(पुलित्ज़र सेंटर और रोहिणी नीलेकणि फ़िलंथ्रोपीस के सहयोग से तैयार यह रिपोर्ट भारत की मछुआरी महिलाओं पर की जा रही सीरीज़ का हिस्सा है. श्रृंखला का पहला, दूसरा तीसरा और चौथा भाग यहां पढ़ सकते हैं.)
बल्ही मरांडी एक पोखरे के किनारे पर खड़ी हैं. अपने पैरों की उंगलियों पर संतुलन बनाते हुए वह केले के फूल को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं. उसके रस से अपनी आंखों को बचाने के लिए उन्हें बंद कर लेती हैं और अपने हाथ की दरांती से फूल तक पहुंचने के लिए उचकती हैं. लेकिन पहुंच नहीं पातीं. वह एक बार फिर कोशिश करती हैं. कुछ नहीं होता. वह अपनी असफलता पर हंसने लगती हैं.
मरांडी का यह तालाब ओडिशा के मयूरभंज जिले के भालुबासा गांव में है. इसकी बग़ल में एक खाली पड़ा खेत है जिसमें मवेशियों के आने जाने से पगडंडी-सी बन गई है. दूर, बकरियों और गायों के झुंड घर की ओर लौट रहे हैं.
मरांडी फिर से केले के फूल को तोड़ने की कोशिश करती हैं, इस बार उनके चेहरे पर दृढ़ संकल्प स्पष्ट है. एक हल्की-सी आवाज सुनाई देती है. केले का फूल जमीन पर पड़ा है. वह अपनी बेटी और भतीजियों की तरफ़ देखती हैं- जीत की मुस्कान के साथ.
मरांडी तालाब के चारों ओर उगाई गई सब्ज़ियां चुनने के लिए आगे बढ़ती हैं. झुककर वह कुछ बैंगन तोड़ती हैं, कुछ हरी सब्ज़ियां उखाड़ती हैं और उन्हें ज़मीन पर रख देती हैं. फिर तालाब में उतरती हैं, पानी घुटने-भर है. खरपतवार निकालती हैं और उन्हें किनारे पर फेंक देती हैं. पास में एक मच्छरदानी रखी है. वह इसका इस्तेमाल छोटी मछलियां पकड़ने के लिए करेंगी.
यह उनकी रोज़मर्रा की तैयारी है अपने परिवार के 13 सदस्यों के लिए रात का खाना पकाने की, संथाली में बात करते हुए मरांडी कहती हैं. यह संथाल आदिवासियों की भाषा है.
मरांडी के गृह राज्य ओडिशा की आबादी में आदिवासी करीब 23 प्रतिशत हैं. संथाल, जिनकी आबादी 9 लाख है, ओडिशा का दूसरा सबसे बड़ा आदिवासी समूह है और मुख्य रूप से मयूरभंज जिले में रहते हैं.
मरांडी की रात के खाने की इस विस्तृत तैयारी का एक कारण है- इस क्षेत्र में और विशेष रूप से उनके समुदाय में कुपोषण की लंबे समय से चली आ रही समस्या. सो एक संथाल महिला होने के नाते, वह अपने बच्चों के पोषण के बारे में चिंतित थीं.
पुराने समय में हर परिवार के पास एक तालाब होने से भोजन की समस्या हल हो जाती थी. मरांडी को याद है कि जब गांव में हर घर के पिछवाड़े में एक छोटा तालाब होता था ये सारे तालाब आपस में जुड़े हुए थे. जब बारिश होती थी, तो एक तालाब का पानी दूसरे में बह जाता था. अगर कोई एक तालाब में मछली के बीज डालता था, तो बहता पानी मछलियों को तालाबों में फैला देता था और सभी तालाब मछलियों से भर जाते थे.
यह वह मौसम था जब मरांडी और उनके गांव के दूसरे लोग खूब मछलियां खाते थे. कभी-कभी, गांव के लोगों को इन तालाबों से आठ महीनों तक मछली मिलती थी. लेकिन जब तक मरांडी बड़ी हुई, यह सब बदल चुका था.
‘हमारे जैसे सभी संथाल परिवारों के पास पहले छोटे-छोटे तालाब हुआ करते थे. लेकिन उनमें से ज़्यादातर धीरे-धीरे खत्म हो गए और लोगों ने उनके ऊपर घर बना लिए. जब मैं शादी करके यहां आई, तो यह तालाब भरा जा चुका था,’ मरांडी कहती हैं.
