सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी पदों पर लैंगिक भेदभाव की निंदा की, छत्तीसगढ़ की सरपंच को बहाल किया

छत्तीसगढ़ की एक युवा सरपंच को निर्माण कार्य में कथित देरी के आधार पर हटा दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने इसे महिलाओं के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह मानते हुए बहाली का आदेश दिया है. कोर्ट ने महिला को एक लाख रुपये मुआवज़ा देने का निर्देश देते हुए जोड़ा कि सरकार ज़िम्मेदार अधिकारियों से यह राशि वसूल सकती है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सार्वजनिक पदों पर महिलाओं के विरुद्ध व्याप्त लैंगिक पूर्वाग्रह की निंदा करते हुए छत्तीसगढ़ की एक युवा महिला सरपंच को बहाल करने का आदेश दिया। महिला को उनके पद से हटा दिया गया था, जिसे कोर्ट ने अनुचित और भेदभावपूर्ण माना.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने उन्हें पद से हटाने के आदेश को खारिज करते हुए कहा, ‘उनकी प्रतिबद्धताओं की सराहना करने या उनके साथ सहयोग करने या उनके गांव के विकास में मदद करने के बजाय, उनके साथ बिल्कुल अनावश्यक और अनुचित कारणों से अन्याय किया गया है.’

अदालत ने छत्तीसगढ़ सरकार को निर्देश दिया कि वह सरपंच को हुई परेशानी के लिए मुआवजे के तौर पर एक लाख रुपये का भुगतान करे. साथ ही, कहा कि राज्य सरकार जिम्मेदार अधिकारियों की पहचान होने पर उनसे यह राशि वसूल सकती है.

अदालत ने उन अधिकारियों के खिलाफ जांच का आदेश दिया, जिन्होंने उसे ‘अनुचित उत्पीड़न’ का सामना कराया था. पीठ ने 27 वर्षीय सरपंच के खिलाफ की गई कार्रवाई पर कड़ी असहमति व्यक्त की, जिन्हें स्थानीय निर्माण कार्य में कथित देरी के आधार पर हटा दिया गया था. अदालत ने इन आरोपों को निराधार पाया.

पीठ ने कहा, ‘यह मामला एक निर्वाचित सरपंच को हटाने में अधिकारियों की ओर से अत्याचार की हद है, जो एक युवा महिला है, जिन्होंने छत्तीसगढ़ के एक दूरदराज के क्षेत्र में अपने गांव की सेवा करने का विकल्प चुना था.’

रिपोर्ट के अनुसार, अदालत का यह निर्णय हाल के सप्ताहों में दूसरी बार है जब इस पीठ ने महिला निर्वाचित अधिकारियों के साथ कथित दुर्व्यवहार के मामले में हस्तक्षेप किया है.

पिछले महीने पीठ ने इसी तरह महाराष्ट्र के जलगांव जिले की एक महिला सरपंच को बहाल किया था, जिन्हें निराधार आधारों पर अयोग्य ठहराया गया था. उस मामले में पीठ ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया कि शासन में महिलाओं के प्रति व्यवस्थागत पूर्वाग्रह और भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण लैंगिक समानता और सार्वजनिक पदों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व की दिशा में प्रयासों को कमजोर कर रहे हैं.

छत्तीसगढ़ के मामले में पीठ ने न केवल सरपंच को गलत तरीके से हटाए जाने पर आपत्ति जताई, बल्कि गांव की विकास परियोजनाओं में देरी के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने में अधिकारियों द्वारा अपनाए गए दोषपूर्ण तर्क का भी जिक्र किया.

राज्य की साजबहार ग्राम पंचायत का नेतृत्व करने के लिए 2020 में चुनी गईं सोनम लाकड़ा पर निर्माण परियोजनाओं को पूरा करने में विफल रहने का आरोप लगाया गया था- जबकि काम में देरी सामग्री की आपूर्ति, ठेकेदारों और इंजीनियरों की भागीदारी सहित रसद संबंधी मुद्दों के कारण हुई थी.

इन परिस्थितियों का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा, ‘निर्माण कार्य में इंजीनियरों, ठेकेदारों और सामग्रियों की समय पर आपूर्ति के अलावा मौसम की अनिश्चितताएं भी शामिल होती हैं… एक सरपंच को देरी के लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि कार्य के आवंटन में देरी हुई थी या निर्वाचित निकाय को कोई विशिष्ट कर्तव्य सौंपा गया था?’

पीठ ने अंततः माना कि उनके खिलाफ हुई कार्यवाही निराधार थी तथा उन्हें तत्काल बहाल करने का निर्देश दिया.

अदालत ने सरपंच को मनमाने तरीके से निर्देश जारी करने पर भी सवाल उठाया और कहा कि आधिकारिक आदेशों में निर्माण परियोजनाओं में शामिल समयसीमा की तकनीकी समझ का अभाव है. यह देखते हुए कि ऐसी कार्रवाइयों का उद्देश्य महिला को उसकी भूमिका जारी रखने से रोकना और हतोत्साहित करना प्रतीत होता है.

पीठ ने स्थानीय अधिकारियों की इस प्रवृत्ति की निंदा की कि वे बिना किसी उचित कारण के निर्वाचित प्रतिनिधियों से अनुपालन की मांग करते हैं. पीठ ने राज्य सरकार की ओर से पेश हुए वकील से कहा, ‘आप यही चाहते हैं… आप चाहते हैं कि कोई सरपंच बाबू के सामने भीख का कटोरा लेकर जाए… कोई क्लर्क जिसे सीईओ के रूप में पदोन्नत किया गया है.’

अदालत ने छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव को निर्देश दिया कि वे सरपंच को अनुचित तरीके से हटाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की गहन जांच करें और आदेशित मुआवज़ा राज्य को चार सप्ताह के भीतर देना चाहिए, साथ ही इसे जिम्मेदार लोगों से वसूलने का विकल्प भी होना चाहिए.

अदालत ने निर्देश दिया, ‘राज्य को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार ऐसे अधिकारियों/कर्मचारियों से राशि वसूलने की स्वतंत्रता होगी.’

अखबार के अनुसार, अक्टूबर में अपने फ़ैसले में इसी पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि महिला नेताओं, ख़ासकर ग्रामीण इलाकों में – निजी शिकायतकर्ताओं और सरकारी अधिकारियों दोनों की ओर से गहरे पूर्वाग्रहों और प्रतिरोध का सामना करती हैं.

पीठ ने कहा था, ‘एक निर्वाचित प्रतिनिधि, ख़ासकर ग्रामीण इलाके की एक महिला को हटाने को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह उन महिलाओं के प्रयासों की अनदेखी करता है जो ऐसे पदों को हासिल करने और बनाए रखने के लिए करती हैं.’