(पुलित्ज़र सेंटर और रोहिणी नीलेकणि फ़िलंथ्रोपीस के सहयोग से तैयार यह रिपोर्ट भारत की मछुआरी महिलाओं पर की जा रही सीरीज़ का हिस्सा है. श्रृंखला का पहला, दूसरा और तीसरा भाग यहां पढ़ सकते हैं.)
सुबह के 4 बजे हैं. आसमान में चांद अब भी चमक रहा है. रसोई से बर्तनों की आवाजें आ रही हैं. नम्बु चेलुवी अपना लंच पैक कर रही हैं. फिर आंगन में आकर वह कुछ पुराने प्लास्टिक बैग उठाती हैं और उन्हें मोड़कर रख लेती हैं. अपनी साड़ी के ऊपर वह एक टी-शर्ट पहन लेती हैं. हवाई चप्पल की फट-फट करते वह घर से बाहर निकलती हैं, एक हाथ में प्लास्टिक बैग और चश्मा लटकाए हुए और दूसरे में स्टील का लंचबॉक्स.
वह 100 मीटर भी नहीं चली होंगी कि समुद्र नज़र आने लगता है. पानी में हरे और नीले रंग की नावें तैर रही हैं. कुछ और महिलाएं यहां पहुंचती हैं जिन सबने चेलुवी जैसे कपड़े पहने हैं. सब घुटने भर पानी में उतरकर एक छोटी नाव तक जाती हैं. फिर ये छोटी नाव उन्हें एक बड़ी मोटरबोट पर ले जाती है.
अब सूरज मीठी-सी धूप बिखेरने लगा है और समुद्री हवा चेलुवी के चेहरे को सहला रही है. चेलुवी पानी की तरफ़ इशारा करके कहती हैं कि यहां पर पाक खाड़ी (Palk Bay) और मन्नार की खाड़ी (Gulf of Mannar) मिलते हैं इसलिए एक तरफ़ का पानी नीला दिखता है और दूसरी तरफ़ हरा. जैसे जैसे नाव गांव से दूर जा रही है, रामेश्वरम द्वीप और मुख्य भूमि को जोड़ने वाला पाम्बन पुल छोटा और धुंधला दिखाई देने लगा है.
चेलुवी कपड़े के कुछ टुकड़े निकालती हैं, एक-एक कर उसे अपनी सभी उंगलियों पर लपेटकर रबर बैंड से बांध लेती हैं. उनकी उंगलियां अब कपड़े की छोटी-छोटी गुड़िया जैसी दिख रही हैं. वह अपनी रबर की चप्पलों की फीते बांधती हैं और चश्मे को माथे से खींचकर आंखें ढंक लेती हैं. फिर वह अपनी कमर पर प्लास्टिक की बड़ी एक थैली बांधती हैं. बाक़ी सभी महिलाएं भी ऐसी ही तैयारी कर चुकी हैं.
अब वे समुद्र में गोता लगाने के लिए तैयार हैं, समुद्री शैवाल (Seaweeds) इकट्ठा करने के लिए. वे आस-पास नज़र दौड़ती हैं कि कहां बहुत सारा शैवाल मिलेगा. दूर एक टापू (island) नजर आने लगा है. ‘इसके पीछे वह टापू है जहां मेरी बहन का जन्म हुआ था,’ चेलुवी कहती है. ‘हम दूसरी तरफ़ एक दूसरे टापू पर रहते थे. वही हमारा असली घर है.’
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मन्नार की खाड़ी, भारत और श्रीलंका के बीच एक बड़ी लेकिन उथली खाड़ी है. यह इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) 137 प्रजातियों के मूंगे की चट्टानों (कोरल रीफ) से बना है और इसे अक्सर ‘अंडरवॉटर ट्रॉपिकल रेनफ़ॉरेस्ट (समुद्री उष्णकटिबंधीय वर्षावन)’ कहा जाता है. विश्व स्तर पर लुप्तप्राय जानवर डुगोंग यहां पाए जाते हैं, और छह मैंग्रोव (mangrove) प्रजातियां जो सिर्फ़ भारत में मिलती हैं. इनके अलावा यहां मिलते हैं 147 प्रजातियों के समुद्री शैवाल.