सगुनीबासा गांव की एक अन्य संथाल महिला पार्वती हेंब्रम कहती हैं कि बारिश भी अनियमित हो गई, जिससे सूखे मौसम में पानी की कमी होने लगी. जो तालाब बचे थे, उनमें केवल मानसून के दौरान मछली मिलती थी. हेंब्रम और उनके बढ़ते बच्चे केवल इस मौसम में मछली खा पाते थे, और इससे वह बहुत चिंतित थीं.
‘हमारे संथाल समुदाय में पौष्टिक भोजन की कमी के कारण, गर्भवती महिलाएं अक्सर बीमार रहतीं थीं. कभी-कभी तो नवजात शिशु का वजन केवल 1-2 किलो होता था. मेरे पति बाहर रहते थे और मुझे थोड़े से पैसे भेजते थे. मुझे सोचना पड़ता था कि इतने से पैसों में पूरे परिवार को पौष्टिक भोजन कैसे दूं,’ हेंब्रम कहती हैं.
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भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जल-कृषि (एक्वाकल्चर) उत्पादक है, लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएं अक्सर महिलाओं को इस काम से दूर रखती हैं. जिन छोटी मछलियों का उपयोग महिलाएं खाने, बेचने या सुखाने के लिए करती हैं, उन्हें अब जल-कृषि कंपनियां भारी मात्रा में ख़रीद लेती हैं. महिलाएं इस में उनका मुक़ाबला नहीं कर पाती और इससे महिलाओं के भोजन और कमाई दोनों पर बुरा असर हुआ है. इसका एक उपाय है कि घरेलू तालाबों को बढ़ावा दिया जाए.
घर के तालाबों के कई फायदे हैं- वे घर से सटे होते हैं, जिससे महिलाओं के लिए मछली पालन का प्रबंधन आसान हो जाता है और घर में खाना पकाने के लिए मछली आसानी से उपलब्ध होती है. ओडिशा में लगभग 70% परिवारों के पास घरेलू तालाब हैं. ज़्यादातर 1-3 डिसमिल (100 डिसमिल= 1 एकड़) के हैं. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में कई तालाब भर गए हैं.
2018 में ओडिशा सरकार ने एक योजना शुरू की. महिलाओं को अपने तालाबों की सफाई के लिए सब्सिडी मिली. सरकार ने उन्हें मछली पालन में प्रशिक्षण दिया और मछली के बीज उपलब्ध कराए. इस योजना ने घर में खाने के लिए पौष्टिक, छोटी मछली पालन को बढ़ावा दिया. सितंबर 2021 तक, 789 घरेलू तालाबों में मछली पालन शुरू हो चुका था. इनमें से 85% तालाबों के आस-पास महिलाएं सब्ज़ियां भी उगाती हैं.
इसी योजना के तहत, मरांडी और हेंब्रम ने पांच साल पहले अपने घर के पिछवाड़े के तालाबों को पुनर्जीवित किया और मछली पालन सीखा.
आज, घरेलू तालाब मरांडी के परिवार की जीवनरेखा है. वह खाना पकाने में छोटी मछलियों का इस्तेमाल करती है. बड़ी मछली 100 रुपये प्रति किलो में बेचती हैं या विशेष अवसरों के लिए बचाकर रखती हैं. जब वह अपनी ज़रूरत से ज़्यादा मछली पकड़ लेती हैं, तो वह उसे अपने पड़ोसियों से सब्ज़ियों या मुर्गियों के लिए बदल लेती हैं; या उन्हें उधार दे देती हैं और वे तब चुकाते हैं जब उनके तालाबों से मछली निकलती है.
तालाब के पानी का एक और महत्वपूर्ण उपयोग है- अपने सब्जी के बगीचे की सिंचाई करना.
ज़्यादातर परिवारों के पास 1-5 डिसमिल के घरेलू तालाब हैं. मरांडी परिवार का तालाब 20 डिसमिल का है क्योंकि उनके पति और उनके तीन भाइयों ने इसका बंटवारा नहीं किया है.
