अयोध्या विवाद: किन्हें, क्यों और कैसे याद आएंगे चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़

कई जानकारों का कहना है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने कार्यकाल में (खासकर अंतिम दिनों में) जो कुछ भी कहा व किया, उससे इस बात को ख़ुद अपने ही हाथों निर्धारित कर डाला कि इतिहास उनके प्रति कैसा सलूक करे.

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सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़. (फोटो साभार: PMO)

देश के 50वें चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत (डीवाई) चंद्रचूड़ अंततः इस ‘चिंता’ के साथ ही सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं कि क्या पता, भावी इतिहास (उनके द्वारा जस्टिस व चीफ जस्टिस के तौर पर निभाई गई भूमिका के लिए) उन्हें किस रूप में याद करेगा.

यों, होना यह चाहिए था कि अपनी इस चिंता में वे एक ‘अंदेशे’ को भी शामिल करते. इस अंदेशे को कि कहीं इतिहास द्वारा उन्हें भुला तो नहीं दिया जाएगा. लेकिन उनके ऐसा न करने के बावजूद जैसा कि इस तरह की ज्यादातर चिंताओं के साथ होता है (और होना स्वाभाविक भी है), उनकी चिंता को लेकर जानकारों की राय बुरी तरह विभाजित है.

कई जानकारों का कहना है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में (खासकर उसके अंतिम दिनों में) जो कुछ भी कहा व किया, उससे इस बात को खुद अपने ही हाथों निर्धारित कर डाला है कि इतिहास उनके प्रति कैसा सलूक करे. इसके विपरीत कई अन्य जानकारों का मानना है कि वे जो ‘विरासत’ छोड़कर जा रहे हैं, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है कि इतिहास उसे लंबे समय तक अपनी स्मृतियों में सहेजे रखने की सोचे. इसलिए बहुत संभव है कि वह उन्हें भुला देना ही बेहतर समझे.

यों भी, हम जानते हैं कि इतिहास बहुत बेरहम होता है और उसके तीव्र प्रवाह में जानें कितनी चीजें नायाब होने के बावजूद विस्मरण के गर्त में चली जाती हैं, जबकि जस्टिस चंद्रचूड़ ने (अपने सबसे ‘नायाब’ काम के तौर पर) सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की पीठ (जिसका वे खुद भी हिस्सा थे) द्वारा नौ नवंबर, 2019 को सुनाये गए अयोध्या के राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के ‘ऐतिहासिक’ फैसले को लेकर (करबद्ध होकर अपने ईश्वर की शरण में जाने और रास्ता सुझाने की प्रार्थना करने का) जो ‘रहस्योद्घाटन’ (उसे सुनाए जाने के बाद अपनी चलाचली की बेला में) किया और जिसे लेकर उनकी सबसे ज्यादा आलोचना हुई, उस तक में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे और तो और उक्त विवाद के सिलसिले में भी किसी नई दिशा या रोशनी का वाहक या मील का पत्थर करार दिया जा सके.

हद तो यह कि उनके उक्त ‘रहस्योद्घाटन’ में संविधान और कानून का जो विरोध व अन्याय दिख रहा है, उसमें भी उनका ‘योगदान’ सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने ऐसे विरोध व अन्याय को रोकने का अपना संवैधानिक फर्ज निभाने के बजाय उसे देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचाने में भूमिका निभाई. वरना अयोध्या विवाद को सुलझाने (पढ़िए: उलझाने) के क्रम में निचली अदालतों के जजों ने इससे भी कई गुने ज्यादा बड़े ‘चमत्कार’ कर रखे हैं.

यह और बात है कि पब्लिक मेमोरी के शॉर्ट होने के कारण वे ‘चमत्कार’ अब जनस्मृति में नहीं रह गए और लोगों की नजरों से ओझल हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि यह जनस्मृति आगे चलकर इसी तरह चंद्रचूड़ के चमत्कारों को भी ओझल करके रख दे.

बहरहाल, अयोध्या विवाद से जुड़े निचली अदालतों के दो फैसलों (जिन्होंने अपने समय पर न्यायकामियों को सर्वोच्च न्यायालय के नौ नवंबर, 2019 के फैसले से कम निराश नहीं किया था) पर गौर करने से बात कहीं ज्यादा साफ होकर सामने आती है.

इनमें पहला फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज कृष्णमोहन पांडेय का एक फरवरी, 1986 का वह आदेश है, जिसमें उन्होंने विवादित बना दी गई बाबरी मस्जिद में बंद उन तालों को खोल देने का आदेश दिया था, जो 22-23 दिसंबर, 1949 को उसमें साजिशन मूर्तियां रखे जाने के बाद उसे कुर्क करते हुए 29 दिसंबर, 1949 को बंद किए गए थे.

