नई दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बीते सप्ताह ‘बुलडोजर जस्टिस’ के ख़िलाफ़ सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘किसी भी सभ्य न्याय व्यवस्था में बुलडोज़र के जरिये न्याय नहीं किया जाता है. … क़ानून के शासन के तहत यह पूरी तरह अस्वीकार्य है.’
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि ‘यदि इसकी अनुमति दी गई तो अनुच्छेद 300 ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता समाप्त हो जाएगी.’
अदालत ने छह नवंबर के अपने आदेश में ये बातें कही थीं. शनिवार (9 नवंबर) को फैसले को अदालत की वेबसाइट पर अपलोड किया गया, जिसमें प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की कुछ न्यूनतम सीमाएं निर्धारित करने का प्रस्ताव था, जिन्हें नागरिकों की संपत्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने से पहले पूरा किया जाना चाहिए.
आसान भाषा में कहें, तो कोर्ट ने निर्देश दिया है कि किसी घर को गिराने से पहले छह प्रक्रियाओं को पूरा करना है, जिसमें सही से सर्वेक्षण करना, लिखित नोटिस देना और आपत्तियों पर विचार किया जाना आदि शामिल है.
बता दें कि छह नवंबर को फैसला सुनाते हुए शीर्ष कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को उस व्यक्ति को मुआवजे के रूप में 25 लाख रुपये देने का निर्देश दिया, जिसका घर 2019 में सड़क चौड़ीकरण परियोजना के लिए उचित नोटिस दिए बिना ध्वस्त कर दिया गया था.
‘बुलडोज़र न्याय अस्वीकार्य’
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की इस कार्रवाई को ‘अत्याचारी और एकतरफा’ मानते हुए चिंता व्यक्त की है.
अदालत ने कहा है, ‘नागरिकों की आवाज़ को उनकी संपत्ति और घरों को नष्ट करने की धमकी देकर नहीं दबाया जा सकता. मनुष्य के पास जो सबसे बड़ी सुरक्षा है, वह है घर की सुरक्षा. …कानून निस्संदेह सार्वजनिक संपत्ति पर गैरकानूनी कब्जे और अतिक्रमण की इजाजत नहीं देता है. नगरपालिका कानून और नगर-नियोजन कानून हैं जिनमें अवैध अतिक्रमण से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं.’
अदालत ने दोहराया, ‘कानून के शासन के तहत बुलडोजर न्याय बिल्कुल अस्वीकार्य है. …राज्य के अधिकारी जो इस तरह की गैरकानूनी कार्रवाई करते हैं या उसे मंजूरी देते हैं, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए. कानून के उनके उल्लंघन के लिए दंड मिलना चाहिए. सरकारी अधिकारियों के लिए सार्वजनिक जवाबदेही आदर्श होनी चाहिए. सार्वजनिक या निजी संपत्ति के संबंध में कोई भी कार्रवाई कानून की उचित प्रक्रिया के तहत ही होनी चाहिए.’
‘अतिक्रमण’ हटाने से पहले इन प्रक्रियाओं के पालन का प्रस्ताव
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य सुरक्षा उपाय निर्धारित करते हुए, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी भी विध्वंस से पहले उचित सर्वेक्षण, लिखित नोटिस और आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए. इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई और क़ानून के तहत दंड मिलना चाहिए.
न्यायालय ने किसी भी संपत्ति को गिराने से पहले छह आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया है. कहा गया है कि विकास परियोजनाओं के लिए भी इन निर्देशों की अनदेखी नहीं करनी है. पहला- अधिकारियों को पहले मौजूदा भूमि रिकॉर्ड और मानचित्रों की जांच करनी चाहिए; दूसरा- वास्तविक अतिक्रमणों की पहचान करने के लिए उचित सर्वेक्षण किया जाना चाहिए; तीसरा- कथित अतिक्रमणकारियों को लिखित नोटिस जारी किया जाना चाहिए; चौथा- आपत्तियों पर विचार किया जाना चाहिए और आदेश पारित किया जाना चाहिए; पांचवां- लोग ख़ुद से अतिक्रमण हटा लें इसके लिए उचित समय दिया जाना चाहिए और छठा- यदि आवश्यक हो तो अतिरिक्त भूमि कानूनी रूप से अधिग्रहित की जानी चाहिए.’
किस मामले में आया यह फैसला?
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सितंबर 2019 में यूपी के महाराजगंज जिले में पत्रकार मनोज टिबरेवाल आकाश के पैतृक घर को गिराए जाने से जुड़े एक मामले से सामने आए हैं. अधिकारियों ने दावा किया था कि राष्ट्रीय राजमार्ग के विस्तार के लिए यह ध्वस्तीकरण आवश्यक था, हालांकि जांच में उल्लंघनों का एक पैटर्न सामने आया, जिसे अदालत ने राज्य की शक्ति के दुरुपयोग का उदाहरण बताया.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने पाया कि कथित तौर पर कुल संपत्ति का केवल 3.70 मीटर हिस्सा ही सरकारी भूमि पर था, लेकिन अधिकारियों ने बिना कोई लिखित नोटिस दिए 5-8 मीटर हिस्सा ध्वस्त कर दिया. ध्वस्तीकरण से पहले केवल ढोल बजाकर सार्वजनिक घोषणा की गई थी.
टिबरेवाल ने आरोप लगाया था कि यह तोड़फोड़ उनके पिता द्वारा 185 करोड़ की सड़क निर्माण परियोजना में कथित अनियमितताओं की एसआईटी जांच की मांग के प्रतिशोध में की गई थी. हालांकि, अदालत ने सीधे तौर पर इस दावे पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन उसने सजा के तौर पर तोड़फोड़ के इस्तेमाल के खतरों पर जोर दिया.