मरांडी कहती हैं, ‘तालाब को साफ करने के बाद सरकार ने हमें मछली के बीज और चारा दिया. हमने बहुत मेहनत की और मछलियों की देखभाल की. हमने 3 महीने में छोटी मछलियां और 6 महीने में बड़ी मछलियां पकड़ीं. जब से हमारे पास तालाब है, हम खूब मछलियां खाते हैं. परिवार में सभी लोग ज़्यादा मछली खाते हैं, महिलाएं और बच्चे भी. यह हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. मैं इस तालाब के आस-पास कुछ सब्ज़ियां भी उगाती हूं. मछलियां और सब्ज़ियां एक साथ- ये दोनों मिलकर मेरे परिवार को पौष्टिक भोजन देते हैं.’
हेंब्रम कहती हैं: ‘4-5 साल जब मैंने पहले मछली पालन शुरू किया, तो बच्चों को अच्छे से खिलाने की मेरी चिंता खत्म हो गई.’
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लेकिन, सभी परिवार निजी तालाब का खर्च नहीं उठा सकते. ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को लाभ पहुंचाने के लिए राज्य सरकार ने अपना ध्यान ग्राम पंचायत पोखरों पर केंद्रित कर दिया, जिन पर पूरे समुदाय का हक़ होता है. यहां, पोषण के साथ-साथ रोज़गार पर भी ज़ोर दिया गया.
जब लक्ष्मी प्रिया गिरि ने मैट्रिक पास किया, तो यह उन मयूरभंज के मनखिडिया गांव की बाथुड़ी आदिवासी लड़की की बड़ी उपलब्धि थी. फिर भी, यह ऐसी नौकरी दिलाने के लिए काफ़ी नहीं था जिसकी उन्हें ख्वाहिश थी. वह दूसरों के खेतों में मेहनत करने या शहर में जाकर कोई छोटी-मोटी नौकरी करना नहीं चाहती थी. वह कहती हैं कि अपने पड़ोसियों के साथ मछली पालन का काम उसके लिए एकदम सही साबित हुआ है.
उनके स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की अन्य बाथुड़ी महिलाओं के पास एक और कारण था- अपनी खेती को बचाना.
सुबाशिनी गिरि कहती हैं कि कुछ साल पहले गांव के पोखर को दूसरे समुदाय ने पट्टे पर ले लिया था. ‘तालाब के बगल में हमारे खेत हैं, लेकिन उन्होंने हमें सिंचाई के लिए तालाब के पानी का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी. हमारी सारी फ़सलें बर्बाद हो गईं. तभी हमने तय किया कि हम बाथुड़ी महिलाएं तालाब का पट्टा लेंगी.’
वे अपनी योजना में सफल रहीं. अपनी खेती भी बचाई, साथ ही मछली पालन से पैसे भी कमा रही हैं.
लक्ष्मी प्रिया अपनी आय का उपयोग अपने छोटे भाई को पढ़ाने और अपना भविष्य सुरक्षित करने में करना चाहती हैं. लेकिन फ़िलहाल उन्हें लगता है कि अपने परिवार में सम्मान पाना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है. ‘मेरे माता-पिता मुझे बच्चा समझते थे. जब से मैंने कमाना शुरू किया है, वे घर के मामलों में मेरी राय पूछते हैं. मुझे उनकी तरफ से सम्मान मिला है.’
लक्ष्मी प्रिया के एसएचजी को तालाब का पट्टा एक अन्य सरकारी योजना के तहत मिला था, जिसमें ओडिशा सरकार ने 2018 से महिला एसएचजी को 20,000 से अधिक ग्राम पंचायत तालाब पट्टे पर दिए हैं. सरकार पट्टे के लिए मजबूत बांध और 5-6 फीट पानी वाले छोटे टैंक चुनती है. एसएचजी को प्रति हेक्टेयर 2.4 लाख रुपये (वर्ष 2022 तक 90,000 रुपये) की वित्तीय सहायता प्रदान करती है, और उन्हें मछली पालन और बिक्री में प्रशिक्षित करती है.
महिलाएं इंडियन कार्प (जैसे रोहू या कतला) और छोटी मछलियों (मुख्य रूप से मोला) की मिश्रित खेती करती हैं. छोटी मछलियां मुख्य रूप से घर में खाने के लिए होती हैं और कार्प बिक्री के लिए. औसतन, एसएचजी प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष 1.5 लाख रुपये का लाभ कमाते हैं. चूंकि ओडिशा में 62,000 ग्राम पंचायत टैंक हैं, जो 54,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हुए हैं, यह योजना लाखों महिलाओं को लाभ पहुंचा सकती है.