तब हुआ यह था कि जिला जज पांडेय ने फैजाबाद के उमेशचंद्र पांडेय नाम के एक वकील की सिर्फ एक दिन पहले दी गई उक्त ताले खोलने की अर्जी पर आदेश पारित करने से पहले दूसरे पक्ष को ठीक से सुनना तक गवारा नहीं किया था. उन्होंने फैजाबाद के जिलाधिकारी व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को तलब कर इतना भर पूछा था कि वे ताले खोलने से कानून व्यवस्था की कोई समस्या तो खड़ी नहीं होगी?

उक्त दोनों अधिकारियों ने इस सवाल का ‘नहीं’ में जवाब दिया और कहा था कि ऐसी कोई समस्या पैदा भी हुई तो वे उसे हल करने के लिए ज्यादा पुलिस बल तैनात करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करके उसे हल कर लेंगे.

वे कितने गलत थे, यह बात 6 दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी मस्जिद के ध्वंस और उससे पहले 1990 की ‘कारसेवा’ के दौरान हुई पुलिस फायरिंग व हिंसा से साबित हो चुकी है. लेकिन तब उनके इस उत्तर से आश्वस्त पांडेय ने उसके फौरन बाद ताले खोलने का आदेश दे डाला था. यह जताते हुए कि जैसे कि यह किसी धर्मस्थल को लेकर दो पक्षों के बीच चले आ रहे जटिल विवाद का नहीं, कानून व्यवस्था का साधारण-सा मामला रहा हो! बाद में उनके इस आदेश की आलोचना की जाने लगी तो उन्होंने साफ कह दिया था कि उन्होंने उसे अपनी अंतरात्मा की आवाज पर दिया.

कानून की आवाज के बजाय अंतरात्मा की आवाज पर ऐसा आदेश देने के लिए की गई उनकी व्यापक आलोचना में उस वक्त भी लगभग वैसी ही बातें कही गई थीं, जैसी अब जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा इस ‘रहस्योद्घाटन’ के बाद कही जा रही हैं कि जब उन्हें अयोध्या विवाद के समाधान का कोई रास्ता नहीं सूझा तो वे फैसले की तलाश में करबद्ध होकर अपने ईश्वर की शरण में चले गए और उससे समाधान सुझाने की प्रार्थना की.

जैसे अब पूछा जा रहा है कि संविधान और कानून की शरण छोड़कर जस्टिस चंद्रचूड़ अपने ईश्वर की शरण में क्यों गए, तब कृष्ण मोहन पांडेय से भी पूछा गया था कि उनके द्वारा जज के तौर पर कोई फैसला करने के लिए कानून के बजाय अंतरात्मा की आवाज को आधार बनाने का भला क्या तुक था? कई आलोचकों ने उनके आदेश को ‘संघी अंतरात्मा का न्याय’ बताने से भी गुरेज नहीं किया था. लेकिन उनसे जुड़े सवालों के जवाब नहीं मिले तो आज तक नहीं मिले.

कृष्ण मोहन पांडेय के मामले में तो यह तब था, जब उनके आदेश को लेकर जो कई और बातें कही गई थीं, वे भी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ाने नहीं घटाने वाली ही थीं.

बीबीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा था कि उन दिनों धारणा थी कि केंद्र की राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने (तब उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की ही वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार थी) बाबरी मस्जिद के ताले इसलिए खुलवाए थे क्योंकि उसने मुस्लिम तलाक़शुदा महिला शाह बानो के मामले में संसद में नया क़ानून बनाकर उन्हें गुज़ारा भत्ता देने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलट दिया था. इससे बहुसंख्यकों के एक हिस्से में नाराजगी फैली हुई थी और वह इस प्रकरण से उसे संतुलित करना चाहती थी.

दूसरे शब्दों में कहें, तो पूरा मामला कांग्रेस की राजनीतिक सौदेबाज़ी से जुड़ा हुआ था, जिसका एक उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के संगठनों द्वारा ‘आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो’ नारे के साथ चलाए जा रहे आंदोलन को अप्रासंगिक कर देना था. हालात यहां तक पहुंच गए थे कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यालय (पीएमओ) में तत्कालीन संयुक्त सचिव और दून स्कूल में उनके जूनियर रहे पूर्व आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह को बिना देर किए बाकायदा इस धारणा का खंडन करना और उसको सरासर झूठ करार देना पड़ा था. उनके मुताबिक एक फरवरी, 1986, को अयोध्या में जो कुछ हुआ, राजीव गांधी को उसका इल्म तक नहीं था.

