटी ठगी- इनमें से कुछ भी कम नहीं हुआ है. न ही यह याद शिथिल पड़ी है कि वेनिस अनेक कवियों के अगाध प्रेम का पात्र रहा है- जर्मन महाकवि गेटे एक रेस्तरां में जिस मेज़ पर बैठते थे वह विशेष रूप से अंकित है. एज़रा पाउंड और जोसेफ़ ब्रोडस्की की क़ब्रें यहां हैं और रिल्के ने इतनी बार बसेरा किया और वेनिस की जगहों पर लिखा हे कि एक पुस्तक ही है- ‘रिल्केज़ वेनिस’. उसकी एक प्रति साथ थी.

यों तो रिल्के की कीर्ति यह रही है कि वे सारी वस्तुनिष्ठ सचाई को आंतरिक सचाई में बदल देते थे लेकिन वेनिस के बारे में उनकी कविताएं ज़्यादा ठोस और सीधी हैं. गलियों की भूलभुलैया में चकराये अजनबियों को वह किसी भी गली की सही दिशा बता सकते थे. इस बार यह पुस्तक पढ़ने के कारण ऐसा लगता रहा कि हम रिल्के की आर्शीछाया में वेनिस में विचर रहे हैं. चूंकि समय कम था, बहुत-सा अनदेखा भी गुज़रता रहा: हम जितना चले, उतना हम देख नहीं पाए.

वेनिस द्वैवार्षिकी की थीम इस बार के ब्राजीली संग्राहक ने तय की थी- फॉरेनर्स एवरीवेयर, हर जगह विदेशी या अजनबी. आव्रजन संसार में बड़ी समस्या बनता जा रहा है और प्रायः हर देश में ऐसे कलाकार सक्रिय हैं जो उसके मूल निवासी नहीं हैं, किसी और देश से आकर बसे हैं. बीसवीं शताब्दी में तो अनेक देशों में ऐसे विदेशी कलाकारों ने श्रेष्ठता अर्जित की- अकेले फ्रांस में ही विंसेंट वान गाग, पिकासो, मार्क शगाल, साल्वादोर दाली आदि कई मूर्धन्य अजनबी रहे हैं.

बहरहाल, इस द्वैवार्षिकी में भारत के कुछ कलाकारों में रज़ा, सूज़ा, रामकुमार, जामिनी राय, अमृता शेरगिल, बी. प्रभा आदि की कलाकृतियां शामिल की गई हैं. इन सभी चित्रों के साथ उनके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियां युवा कलालोचक लतिका गुप्त की हैं जो अंतर्दृष्टि-संपन्न हैं. पूरी प्रदर्शनी में अफ्रीकी और लातिन अमेरिकी कला की बहुत सी कृतियां शामिल हैं. उनसे यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक समय, कला में, संसार भर में, बहुल है और न तो उत्तराधिकार में, न ही नवाचार में कोई एकतानता है. जो बात कभी चकित करने से नहीं चूकती वह यह है कि तरह-तरह की जानी-मानी और सर्वथा अप्रत्याशित सामग्रियों से कलाकृतियां बनाई जा रही हैं.

बिनाले में, उसे समाप्त होने को अब कुल एक महीना भी नहीं रह गया है, दर्शकों की संख्या अच्छी-ख़ासी बनी हुई है जबकि प्रवेश टिकट से होता है जिसकी क़ीमत ख़ासी मंहगी है. ऐसे लोग हज़ारों में हैं जो सिर्फ़ बिनाले देखने वेनिस आते हैं. कई छात्रों की मंडलियां भी यहां-वहां दिखाई दीं. बिनाले एक ख़र्चीला मामला है जिस पर आने वाला भारी ख़र्च दर्शकों से वसूल किए गए शुल्क, वेनिस नगरपालिका के अनुदान आदि से पूरा होता है.

