खेतों के बीचोंबीच बने दो नए क्वार्टर दरवाज़ों और खिड़कियों के बग़ैर खड़े थे. ‘पाम्प तो चार माश आगेइ चूरी होय गेचे (पंप तो चार महीने पहले ही चोरी हो गया)’ सिंचाई दफ़्तर के इंजीनियर ने मुझे बताया. चूंकि क्वार्टर अधूरे रहे, पंप चालक और उसका सहयोगी वहां नहीं रह सके और उनकी अनुपस्थिति में एक रात पंप चोरी हो गया.
मैं ज़िला प्रशिक्षण के दौरान उत्तर 24 परगना ज़िले के आमडांगा ब्लॉक में बतौर बीडीओ काम कर रहा था. इस लुप्त गहरे पंप, जिससे 250 एकड़ भूमि की सिंचाई होती थी, के बारे में सुनकर मैं दादपूर ग्राम आया था और विकास के इस दृश्य को देख कर क्षुब्ध था. परंतु मुझे ख़याल आया कि मैं पश्चिम बंगाल आने से पहले ही विकास का ऐसा चित्र देख चुका हूं, किसी और राज्य में.
आज से क़रीब पैंतीस वर्ष पूर्व जब मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त होकर राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी पहुंचा तो पाया कि प्रशासन और प्रशासकों की प्राथमिकता थी विकास. वैश्वीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण का बिगुल बजना अभी बाक़ी था और अक्सर विकास का अर्थ ग्रामीण विकास ही समझा जाता था. अकादमी में सरकार के विकास कार्यक्रमों के बारे में विस्तार से बताया और पढ़ाया जाता था और अक्सर ग्रामीण विकास पर चर्चा भी होती थी. इन सबके दौरान कई बार मेरे दिमाग़ में यह कौतूहल जागता था कि गांव-देहात में विकास का चित्र कैसा दिखता है.
अपने गांव गए मुझे दस वर्ष हो गए थे. इसलिए मन में प्रश्न उठता था क्या विकास की छवि सिनेमाघरों में फिल्म से पहले दिखाए गए फिल्म्ज़ डिवीज़न के वृत्तचित्र में गांव के पुरुषों एवं महिलाओं द्वारा बनाए जा रही रास्तों या छोटे बांधों या प्राथमिक स्कूल के भवनों की भांति होती है? या फिर विकास दूरदर्शन पर इफको के यूरिया के विज्ञापन में लहलहाते खेतों के बीच खड़े मुस्कराते सुंदर सजे कृषक दंपत्ति की तरह दिखता है? या फिर यह विकास राज्य मार्गों के किनारे लगे विराट इश्तहारों में मुरेठाधारी हीरो होंडा मोटर साइकिल दौड़ाते लोगों की तरह नज़र आता है?
अकादमी में आने के दो महीने बाद मुझे विकास की पुख़्ता तस्वीर देखने को मिली- उत्तर प्रदेश के एक गांव में. राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी की यह कोशिश रहती है कि विभिन्न सेवाओं में नियुक्त अधिकारियों के प्राथमिक प्रशिक्षण में वह अपने विशाल देश और लोगों की अवस्था से परिचित हो सकें. इसलिए प्रशिक्षणार्थियों को छोटे दौरों द्वारा भिन्न जगहों तथा स्थितियों से अवगत कराया जाता है.
इन्हीं दौरों की कड़ी में अलग-अलग सेवाओं के चार प्रशिक्षणार्थियों का हमारा दल सितंबर, 1989 के अंतिम सप्ताह में बलिया ज़िला मुख्यालय से क़रीब 20-25 किमी दूर एक गांव में पहुंचा. गांव का नाम था करम्मर. ज़िला प्रशासन की जीप हम लोगों को दोपहर बाद गांव के किनारे नवनिर्मित पंचायत भवन तक पहुंचा कर वापस चली गई. ग्राम पंचायत के सरपंच, जो हमारे मेजबान भी थे, कुछ लोगों के साथ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे. उनके साथ बैठकर हम लोगों ने गरम-गरम चाय पी और फिर गांव के संबंध में जानने की कोशिश की.
