यौन उत्पीड़न का मामला समझौते के आधार पर बंद नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक पॉक्सो केस में आरोपी स्कूल शिक्षक और नाबालिग पीड़िता के पिता के बीच हुए समझौते के बाद मामले को रद्द कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि ऐसे मामले समझौते से बंद नहीं हो सकते, क्योंकि इन अपराधों का समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (7 नवंबर) को एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि यौन उत्पीड़न के मामलों में आरोपी और पीड़िता के बीच समझौता हो जाने के बाद भी मामला बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसे अपराधों का समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है.

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, शीर्ष अदालत ने एक स्कूल शिक्षक और नाबालिग पीड़िता के पिता के बीच हुए समझौते के बाद शिक्षक के खिलाफ पॉक्सो मामले को रद्द करने के राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की.

मालूम हो कि राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत इस मामले को रद्द कर दिया था. सीआरपीसी की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालयों को अदालती प्रक्रियाओं के दुरुपयोग को रोकने और न्याय सुनिश्चित करने के लिए उनकी अंतर्निहित शक्तियों का इस्तेमाल करने का अधिकार है .

इस संबंध में जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के 2012 के ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य केस में आए फैसले का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्ति का प्रयोग करने से पहले, उच्च न्यायालय को अपराध की प्रकृति और गंभीरता का उचित सम्मान करना चाहिए. तब अदालत ने ये भी माना था कि जघन्य और गंभीर अपराधों को रद्द नहीं किया जा सकता, भले ही पीड़ित या पीड़ित के परिवार और अपराधी ने विवाद सुलझा लिया हो.

सुनवाई के दौरान जस्टिस रविकुमार ने कहा, ‘अदालत का मानना है कि ऐसे अपराध निजी प्रकृति के नहीं हैं और समाज पर गंभीर प्रभाव डालते हैं. ऐसे में यह विचार करना संबंधित अदालत का प्रमुख कर्तव्य है कि क्या समझौता उचित और निष्पक्ष होने के साथ-साथ अनुचित दबाव से मुक्त भी है.’

पीठ के अनुसार, ‘4 फरवरी, 2022 को दिए हाईकोर्ट के आदेश को पढ़ने मात्र से ही ये पता चलता है कि हाई कोर्ट ने कानून पर उचित विचार न करके गलती की है…रद्द किए गए आदेश (impunged) से पता चलता है कि एएफआईआर में लगाए गए आरोपों पर ध्यान दिए बिना भी इसे रद्द कर दिया गया. हमें यह समझ में नहीं आ रहा है कि हाईकोर्ट इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि मौजूदा मामले में पार्टियों के बीच विवाद का निपटारा समझौते से किया जाना है.

इस मामले में आरोपियों के साथ-साथ लड़की के पिता ने भी अपील दायर करने के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाया था, क्योंकि इस मामले में इस मामले में तीसरे पक्ष की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में आपत्ति जताई गई थी. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट इससे सहमत नहीं हुआ.

पीठ ने कहा, ‘तीसरे प्रतिवादी (respondent) के खिलाफ लगाए गए अपराधों की प्रकृति को देखते हुए केवल यही कहा जा सकता है कि यदि वे साबित हो जाते हैं, तो उन्हें समाज के खिलाफ अपराध माना जा सकता है. इस तरह के अपराध न केवल व्यक्ति विशेष के खिलाफ हैं बल्कि समाज के मूल्यों और सार्वजनिक हित के खिलाफ भी हैं.’

पीठ ने कहा कि पॉक्सो अधिनियम को लागू करने के उद्देश्य और कारण निस्संदेह दर्शाते हैं कि इस अधिनियम के तहत शुरू की गई कार्यवाही को अचानक रद्द करना इस अधिनियम को लाने की मंशा के खिलाफ होगा.

गौरतलब है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को ही एक अन्य फैसले में कहा था कि यौन उत्पीड़न के मामलों का फैसला करने वाले सत्र न्यायालयों को निर्देश दिया है कि वे पीड़ितों को मुआवज़ा देने का आदेश अनिवार्य रूप से दें, ख़ासकर ऐसे मामलों में जहां पीड़ित नाबालिग और महिलाएं हों.