मन्नार की खाड़ी के द्वीपों के आसपास की महिलाएं प्राकृतिक समुद्री शैवाल चुनने का काम करती हैं यह काम करने वाली भारत में वो अकेली हैं इसलिए उन्होंने समुद्री शैवाल हार्वेस्टर के रूप में अपनी अनूठी पहचान बनाई है. उनके लिए समुद्र में गोता लगाना मनोरंजन या रोमांच का काम नहीं, बल्कि उनकी आजीविका का साधन है.
1970 के दशक में प्राकृतिक समुद्री शैवाल से अगर-अगर और एल्गिनेट जैसे फ़ाइकोकोलॉइड निकालने वाले उद्योग बढ़े और इनके साथ ही जंगली समुद्री शैवाल की मांग और कीमत भी बढ़ी. चूंकि समुद्री शैवाल की आपूर्ति- चुनना, सुखाना और बिक्री पूरी तरह से महिलाओं पर निर्भर थी, इस काम ने इस पितृसत्तात्मक समाज में इन महिलाओं को सम्मान और पैसा दिलाया.
इस अद्वितीय और समृद्ध समुद्री पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने 1986 में मन्नार की खाड़ी समुद्री राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की. 1989 में राष्ट्रीय उद्यान के चारों ओर 10 किमी बफर क्षेत्र बढ़ाया गया और मन्नार की खाड़ी बायोस्फीयर रिजर्व (जैवविविधता संरक्षण क्षेत्र) बनाया गया. यह 10,500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इसमें रामनाथपुरम, तूतीकोरिन, तिरुनेलवेली और कन्याकुमारी जिलों के कुछ हिस्से आते हैं, जिसमें कुछ तटीय क्षेत्र भी शामिल हैं जहां लोग रहते हैं.
इस संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत बहुत सारे द्वीप (टापू) भी आ गए, जिनमें से कई पर लोग रहते थे. 1992 में वन विभाग ने टापू पर रहने वाले लोगों को किनारे पर बसाना शुरू किया. ज़्यादातर निवासी अपने घर को छोड़ना नहीं चाहते थे. टापू से बाहर जाने के बाद भी लोग अभी भी समुद्र पर निर्भर थे. लेकिन, मछली पकड़ना और समुद्री शैवाल संग्रह अब वन विभाग के नियंत्रण में था. राष्ट्रीय उद्यान एक ‘नो-टेक’ क्षेत्र है, जहां से कुछ भी बाहर ले जाना मना है.
इसका मतलब जहां टापू वासी परंपरागत तौर पर मछली पकड़ते थे और समुद्री शैवाल चुनते थे, वह जगहें अब उनकी पहुंच से बाहर थे.अब उन्हें टापू पर रात बिताने की अनुमति भी नहीं थी, इसलिए वह इन कामों के लिए कई-दिन लंबी समुद्री यात्रा नहीं कर सकते थे. बफर क्षेत्रों में कुछ काम की अनुमति है, लेकिन इसके नियम और नियंत्रण वन विभाग के हाथ में हैं.
5,000 से अधिक महिलाएं, जो समुद्री शैवाल संग्रह पर निर्भर थीं, उनकी आजीविका खतरे में है. इस समुद्री क्षेत्र में जलवायु-परिवर्तन का तनाव चरम पर है और पारंपरिक मछली पकड़ने में गिरावट आई है. ऐसे समय में समुद्री शैवाल से महिलाओं की आय उनके परिवारों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो गई है.
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चेलुवी की नाव एक द्वीप के करीब पहुंच गई है. वह नाव के सिरे पर पर खड़ी होती है और वहां से कूद जाती है. दूसरी महिलाएं भी उसके पीछे कूद जाती हैं. वे अलग-अलग दिशाओं में पानी में तिरती-उतरती हैं, और उनकी कमर से बंधे प्लास्टिक के बैग पानी की सतह पर तैरते रहते हैं.
चेलुवी को एक जगह काफ़ी शैवाल दिखते हैं और वह सीधे वहां गोता मारती हैं. कपड़े में लिपटी अपनी उंगलियों से उसे तोड़ती हैं और बैग में डाल लेती हैं. बीच-बीच में वह सिर्फ़ सांस लेने के लिए ऊपर आती हैं.