करम्मर गांव और ग्राम पंचायत काफ़ी बड़ा था. हमें बताया गया कि यहां की जनसंख्या 20,000 से अधिक है और यहां तीन प्राथमिक और एक माध्यमिक विद्यालय के अलावा एक इंटर कॉलेज भी है. मुझे लगा कि शिक्षा के संबंध में लोग जागरूक होने लगे हैं क्योंकि वह शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ने की संभावनाओं से चेत गए हैं. अपने गांव के बारे में बताते हुए सफ़ेद बाल वाले एक सज्जन ने कुछ गर्व के साथ कहा, ‘हमारे गांव से भी एक आईएएस अधिकारी हैं.’
सरपंच महोदय ने बातचीत के उपरांत हम लोगों को गांव की एक परिक्रमा करवाने का न्यौता दिया. उनके साथ रास्तों से गुजरते हुए हमने करम्मर गांव का फैलाव देखा और साथ ही जनसंख्या का मोहल्लों और टोलों में विभाजन. चूंकि मैं गंगा तथा पुनपुन नदियों के बीच बसे अपने गांव के नक़्शे से वाक़िफ़ था यहां मुझे कुछ नया नहीं दिखा.
मोहल्ले और टोले जातियों के आधार पर गठित थे. सवर्णों के मोहल्ले, जिनमें अधिकतर मकान पक्के थे, गांव के केंद्र में कुछ ऊंची जगह पर अवस्थित थे और दलितों के ज़्यादातर कच्चे घरों के टोले गांव के बाहरी किनारों पर. गांव के चारों तरफ़ खेतों में पछिया हवा में झूमता धान पीला हो चला था, दूर से गन्ने के कुछ खेत भी दिख रहे थे. घूमते-देखते हम लोग वापस पंचायत भवन के समीप पहुंच गए थे. हमारे दल के मेरे बाक़ी साथी पचास गज दूर नए सफ़ेद दमकते पंचायत भवन की ओर बढ़े परंतु मैं रास्ते के किनारे एक छप्पर तले चल रही चाय की दुकान पर थम गया.
मेरी रुचि चाय में कम और बेंच पर बैठे कुछ कुतूहली बुजुर्गों की चर्चा में अधिक थी. जबसे हम सब करम्मर के पंचायत भवन के समक्ष जीप से उतरे थे उनमें से तीन लोगों को मैंने वहीं एक बेंच पर बैठा देखा था. दूसरी बेंच पर मैं बैठ गया.
अपने देश की हर नुक्कड़ की चाय की दुकान पर दिन के किसी भी वक्त राजनीति शास्त्र के किसी न किसी विषय पर सेमिनार चल रहा होता है. मेरे बेंच पर बैठने के साथ चुप्पी छा गई थी, किंतु मैंने जब आने वाले लोकसभा चुनाव में बलिया के तत्कालीन सांसद चंद्रशेखर तथा राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन की सफलता की संभावनाओं पर बुजुर्गों का मत जानना चाहा तो एक नए सेमिनार का शुभारंभ हुआ.
दो-तीन और लोग भी चाय की दुकान पर रुककर चाय के साथ बौद्धिक पोषण ग्रहण करने लगे. स्वाभाविक था कि बोफोर्स , भ्रष्टाचार तथा सामाजिक न्याय के विषय भी सामने आ जाएं. इन विषयों के मंथन के मध्य जब एक ठहराव आया तो बेंच पर विराजमान एक बुजुर्ग से रहा न गया. उन्होंने पूछा, ‘रउआ के का नाम बा (आपका नाम क्या है)?’ मैंने बताया, ‘चन्दन.’ उन्होंने फिर पूछा, ‘अउ आगे (और आगे).’ मैंने भी उत्तर दिया, ‘आगे कुच्छो नइखे (आगे कुछ नहीं है)’ और बात यहीं पर अटक गई.