हालांकि ग्राम पंचायत तालाबों पर अल्पकालिक अधिकार (लीज़) प्राप्त करना ग्रामीण महिलाओं के लिए एक बड़ी सफलता थी, लेकिन यह काम बहुत चुनौतीपूर्ण था. इनमें से कई तालाब बेकार पड़े थे और उनमें कचरा, खरपतवार और गंदगी भरी हुई थी. ज़्यादातर महिला एसएचजी को पट्टे पर इसी तारक के तालाब मिले थे.
मां मनसा एक ऐसा ही एसएचजी था जिसने 2016 में पांच साल के लिए मयूरभंज के कोचिलापाड़ा गांव में एक पोखर पट्टे पर लिया था. उनका काम बहुत मुश्किल था क्योंकि उन्हें जो पोखर मिला वह मृत था और खरपतवार से भरा हुआ था.
एसएचजी की सदस्य अष्टमी खिलार कहती हैं कि सभी महिलाओं ने मिलकर मृत पोखर को साफ किया. ‘हम सभी ने खरपतवार को काटा. रबर के टायरों पर तैरते हुए हमने पानी में चूना छिड़का. फिर, हमने मछली के बीज छोड़े और मछलियों को नियमित चारा दिया. दो या तीन महिलाएं एक साथ पानी में उतरतीं; रबर के टायरों की मदद से वे पूरे तालाब में चारा फैलातीं. हम दिन में दो बार- सुबह और शाम ऐसा करते थे.’
महिलाएं साल में दो-तीन बार बड़ी मछलियां पकड़ती हैं और उन्हें बेचती हैं. छोटी मछलियां वे अक्सर पकड़ रहती हैं और उसका इस्तेमाल अपने खाने में करती हैं. इससे महिलाओं के खाने का तरीका बदल गया.
इस एसएचजी की एक अन्य सदस्य कमला खिलार कहती हैं कि जब खाना खरीदना पड़ता है तो महिलाओं को भरपूर खाना नहीं मिलता.
‘जब मैं मछली पालन नहीं करती थी, तो हम महीने में दो-तीन बार मछली खरीदकर खाते थे. हम थोड़ी-थोड़ी, आधा किलो या एक किलो खरीदते थे. पूरे परिवार को खिलाने के बाद कुछ बचता था, तो मैं खाती थी. अब जब मैं खुद मछली पालन करती हूं, तो महीने में तीन-चार बार मछली खाती हूं. मैं अक्सर छोटी मछली पकड़कर पका लेती हूं. अब मैं अच्छी तरह खाती हूं. पूरे परिवार को खिलाने के बाद भी मुझे पर्याप्त मछली मिलती है.’
एसएचजी द्वारा ग्राम पंचायत पोखर के पुनरुद्धार से पूरे कोचिलापाड़ा गांव का फायदा हुआ है. एक समय मृत पड़ा तालाब अब लगभग 12 फीट पानी से भरा हुआ है. निवासी इसका उपयोग विभिन्न कामों में करते हैं- मजदूर इसका उपयोग गरीबों के लिए सरकारी योजना के तहत घर बनाने के काम में करते हैं; मवेशी और बकरियां इसका पानी पीती हैं; और महिलाएं तालाब के आसपास दाल, सब्जियों और मसालों की फ़सलों की सिंचाई करती हैं.
2021 में अपने पांच साल के पट्टे की अवधि पूरी करने के बाद एसएचजी ने 2026 तक के लिए इसे नवीनीकृत कर लिया.
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मयूरभंज ओडिशा का सबसे बड़ा जिला है और आदिवासियों की सबसे ज़्यादा आबादी वाला भी. मयूरभंज की लगभग 59% आबादी आदिवासी है- यह वह सामाजिक समूह है जो कुपोषण से सबसे अधिक प्रभावित है.
लेकिन, मयूरभंज की एक विशेषता यह है कि यहां पानी बहुतायत है.
