गत दिनों उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में जवाहरलाल नेहरू की आदमकद प्रतिमा का जैसा सत्ता प्रायोजित अपमान किया गया और जिसने न सिर्फ कांग्रेसियों बल्कि आधुनिक भारत की नेहरू की अवधारणा और प्रगतिशील मूल्यों में यकीन रखने वाले सारे लोगों में बड़े पैमाने पर विक्षोभ पैदा किया, उसका साफ मतलब है कि सत्ता मद में डूबे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार ने 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद उनकी छवियों के ध्वंस का कुत्सा से भरा हुआ जो अभियान नए सिरे से आरंभ कर दिया था, उसे वह उनके निधन के साठ वर्षों बाद भी खत्म या स्थगित नहीं करना चाहता. उस महीने में भी नहीं, जिसमें नेहरू की जयंती मनाई जाती है.
अन्यथा कोई कारण नहीं कि आठ महीने पहले बरेली के नगर-निगम व जिला प्रशासन द्वारा शहर को ‘स्मार्ट’ बनाने के लिए पुनर्स्थापित करने के वादे पर उक्त प्रतिमा को उसकी जगह से उखाड़ा जाता तो न उसका न्यूनतम सम्मान सुरक्षित किया जाता और न तत्परतापूर्वक पुनर्स्थापना की ही चिंता की जाती. एक ओर स्थानीय कांग्रेसी उसको पुनर्स्थापित करने को लेकर अनशन व आंदोलन करते रहते और दूसरी ओर उन्हें मुंह चिढ़ाते हुए उसे स्थानीय मिशन कंपाउंड अस्पताल के परिसर में कूड़े के ढेर के हवाले कर दिया जाता.
बेकद्री भी, सीनाजोरी भी
यहां यह बताने की कोई जरूरत नहीं लगती कि सत्ता की शक्ति के बुलडोजरीकरण के इस दौर में जिला प्रशासनों व निकायों को ऐसी मनमानियों की ‘प्रेरणा’ या ‘शक्ति’ कहां से मिलती है. इसको बरेली के मेयर डॉ. उमेश गौतम के उस बयान से भी समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने इस प्रकरण और इससे उपजे सारे उद्वेलन को स्थानीय कांग्रेस की गुटबाजी से जोड़कर कुछ इस तरह झटक दिया है जैसे नेहरू सिर्फ कांग्रेस के नायक हों और उसकी इस गुटबाजी से नेहरू और उनकी प्रतिमा के किसी भी तरह के अपमान की खुली छूट मिल जाती हो.
स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि डाॅ. गौतम के नियंत्रण वाले बरेली नगर निगम ने उक्त प्रतिमा को उखाड़े जाने के बाद आठ महीने बीत जाने पर भी उसको पुनर्स्थापित नहीं कराया और इससे खफा कांग्रेस ने खुद अपने तईं इसका जिम्मा उठाने की बात कही तो कोई यह बताने वाला तक नहीं था कि प्रतिमा है कहां. फिर अचानक उसे कूड़े के ढेर में पाया गया.
क्या आधुनिक भारत के वास्तुकार, बच्चों के चाचा और देश के पहले प्रधानमंत्री के इस अनादर व अपमान की किसी भी स्तर पर किसी सत्ताधीश या अधिकारी की जिम्मेदारी तय करने की जरूरत नहीं है और यह कहकर सारे मामले की छुट्टी की जा सकती है कि इससे सिर्फ कांग्रेसी उद्वेलित हैं?
सिर्फ कांग्रेसियों के उद्वेलित होने के दावे की सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता सेनानियों की स्मृतियों की रक्षा के बहुविध प्रयत्नों को समर्पित और क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के जानकार बरेली निवासी वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी ने समूचे घटनाक्रम को लेकर बरेली की जनता, जनप्रतिनिधियों, हुक्मरानों और अखबारनवीसों के नाम एक खुला खत जारी किया है, जिसमें लिखा है कि नेहरू की उक्त आदमकद प्रतिमा सिर्फ इसलिए नहीं स्थापित की गई थी कि वे बड़े मुक्तियोद्धा, विश्वप्रसिद्ध लेखक व चिंतक या कि देश के पहले प्रधानमंत्री थे. वह बरेली की धरती से उनके खास तरह के और बेहद प्रगाढ़ रिश्ते की भी यादगार थी और इस नाते उसकी तुरंत पुनःस्थापना की जानी चाहिए.
बरेली की जेलों में
विद्यार्थी बताते हैं कि नेहरू ने अपने 3,259 दिनों के जेल जीवन का एक हिस्सा बरेली की जिला व सेंट्रल जेलों में भी बिताया था. इनमें सेंट्रल जेल के जिस वार्ड में कैदी नंबर 582 के रूप में वे 31 मार्च, 1945 से 10 जून, 1945 तक 72 दिन बन्द रहे थेे, उसे अब उनके ही नाम पर ‘नेहरू वार्ड’ के नाम से जाना जाता है और उन्होंने यहां के बंदी जीवन का अपनी आत्मकथा में भी जिक्र किया है.