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चेलुवी की मां, नम्मा ताई भी समुद्री शैवाल चुनने का काम करती हैं. उन्होंने बचपन में ही यह काम शुरू कर दिया था. इससे होने वाली आय उनके परिवार के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गई थी कि गर्भावस्था के दौरान भी उन्होंने समुद्र में जाना बंद नहीं किया था. ऐसे में वे समुद्री शैवाल इकट्ठा कर रही थीं तभी उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हुई और उन्होंने चिन्ना मन्नाली नामक टापू ही पर अपनी बच्ची को जन्म दिया.
अचानक मौसम खराब हो गया और तूफ़ान आ गया. लहरें बहुत ऊंची थीं और हवाएं इतनी तेज़ थीं कि नम्मा ताई वापस घर नहीं जा सकीं. उन्हें अपनी नवजात बेटी के साथ चिन्ना मन्नाली टापू पर ही रुकना पड़ा. तूफ़ान को शांत होने में सात दिन लग गए, तब जाकर वह अपने घर कुरुसाडई टापू वापस जा पाईं.
रानी- चेलुवी की बहन जो चिन्ना मन्नाली द्वीप पर पैदा हुई थी, बताती हैं कि वे कुरुसाडई द्वीप पर बड़ी हुईं. ‘ओह, पानी बहुत मीठा था वहां,’ उन दिनों को याद करके वह कहती हैं. ‘वहां ढेरों फल के पेड़ थे; बहुत बड़े-बड़े नारियल होते थे.’
टापू पर सब लोग एक बड़े परिवार की तरह रहते थे, चेलुवी कहती हैं. ‘हम सभी लड़कियां एक साथ तैराकी करती थीं. हम साथ मिलकर पकाते और खाते थे. यह बहुत ही ख़ुशनुमा समय था; हम आज़ाद महसूस करते थे,’ वह बताती हैं.
‘यहां, हमें आज़ादी नहीं है.’
यहां से उनका मतलब पाम्बन के चिन्नापालम गांव से है, जहां अब उनका परिवार रहता है. चेलुवी कहती हैं कि लोग द्वीपों से बाहर आना नहीं चाहते थे.
‘वन विभाग ने हमें घर छोड़ने के लिए बहुत परेशान किया,’ चेलुवी की मां नम्मा ताई कहती हैं. ‘उन्होंने हमें पीटा, पका हुआ खाना और पीने का पानी समुद्र में फेंक दिया. समुद्री शैवाल इकट्ठा करने जाते वक़्त जो कपड़े हमने छोड़े थे, वह भी फेंक दिए.’
‘उन्होंने महिलाओं को भी नहीं बख्शा,’ लक्ष्मी मूर्ति कहती हैं, जो पहले समुद्री शैवाल चुनती थीं और अब चिन्नापालम की वार्ड पार्षद हैं. ‘एक बार जब समुद्री शैवाल संग्रहकर्ताओं का एक समूह समुद्र में गोता लगा रहा था, तो वन विभाग ने उनकी नाव ज़ब्त कर ली. नौ महिलाओं को वापस किनारे पर आने के लिए घंटों तैरना पड़ा.’
मूर्ति कहती हैं कि वन विभाग नियमित रूप से मछली पकड़ने वाली नावों को जब्त करता था और पुरुषों को हिरासत में लेता था. ‘सिवाय एक केस के उन्होंने इनमें से किसी भी मामले में आधिकारिक दस्तावेज तैयार नहीं किए.’
कई वर्षों तक स्थानांतरित द्वीपवासियों के साथ कई दौर की बातचीत के बाद वन विभाग ने मछली पकड़ने और समुद्री शैवाल संग्रह की अनुमति दी है, लेकिन कुछ प्रतिबंधों के साथ.
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चेलुवी और उनकी सहकर्मी अब नाव की ओर वापस आ रही हैं, उनके बैग शैवाल से भरे हुए हैं. पहले अपने बैग को ऊपर धकेलते हुए वे नाव पर चढ़ जाती हैं.