साफ़ था कि यह लोग जानना चाहते थे कि मेरी जाति कौन-सी है. पहले भी बसों और ट्रेनों में मैं देखता आया था कि पास बैठा अजनबी, शहरी हो या ग्रामीण, बातचीत शुरू होते ही पहले आपका पूरा नाम जानना चाहता था और फिर यह कि आप किस ज़िले और गांव के रहने वाले हैं. कोशिश यह रहती थी कि वह पहले ब्रह्मांड के जातिबद्ध सामाजिक पदानुक्रम में आपकी सही जगह और उसके बाद आपकी भौगोलिक अवस्थिति जानकर तदानुसार अपना व्यवहार ठीक कर सके. 42 साल से आज़ाद गणतंत्र में रहने के बाद भी यह कैसे संभव था कि हमारा व्यवहार सबके साथ एक ही जैसा हो?
सूर्यास्त हो चुका था. चाय और चर्चा समाप्त कर मैं पंचायत भवन पहुंचा. वहां पंचायत के एक कर्मचारी ने बताया कि नीचे के कमरों में तो अब दफ्तर चलता है लेकिन ऊपर के कमरे ख़ाली थे. इसलिए हमारे ठहरने की व्यवस्था पंचायत भवन की दूसरी मंज़िल पर है, परंतु शौचालय नीचे है. ऊपर नज़र गई तो देखा कि मेरे तीनों साथी पहली मंज़िल की बालकनी पर खड़े ज़ोरों से मुस्करा रहे थे.
उनमें से एक ने गब्बराना अंदाज़ में कहा, ‘आओ, ठाकुर, आओ. ऊपर आने की सीढ़ी पीछे की तरफ़ है.’ कर्मचारी के साथ पंचायत भवन के पिछवाड़े पहुंचा तो देखा कि सीढ़ियों के जीने के बजाय बांस की एक लंबी सीढ़ी दीवार से लगी खड़ी है. मैंने कर्मचारी की ओर देखा तो उसने बड़े सम्मान से कहा, ‘सर, सीढ़ी बनाने का पैसा ही नहीं बचा था. रात में सोने से पहले सीढ़ी ऊपर खींच लिया जाए.’ मेरे लिए विकास की यह पहली अर्थपूर्ण छवि थी.
कुछ दिनों पहले मेरे दिमाग़ में अचानक ही करम्मर के दोमहले पंचायत भवन का ख़्याल आया और साथ ही चेहरे पर एक मुस्कान भी. फिर एक प्रश्न मेरे समक्ष खड़ा हो गया, ‘क्या उस पंचायत भवन की दूसरे मंज़िल पर जाने के लिए वहां के कर्मचारियों और करम्मर की जनता को अब भी बांस की सीढ़ी का व्यवहार करना पड़ता है?’
सूचना प्रोद्यौगिकी के युग में हाथ में फोन हो तो प्रश्नों के उत्तर भी सामान्यतः मिल ही जाते हैं. चंद मिनटों में मुझे करम्मर ग्राम के वर्तमान सरपंच श्री आत्मा यादव का नंबर मिल गया. यादव जी ने फोन उठाया तो मैंने अपना परिचय देकर बताया कि 35 वर्ष पहले मैं उनके पंचायत भवन में ठहरा था और जानना चाहता था कि पंचायत भवन की पहली मंज़िल पर जाने के लिए पक्की सीढ़ी, जो पहले नहीं थी, अब बनी है या नहीं.
ज़रा सोचिए, फोन पर अकस्मात् अगर कोई आपसे इस तरह का ऊटपटांग प्रश्न करे तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? परंतु सरपंच होने के नाते शायद यादव जी अटपटे सवालों के आदी थे. उन्होंने बहुत ही शालीनता से मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया. साढ़े तीन साल पूर्व जब उन्होंने सरपंच का पद ग्रहण किया था तो सीढ़ी मौजूद थी. यही नहीं, उन्हें याद था कि उनके कार्यकाल के बहुत पहले ही पक्की सीढ़ी व्यवहार में थी. यह सुनकर मुझे थोड़ी राहत हुई. देर से बनी सीढ़ी भी तो विकास के चित्र का एक हिस्सा है.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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