आजादी की लड़ाई में वे 13 जून, 1929 को नमक सत्याग्रह की तैयारी के सिलसिले में आयोजित एक राजनीतिक सम्मेलन को संबोधित करने पहली बार बरेली आए तो उनके साथ महात्मा गांधी के दाहिने हाथ कहलाने वाले अखिल भारतीय चरखा संघ के राष्ट्रीय मंत्री आचार्य जेबी कृपलानी भी थे. इस सम्मेलन को कांग्रेस नेताओं सैफुद्दीन किचलू और सरोजिनी नायडू ने भी संबोधित किया था.
इतना ही नहीं, 08 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने तत्कालीन सेंट्रल असेंबली में बम फेंककर तहलका मचा दिया तो बरेली के बुधौली गांव के स्वतंत्रता सेनानी पृथ्वीराज सिंह ने नेहरू के ही कहने पर भगत सिंह के क्रांतिकारी दल के कानपुर के फरार सदस्य विजय कुमार सिन्हा को अपने यहां ट्यूशन पढ़ाने का काम दिया था, जो तत्कालीन परिस्थितियों में ट्यूशन कम और शरण ज्यादा था. हालांकि बाद में सिन्हा को बरेली कैंट से गिरफ्तार कर लिया गया था.
बेनागा आवाजाही
इसके पांच साल बाद 1934 में नेहरू पुरुषोत्तमदास टंडन और रफी अहमद किदवई के साथ फिर बरेली आए थे. इस बार उन्हें यहां प्रादेशिक राजनीतिक सम्मेलन को संबोधित करना था. अगले बरस 1935 में वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ फिर आए तो बुधौली जाकर स्वतंत्रता सेनानियों पृथ्वीराज सिंह, दामोदरस्वरूप सेठ और पं. द्वारिका प्रसाद का कुशलक्षेम जाना था.
वहां से लौटने के कुछ ही अरसे बाद नेहरू को जेल भेज दिया गया था, लेकिन 1936 में जैसे ही वे छूटे, कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने फिर बरेली आए. 1937 में भी उन्होंने बरेली आने से नागा नहीं ही किया- अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित के साथ सभा को संबोधित करने आए.
विद्यार्थी बताते हैं कि आजादी के बाद भी बरेली से नेहरू का रिश्ता टूटा नहीं. एक चुनाव में वे वोट मांगने आए और उन्हें पता चला कि कांग्रेस के प्रत्याशी के विरुद्ध स्वतंत्रता सेनानी पृथ्वीराज सिंह के बेटे ब्रजराज सिंह उर्फ आछू बाबू लड़ रहे हैं तो वे अपनी सभा में मतदाताओं से यह कहकर लौट गए कि मैं आपसे आछू बाबू के विरुद्ध वोट नहीं मांग सकता. आप अपने विवेक से जिसको चाहें, उसको वोट दें. वे रामपुर व छतारी के नवाबों के साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पंत के लिए वोट मांगने भी बरेली आए थे.
कोई द्वंद्व नहीं, इसलिए अस्वीकार्य!
यहां पल भर को ठहरकर इस सवाल का सामना करें कि नेहरू की ही पांत के महात्मा गांधी व वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं को अपना बनाकर आत्मसात कर लेने वाले हमारे वर्तमान सत्ताधीशों को नेहरू अभी भी इतने अस्वीकार्य क्यों बने हुए हैं कि वे उन्हें फूटी आंखों भी अच्छे नहीं लगते.
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि नेहरू अपनी विचारधारा या पक्षधरता में कोई झोल नहीं छोड़ गए हैं और द्वैधों व द्वंद्वों से लाभ उठाना चाहने वालों को उनमें अपने लिए कोई संभावना नजर नहीं आती.
इसे इस रूप में भी कह सकते हैं कि नेहरू अपने किसी भी रूप में, कहीं भी अपने अनुयायियों, प्रशंसकों या विरोधियों किसी को भी ऐसी कोई छूट देते नजर नहीं आते, जिससे वे किसी भी स्तर पर उन्हें अपने पोंगापंथी, प्रतिगामी, परंपरावादी, सम्प्रदायवादी और पोच-सोच का तनिक भी पैरोकार साबित कर पाएं.
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वे जिन मूल्यों के साथ रहे और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने जैसे आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहा, उससे जुड़े उनके विचारों की यह कहकर तो आलोचना संभव है कि कई मामलों वे कम्युनिस्टों तक के साथ खड़े दिखने लगते हैं (हालांकि कई लोग इसकी उलटी बात भी कहते हैं), लेकिन यह कहकर नहीं कि उनकी प्रगतिशीलता में कहीं कोई लोचा है.
आज जिस धर्मनिरपेक्षता को हमारे सत्ताधीश संविधान की प्रस्तावना में भी बर्दाश्त नहीं करना चाहते, किसे नहीं मालूम कि नवस्वतंत्र देश में सर्वोत्कृष्ट संवैधानिक मूल्य के रूप में उसकी प्रतिष्ठा के लिए नेहरू ने तत्कालीन हिंदू महासभाइयों और कांग्रेस के भीतर के गोविन्दवल्लभ पंत व पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे संकीर्णतावादियों के बीच के उच्चस्तरीय सहयोग व गठजोड़ से जमकर लोहा लिया था! फिर वे इन सत्ताधीशों को क्योंकर सुहाने लगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)