नाव वापस किनारे की ओर मुड़ती है. वे इकठ्ठा हुई शैवाल को नाव के फर्श पर उलटा देती हैं और अपने-अपने ढेर के पास बैठ जाती हैं. उनके कपड़ों और बालों से टपकता समुद्री पानी कई छोटी-छोटी धाराओं में बह निकलता है. वे किनारे पहुंचने तक अपना समय इस फसल को छांटने, अनुपयोगी खरपतवार को बाहर फेंकने और चुनिंदा शैवाल को प्लास्टिक की थैलियों पर फैलाने में बिताती हैं.
इस समुदाय का विश्वास है कि समुद्री शैवाल तभी उगता है जब एक महिला उसे छूती है. लेकिन, ये महिलाएं सिर्फ़ ऐसी पारंपरिक मान्यताओं में ही विश्वास नहीं रखतीं. वो इस नाजुक समुद्री पारिस्थितिकी के संरक्षण की जरूरत को भी बहुत अच्छी तरह समझती हैं. इसलिए चिन्नापालम सहित कई गांवों में समुद्री शैवाल की कटाई करने वाली महिलाओं ने ख़ुद ही अपने लिए कुछ नियम बनाए हैं. इनमें बहुत सारे प्रतिबंध वन विभाग के संरक्षण सिद्धांतों से मेल खाते हैं.
‘हम मूंगा (कोरल) को नुकसान न पहुंचाने के लिए पूरी सावधानी बरतते हैं,’ चेलुवी बताती हैं. ‘हम धातु के स्क्रेपर का उपयोग बिल्कुल नहीं करते और समुद्री शैवाल को केवल हाथ से चुनने की अनुमति देते हैं. हम कटाई को महीने में 12 दिन तक सीमित रखते हैं (पहले यह 25 दिन होता था) और कभी भी एक ही जगह पर लगातार कटाई नहीं करते. हम मूंगा, मैंग्रोव की लकड़ी या समुद्री शैवाल की संरक्षित प्रजातियां कभी एकत्र नहीं करते. हम समुद्री शैवाल संग्रह का काम सिर्फ़ कम-ज्वार (low tide) में करते हैं. किसी को भी द्वीपों पर रहने की अनुमति नहीं है.’
चेलुवी की नाव अब किनारे पर वापस आ गई है. महिलाएं नाव से उतरती हैं और सारे शैवाल को समुद्र के ठीक बगल की सड़क पर धूप में सुखाने के लिए फैला देती हैं. वे इसे एक बिचौलिए को बेचती हैं जो इसे एक निजी कंपनी को बेच देगा.
इस आय से चेलुवी ने अपनी गोद ली हुई बेटी को पाला और उसकी शादी की. लेकिन, फसल और आय में गिरावट आई है, वह कहती हैं.
‘सुनामी (2004) के बाद हमारे आस-पास पर्याप्त समुद्री शैवाल नहीं है; कई प्रजातियां पूरी तरह से गायब हो गई हैं और दूसरी काफ़ी कम हो गई हैं. हमारी कमाई कम हो गई है. अब अगर वन विभाग हमें समुद्र में जाने से ही रोके, तो हम भूखे मर जाएंगे. हम कोई और काम नहीं जानते.’
‘समुद्र में जाना हमारी आजीविका का सवाल है, लेकिन यह अधिकार का प्रश्न भी है,’ चेलुवी कहती हैं. ‘द्वीपों के लोग कई पीढ़ियों से समुद्री शैवाल एकत्र करते आ रहे हैं. यह हमारा पारंपरिक व्यवसाय है. वन विभाग यह नहीं मानना चाहता कि हम ही समुद्र, उसके मूंगे और शैवाल की रक्षा करते हैं.’
‘समुद्र हमारी मां सरीखा है,’ चेलुवी कहती है. ‘वे हमसे वो नहीं छीन सकते जो हमारा है.’
(मूल अंग्रेज़ी लेख से सोनालिका झा द्वारा अनूदित. अंग्रेजी में मूल मल्टीमीडिया रिपोर्ट यहां देख सकते हैं.)
(भारत की मछुआरिनों पर पांच भाग की मल्टीमीडिया श्रृंखला देखने के लिए यहां क्लिक करें. इस श्रृंखला के सभी लेख हिंदी में यहां पढ़े जा सकते हैं.)