नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने यौन उत्पीड़न के मामलों का फैसला करने वाले सत्र न्यायालयों को निर्देश दिया है कि वे पीड़ितों को मुआवजा देने का आदेश अनिवार्य रूप से दें, खासकर अगर पीड़ित नाबालिग और महिलाएं हों.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस बीवी नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने बुधवार को प्रकाशित 4 नवंबर के आदेश में कहा, ‘एक सत्र न्यायालय जो विशेष रूप से नाबालिग बच्चों और महिलाओं पर यौन उत्पीड़न आदि जैसे शारीरिक चोटों से संबंधित मामले का फैसला करता है, उसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य के आधार पर पीड़ित को मुआवजा देने का आदेश देना चाहिए.’
यह आदेश यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के एक मामले में पारित किया गया, जब न्यायमित्र वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े और अधिवक्ता मुकुंद पी. उन्नी ने इस बात का जिक्र किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 357A, जो राज्य सरकारों को पीड़ित मुआवजा योजना लागू करने का प्रावधान करती है, का शायद ही कभी कार्यान्वयन किया गया है.
आदेश में कहा गया है, ‘यह नोट किया गया है कि पीड़ित को मुआवजा देने के निर्देश का अमल जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा किया जाना है, जैसा भी मामला हो, तथा मुआवजा पीड़ितों को यथाशीघ्र जारी किया जाना है.’
सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सत्र न्यायालय प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर अंतरिम मुआवजे के भुगतान का निर्देश भी दे सकते हैं. पीठ ने सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि वह अपने आदेशों की प्रतियां विभिन्न राज्य उच्च न्यायालयों को भेजे, ताकि उन्हें देश भर के जिला न्यायाधीशों को भेजा जा सके.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, महाराष्ट्र में 13 वर्षीय नाबालिग के साथ यौन उत्पीड़न के आरोपी एक व्यक्ति की जमानत याचिका पर विचार करते हुए अदालत ने यह निर्देश दिया. आरोपी ने अपनी सजा को निलंबित करने और जमानत देने की मांग करते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया था, जिसे इस साल 14 मार्च को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था.
अदालत को बताया गया कि आरोपी को 2020 में 20 साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन ट्रायल जज ने मामले में मुआवज़ा देने का आदेश नहीं दिया. आरोपी को दोषी ठहराया गया और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376डी के तहत 20 साल और पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत 10 साल की सजा सुनाई गई.
अदालत ने कहा, ‘हमें लगता है कि पीड़ित को मुआवज़ा देने के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया है. सत्र न्यायालय की ओर से इस तरह की चूक से सीआरपीसी की धारा 357-ए के तहत किसी भी मुआवज़े के भुगतान में देरी होगी… अंतरिम मुआवज़े के भुगतान के लिए भी निर्देश दिया जा सकता है, जिसे सत्र न्यायालय प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर दे सकता है.’
अदालत ने पीड़िता को पॉक्सो नियम, 2020 के तहत मुआवजे का हकदार माना और बॉम्बे हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह योजना के तहत मुआवजा देने के लिए उसके मामले पर तुरंत विचार करे, जो कि अंतरिम प्रकृति का होगा.
अदालत ने आरोपी को जमानत भी दे दी, यह देखते हुए कि उसने अपनी आधी से ज़्यादा सज़ा काट ली है और उच्च न्यायालय द्वारा सज़ा बढ़ाए जाने की कोई संभावना नहीं है. अदालत ने अपीलकर्ता को सत्र न्यायालय द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया और स्पष्ट किया कि इस राहत से अपील की कार्यवाही में देरी नहीं होनी चाहिए.