ओडिशा वर्ल्डफिश के वरिष्ठ विशेषज्ञ (पोषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य) डॉ. बैष्णब चरण रथ कहते हैं कि पारंपरिक तौर पर यहां ज़्यादातर गांवों में कई तालाब होते थे. ‘यही कारण है कि सरकार मछली पालन पर जोर दे रही है. सरकारी सहायता प्राप्त तालाबों में महिलाएं नियमित रूप से मोला और अन्य छोटी मछलियां पकड़ती हैं. उन्हें बड़ी मछलियां भी मिलती हैं- साल में दो बार बड़ी मात्रा में और चार बार थोड़ी मात्रा में. ऐसे समय में जब पूरे भारत में छोटे पैमाने के मछली पालन में गिरावट हो रही है, ये कार्यक्रम मछली पालन में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देते हैं.’
मछली को महिलाओं की पहुंच में लाकर, ये योजनाएं महिलाओं और बच्चों के पोषण में सुधार की क्षमता रखती हैं. छोटी मछलियां अधिक फ़ायदेमंद होती हैं. छोटी मछलियां, जब सिर और कांटों के साथ पूरी खाई जाती हैं, तो सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं – विटामिन ए, आयरन, प्रोटीन, कैल्शियम, आयोडीन, जिंक, ओमेगा 3 फैटी एसिड, आदि.
मछली आधारित पोषण का लाभ उन परिवारों तक भी पहुंच सकता है जो मछली पालन में शामिल नहीं हैं. लेकिन, कच्ची मछली का परिवहन और भंडारण एक समस्या है और बच्चों के लिए मछली खाना मुश्किल हो सकता है. इन समस्याओं से निपटने के लिए, वर्ल्डफिश, एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ जो जलीय खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देती है, ने सूखी छोटी मछली और छोटी मछली पाउडर के साथ कई प्रयोग किए हैं. सूखी छोटी मछली को स्टोर और परिवहन करना आसान है, पाउडर के रूप में छोटी मछलियों को बच्चे आसानी से खा सकते हैं, और ये साल भर उपलब्ध रहते हैं.
‘एशिया और अफ्रीका के कई देशों में छोटी मछलियों के पाउडर का उपयोग अत्यधिक पौष्टिक भोजन के रूप में किया गया है, जो आवश्यक खनिज और विटामिन जैसे जिंक, आयरन, विटामिन बी12 और विटामिन ए के साथ-साथ आवश्यक फैटी एसिड और प्रोटीन प्रदान करता है,’ यह कहना है शकुंतला थिल्स्टेड का, जो 2021 वर्ल्ड फूड प्राइज की विजेता हैं.
थिल्स्टेड सीजीआईएआर (CGIAR) की पोषण, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा निदेशक भी हैं, जो खाद्य सुरक्षा पर शोध करने वाली अंतरराष्ट्रीय संगठनों का समूह है.
वह कहती हैं, ‘गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के आहार में और छोटे बच्चों के पूरक खाद्य पदार्थों में छोटी मछली और उत्पादों को शामिल करना महिलाओं के पोषण और छोटे बच्चों के वृद्धि, विकास और संज्ञान को बढ़ाने के लिए अत्यधिक लाभकारी है.’
ओडिशा ने इस विचार को अपनाया. अप्रैल 2021 में ओडिशा सरकार ने वर्ल्डफिश की साझेदारी में मयूरभंज जिले की 50 आंगनवाड़ियों में बच्चों को मछली खिलाने का एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया. आंगनवाड़ियों ने 3-6 साल के 1,200 बच्चों को सप्ताह में पांच दिन छोटी मछली के पाउडर वाली करी (curry) परोसी. इन आंगनवाड़ियों ने टेक-होम राशन में भी सूखी छोटी मछली शामिल की, जिसे 800 गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और किशोरियों को दिया गया.
यह पायलट प्रोजेक्ट छह महीने तक चला. दिसंबर 2021 में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन ने इसके मूल्यांकन में पाया कि बच्चों ने गंध और बनावट की मामूली समस्याओं के बावजूद मछली के पाउडर वाली सब्जी और अंडे की करी को पसंद किया और यह खाना यहां सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त भी था.
रिपोर्ट ने सिफारिश की कि सूखी मछली/सूखी मछली पाउडर को पूरक पोषण कार्यक्रम का हिस्सा बनाया जा सकता है क्योंकि यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि सिर्फ़ 10 ग्राम सामग्री के साथ भी बच्चे आवश्यक प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन और कैलोरी प्राप्त कर सकेंगे.