उन्होंने बहुचर्चित शाहबानो मामले में ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के एवज़ में हिंदुओं को ख़ुश करने के लिए राजीव गांधी द्वारा विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाए जाने की धारणा को बिल्कुल ग़लत ठहराते हुए यह भी कहा था कि एक फरवरी, 1986 को (यानी कृष्ण मोहन पांडेय द्वारा इस संबंधी आदेश देने के दिन) केंद्रीय मंत्री अरुण नेहरू उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ लखनऊ में मौजूद थे.

तब उनके कथन का एक यह अर्थ भी लगाया गया था कि ताले खुलवाने के पीछे राजीव के बजाय अरुण नेहरू और वीर बहादुर सिंह के ‘प्रयत्न’ थे और अरुण नेहरू को मंत्री पद से ड्रॉप किए जाने की वजह भी यही थी. लेकिन इन दोनों में से जिस बात को भी सच माना जाए, न्यायिक कसौटी पर कृष्ण मोहन पांडेय के आदेश की पवित्रता पर आंच तो आती ही आती है.

इसी तरह छह दिसंबर, 1992 को विश्व हिंदू परिषद के बुलावे पर अयोध्या पहुंचे कारसेवकों के हाथों बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान की मिलीभगत से उसके मलबे पर ‘अस्थायी राम मंदिर’ का ‘निर्माण’ कर डाला गया, तो हरिशंकर जैन नामक वकील ने हिंदुओं को उसमें स्थापित मूर्तियों के दर्शन की अनुमति देने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर उसमें याचना की कि भगवान न राम भूखे हैं और उनके भोग-राग की अनुमति दी जाए.

तब इस न्यायालय के जस्टिस हरिनाथ तिलहरी ने वह याचिका मंजूर करके अस्थायी मंदिर की ‘पवित्रता’ के हित में, एक जनवरी, 1993 को ‘व्यवस्था’ दे दी कि चूंकि संविधान की मूल प्रति में किए गए रेखांकनों में भगवान राम व उनसे जुड़े रेखांकन भी शामिल हैं, इसलिए भगवान राम संवैधानिक शख्सियत हैं और हिंदू जहां भी उनके दर्शन की इजाजत मांगते हैं, वह उन्हें दी ही जानी चाहिए.

साफ है कि उन्होंने संविधान की मूल प्रति के रेखांकनों की ऐसी व्याख्या कर डाली थी, जो उस प्रति में लिखी संवैधानिक इबारतों की व्याख्याओं से कतई मेल नहीं खाती थी.

कारसेवकों के बनाए ‘अस्थायी मंदिर’ को वैध बना देने वाले अपने इस फैसले से पहले जस्टिस तिलहरी ने यह विचार करना कतई जरूरी नहीं समझा था कि इससे सर्वोच्च न्यायालय के यथास्थिति बनाए रखने के आदेश की अवज्ञा करके मस्जिद ध्वस्त करने वाले कारसेवकों की कारस्तानी पुरस्कृत हो जाएगी.

गौर कीजिए, ठीक इसी तरह नौ नवंबर, 2019 के अपने फैसले (जस्टिस चंद्रचूड़ के अनुसार जो उन्हें उनकी प्रार्थना पर उनके ईश्वर ने सुझाया था) में सर्वोच्च न्यायालय ने भी बाबरी मस्जिद के साथ संवैधानिक ढांचे को ढहाने और देश का अमन-चैन बिगाड़ने वालों को पुरस्कृत करने से गुरेज नहीं ही किया था.

अब, जस्टिस चंद्रचूड़ की इस चिंता पर वापस लौटें कि इतिहास उन्हें किस रूप में याद करेगा तो सवाल उठता है कि क्या उसका सबसे स्वाभाविक जवाब यही नहीं है कि दूसरे मामलों में वे जैसे भी याद किये या भुलाए जाएं, राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के सिलसिले में जिला जज कृष्ण मोहन पांडेय और जस्टिस हरिनाथ तिलहरी की तरह ही याद किए जाएंगे.

और क्या इस जवाब के बाद यह बताने की जरूरत रह जाती है कि जिला जज कृष्ण मोहन पांडेय और जस्टिस तिलहरी आज किन लोगों के हीरो हैं और क्यों? क्या इसलिए कि उन्होंने इस देश के अन्याय से पीड़ित समुदायों में उम्मीद की कोई ऐसी किरण जगाई है, जिसके लिए उन्हें याद किया जा सकता हो? तथ्यों की समुचित रोशनी में ऐसा कौन कह सकता है भला?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)