किसी भी प्रदर्शनी की पूर्वनिर्धारित थीम एक तरह की सीमा भी बन जाती है. फिर भी, यह प्रगट हुआ कि संसार के बहुत से देशों में आवश्यक कलात्मक स्वतंत्रता और सुविधाओं के अभाव की वजह से कलाकार दूसरे अजनबी देशों में भागकर बसते और कला सक्रिय होते हैं. ऐसी कला में अक्सर अवसाद का भाव भी होता है, मुक्ति के अलावा. बिनाले की कई कलाकृतियों में टूटा-बिखरापन, अवसाद और स्मृति की गहरी छापें हैं. कला संसार का उत्सव ज़रूर मनाती है पर वह उसके दुख और त्रास को अनदेखा नहीं करती.

हम शाम के थोड़ा पहले वहां पहुंचे जहां मक़बूल फ़िदा हुसैन की किरण नादर म्यूज़ियम द्वारा नियोजित प्रदर्शनी लगी है. वहां भी दर्शक थे. बहुत दिनों बाद, एक बहुत लंबे अरसे बाद हुसैन के इतने सारे चित्र एक जगह देखकर अच्छा लगा. यह भी याद आया कि कैसे जो राजनीतिक शक्तियां आज भारत में सत्तारूढ़ हैं उन्होंने हमारे इस महान कलाकार को अपने देश से आत्मनिर्वासन के लिए बाध्य किया और वे अपने अंतिम वर्ष अपने देश में नहीं बिता सके और उनकी मृत्यु लंदन में हुई जहां वे दफ़्न हैं.

जो बात इस प्रदर्शनी को देखर सबसे पहले मन में आई वह यह कि हुसैन से अधिक भारतीय कलाकार शायद ही कोई और हुआ हो और यह भी कि उनकी कला ही उनका असली देश है जहां से उन्हें कोई शक्ति या राजनीति या सत्ता या धर्मांधता कभी अपदस्थ नहीं कर सकती.

विपुलता और चित्रों की संख्या में हुसैन आधुनिक भारतीयों में सूज़ा के साथ अद्वितीय ठहरेंगे. उनकी कोई भी प्रदर्शनी जब तक कि उसमें चार-पांच सौ चित्र न हों उनकी समग्रता को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत नहीं कर सकती. यह प्रदर्शनी भी अपर्याप्त लगने को अभिशप्त है. उसमें चित्रों के अलावा कुछ दस्तावेज़ हुसैन के बनाए खिलौने आदि भी शामिल हैं और बहुत सारे फोटोग्राफ़ भी. एक में हुसैन अपने मित्र-चित्रकार रामकुमार के साथ दिल्ली के किसी ऐतिहासिक स्मारक की ऊंची गई सीढ़ियों के शिखर पर बैठे हैं.

प्रदर्शनी का सबसे रोचक अंश है एनीमेशन की तकनीक का इस्तेमाल कर बनाई गई एक सिनेमाई प्रस्तुति जो एक लंबे-ऊंचे हॉल में चलती है और हॉल की दीवारों और फ़र्श को हुसैन के चित्रों, छबियों, हाथ से लिखी इबारतों आदि के ढांपती चलती है. लगता है आप इन चित्रों और छवियों में बैठे हैं. थोड़ा असंतोष इस बात से ज़रूर हुआ कि उसमें सिनेमा, ख़ासकर बंबइया सिनेमा से हुसैन के संबंध को कुछ अधिक जगह और महत्व दिए गए हैं. उसमें एक फिल्मी गीत की पंक्तियां, फिर भी, लुभावनी और मौजूं लगीं, ‘इस दश्त में इक शहर था, क्या हुआ…’. वेनिस में, जैसा कि रिल्के ने अपनी एक कविता में दर्ज किया है, शहर में आकाश की झलक समुद्र के एहसास के साथ मिलती है.