सगुनीबासा गांव की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता प्रतिमा हंसदा कहती हैं कि उनकी आंगनवाड़ी के अंतर्गत 173 परिवार आते हैं और वो इस पायलट प्रोजेक्ट का हिस्सा थे. ‘जब हमने पहली बार छोटी मछली का पाउडर दिया, तो महिलाओं को यह अजीब लगा. उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह क्या है. जब मैंने उन्हें समझाया कि यह मछली से बना है, तो उन्होंने धीरे-धीरे इसे अपना लिया. वे बहुत खुश थीं कि उन्हें यहां मछली मिल रही थी, जिसे वे अक्सर खरीद नहीं पातीं. इस पायलट प्रोजेक्ट के बाद मैंने देखा कि गर्भवती महिलाओं ने स्वस्थ वजन के बच्चों को जन्म दिया.’
इस पायलट प्रोजेक्ट में स्वच्छता और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कोच्चि के केंद्रीय मत्स्य प्रौद्योगिकी संस्थान की मदद से केरल से मंगाई गई समुद्री सूखी मछली का इस्तेमाल किया गया. भविष्य में ओडिशा का उद्देश्य है स्थानीय (लोकल) सूखी मछली इस्तेमाल करना. इसलिए, सरकार राज्य के तटीय क्षेत्रों में महिलाओं को छोटी समुद्री मछलियों से सूखी मछली और मछली पाउडर बनाने का प्रशिक्षण दे रहा है.
एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत राज्य ने 10 महिला एसएचजी को सस्ते, साफ़ और जल्दी मछली सुखाने वाले उपकरण दिए हैं. मछलियों को खुले में सुखाने के पुराने तरीके के बजाय ये महिलाएं मछलियों को सुखाने के लिए सोलर पॉलीहाउस का इस्तेमाल करती हैं.
सोलर पॉलीहाउस सूखी मछली बनाने वाली महिलाओं को काफ़ी पसंद आया है. बालासोर जिले के तटीय गांव चांदीपुर में मुस्लिम महिलाओं के एक समूह ने गांव के विरोध के बावजूद छोटे पैमाने पर सूखी मछली का काम शुरू किया और इसे सफल बनाया है. अब, वे यह काम बढ़ाना चाहती हैं. उन्हें उम्मीद है कि सरकार भविष्य में अपने पोषण कार्यक्रम के लिए मछली उनसे खरीदेगी.
बालासोर के बड़ख़न बाबा एसएचजी की सदस्य रोजिना बीबी कहती हैं कि सरकार सोलर पॉलीहाउस में उत्पादन की प्रक्रिया और स्वच्छता का निरीक्षण कर सकती है. ‘अगर वे इससे संतुष्ट हैं, तो उन्हें अपने प्रोजेक्ट के लिए सूखी मछली हमसे ख़रीदने का विचार करना चाहिए. इससे यहां कई बेरोजगार ग्रामीण महिलाओं को मदद मिलेगी, और हम यह सुनिश्चित करेंगे कि लाभार्थियों को स्वच्छ और अच्छी गुणवत्ता वाली मछली मिलें.’
अंतर्देशीय मछली पालन (तालाब/ पोखर) की तरह, तटीय सूखी मछली बनाने का काम ग्रामीण महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है. मछली आधारित इन कार्यक्रमों ने जीवन बदलने की क्षमता दिखाई है.
सगुनीबासा की संथाल महिलाएं हों या मनखिडिया की बाथुड़ी महिलाएं या कोचिलापाड़ा की खिलार महिलाएं, इन सभी के जीवन पर मछली पालन का असर पोषण और रोजगार से कहीं अधिक गहरा है. इस काम से महिलाएं परिवार में अपनी स्थिति और निर्णय लेने की शक्ति को मजबूत कर रही हैं; बैंक सुविधा और औपचारिक लोन का लाभ ले रही हैं; बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित कर रही हैं, और असुरक्षित पलायन से मुक्त हो रही हैं.
(मूल अंग्रेज़ी लेख से सोनालिका झा द्वारा अनूदित. अंग्रेजी में मूल मल्टीमीडिया रिपोर्ट यहां देख सकते हैं.)
(भारत की मछुआरिनों पर पांच भाग की मल्टीमीडिया श्रृंखला देखने के लिए यहां क्लिक करें. इस श्रृंखला के सभी लेख हिंदी में यहां पढ़े जा सकते हैं.)