गोर्बियो में कुछ घंटे

जब पिछली शताब्दी के छठवें दशक में रज़ा ने यह निर्णय ले लिया था कि वे अब फ्रांस में ही रहेंगे तब वे उनकी कलाकार फ्रेंच पत्नी जानीन मोंज़िला और रज़ा ने दक्षिण फ्रांस में गर्मियां बिताने के लिए एक घर तलाश करना शुरू कर दिया था. फ्रेंच रिवियेरा में, नीस अंचल में, कान-ग्रेनोव्ल-आंतीब जैसे प्रख्यात कलाग्रामों से बहुत दूर नहीं, मान्तो के पास गोर्बियो गांव में उन्‍होंने बारहवीं शताब्‍दी में एक किसान द्वारा बनाए- रहे घर को खरीदा और उसमें रहते कला सक्रिय रहे.

फिर कुछ ज़मीन लेकर कान्दामेरी में अपना स्टूडियो-घर बनाया. जैसे पेरिस के रूद शारोन्न में 16वीं शताब्दी में बना उनका घर भारतीय मित्रों, लेखकों-कलाकारों के लिए शरण्य था वैसे ही गोर्बियो गरमियों में एक तरह का कलातीर्थ. भारत लौटते समय उन्होंने अपनी सारी जायदाद अपनी गोद ली बेटी को दे दी. हालांकि वे चाहते थे कि गोर्बियो वाले घर में भारत के युवा चित्रकारों के लिए एक रेसीडेंसी कार्यक्रम चलाया जाए. पर वह उनके जीते जी संभव नहीं हुआ.

रज़ा की मृत्यु के बाद और अपनी पिछली वहां की यात्रा के पंद्रह बरस बाद हम इसकी संभावना फिर से खोजने और वहां रज़ा की स्मृति में हर वर्ष कुछ कर पाने पर वहां की ग्रामपालिका को राज़ी करने के लिए, कुछ घंटों के लिए पहुंचे.

गांव थोड़ा बदल गया है. पहले कुल एक रेस्तरां था, सौ वर्ष से अधिक पुराना, पर अब दो नई जगहें और बन गई हैं. चौक भी कुछ संकरा हो गया है. वहां का बारहवीं शताब्दी का बुर्ज, जिसके पुनर्निर्माण के लिए रज़ा ने बड़ी धनराशि दी थी, अच्छी हालत में है. वहां रज़ा और जानीन की कलाकृतियां और अन्य भारतीय प्राचीन मूर्तियां प्रदर्शित हैं जिन्हें रज़ा ने उपहार में शतो को दी थीं. वीथिका में एक इतावली कलाकार की एकल प्रदर्शनी चल रही है. गांव पहुंचते ही मिशेल एम्बेयर मिल गए जो थोड़ा असमय बुढ़ा गए लगते हैं. वे जानीन की मृत्यु के बाद रज़ा के कई अवांछनीय तत्वों से घिरने और उनका शिकार हो जाने को लेकर अब भी दुखी हैं. रज़ा की बेटी बीना भी पेरिस से आ गईं.

रज़ा का घर भी कुछ बदल गया है: बाहरी रूपाकार तो वैसा ही है. पर कुछ नई सीढ़ियां, किचेन आदि बनाए गए हैं. ग्रामपालिका की संस्कृति सचिव से भेंट हुई. हमारे इस प्रस्ताव से कि वहां हर वर्ष दो-तीन युवा भारतीय चित्रकार आएं; उन्हें चित्रों की प्रदर्शनी हो; शास्त्रीय संगीत और नृत्य के कुछ युवाओं का समारोह हो; वे सिद्धांत में सहमत हुईं. उसमें फ्रेंच कलाकारों की शिरकत भी संभव है.

हमने कहा कि हम एक ‘रज़ा-मोंज़ीला फ़ेस्तिवल द गोर्बियो’ हर वर्ष आयोजित कर सकते हैं. जैसे मंडला में वैसे गोर्बियो में, संभव है, अब रज़ा स्मृति जाग सकती है. गोर्बियो का चुनाव रज़ा ने इसलिए भी किया था कि वहां की शांत सुरम्यता, जंगल-पहाड़ से निकटता उन्‍हें अपने बचपन के मंडला-नरसिंहपुर की याद दिलाती थी.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)