नई दिल्ली: लौंडा नाच अरसे से चली आ रही एक ऐसी विधा है जहां स्वभाव में थोड़ा स्त्रैण होते लड़के औरत का वेश धारण कर नृत्य करते आए हैं. यह नृत्य भोजपुरी क्षेत्र में काफी लोकप्रिय है.
हालिया दिनों में लौंडा बनने के पारंपरिक तरीके में काफ़ी बदलाव आया है. सबसे बड़ा बदलाव यह है कि पुरुष नर्तक, लौंडा रूप को स्त्रैण और उभयलिंगी छवि के अनुरूप गढ़ने के लिए शल्य चिकित्सा और फीमेल हॉर्मोन इंजेक्शन का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं.
गाजीपुर के संदीप गुप्ता बलिया में लौंडा नाच करते हैं. वह शादी का सीजन शुरू होने से पहले अपने लौंडा साथियों के साथ दिल्ली के कापसहेड़ा बॉर्डर आते हैं और वहां किसी प्राइवेट क्लीनिक में लेज़र हेयर रिमूवल चिकित्सा करवाते हैं. इससे एक महीने तक उनके चेहरे और शरीर पर बाल नहीं उगते. लौंडा समुदाय में फेशियल फेमिनाइजेशन थेरेपी द्वारा पुरुष चेहरे को स्त्री सरीखा गढ़ने का भी चलन बढ़ा है.
दूसरा परिवर्तन यह है कि पिछले दिनों भोजपुरी नाच संस्कृति में किन्नरों की भागीदारी बढ़ गयी है, जिससे लौंडा बनने वाले लड़कों पर नाच व्यवसाय में अपनी प्रासंगिकता और वजूद बनाए रखने के लिए किन्नर जैसा दिखने का दबाव होने लगा है. इस दबाव के कारण वे अपने शरीर और रूप छवि को किन्नर सरीखा दिखाने के लिए शल्य चिकित्सा, फीमेल हॉर्मोन इंजेक्शन और थेरेपी का सहारा ले रहे हैं.
यानी, पारंपरिक लौंडा नर्तक अब दो भिन्न कारणों से सर्जरी और हॉर्मोन थेरेपी का सहारा ले रहे हैं.
तेरह वर्षों तक लौंडा नाच करने वाले बलिया के कमल सिंह (बदला हुआ नाम) ने बताया कि बहुत से पुरुष लौंडा अपनी छाती पर अस्थायी स्तन उगाने के लिए फीमेल हार्मोन इंजेक्शन लेते हैं. इससे उनकी छाती पर कुछ दिनों के लिए स्त्रियों जैसा स्तन उभर जाता है. मैंने जब इसकी तहकीकात की तो पता चला कि बहुत से पुरुष लौंडा स्तनवर्द्धक (ब्रेस्ट एनलार्जमेंट) चिकित्सा लेने लगे हैं.
तकनीक के ज़रिये आ रहा परिवर्तन
कुछ ऐसे भी पुरुष लौंडा हैं जिन्होंने जेंडर रीअसाइनमेंट सर्जरी के द्वारा अपना लिंग परिवर्तन ही करा लिया है. लौंडा नर्तक संदीप गुप्ता बताते हैं कि ‘लिंग परिवर्तन के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के लौंडा दिल्ली के डॉक्टर कौशिक के क्लीनिक में जाते हैं.’
मशहूर शल्य चिकित्सक डॉक्टर नरेंद्र कौशिक दिल्ली स्थित ओल्मेक नामक मेडिकल संस्थान के संस्थापक और निदेशक है. यह संस्थान ट्रांसजेंडर सेक्स चेंज सर्जरी के लिए प्रसिद्ध है. मैंने जब संदीप से पूछा कि क्या ये लौंडा लिंग परिवर्तन किसी दलाल या आपराधिक गिरोह के दबाव में करवाते हैं? किसी मानव ट्रैफिकिंग से पीड़ित तो नहीं हैं? संदीप ने इससे साफ इनकार करते हुए बताया कि ‘जिस लौंडा पुरुष को सदैव नाच के पेशा में रहना है तथा जिसकी सेक्सुअल दिलचस्पी स्त्री में नहीं है वे ही लिंग परिवर्तन करवाते हैं.’
संदीप की उपरोक्त बातों की पुष्टि बलिया के जनुवान गांव के लौंडा नर्तक अभिषेक से होती है. अभिषेक अब शल्य चिकित्सा के द्वारा तान्या बन चुके हैं. यानी पुरुष से स्त्री हो चुके हैं. पहले अभिषेक एक स्त्री से विवाहित थे, लेकिन लिंग परिवर्तन के पश्चात वह पुरुष से विवाह कर वह अपने पति के गांव अजमेरा (बलिया) रहती हैं. शल्य चिकित्सा के उपरांत तान्या का अपने पैतृक परिजनों और पत्नी से संबंध विच्छेद हो चुका है.
लंबे अरसे से लौंडा नाच कंपनी चलाने वाले अतरौली गांव (बलिया) के उदय शंकर राजभर ने लौंडा समुदाय के भीतर लिंग परिवर्तन की बढ़ती घटनाओं को कुछ इस तरह व्यक्त किया, ‘आज कल लिंग कटवा कर *** बनने वालों की संख्या बढ़ गई है. मर्द लौंडा रांची में जाकर अपना सिस्टम (लिंग) बदलवा लेते हैं. उनके शरीर में ऊपर से नीचे तक औरत का सिस्टम (स्तन और योनि) फिट कर दिया जा रहा है.’
गाजीपुर के लौंडा अंकित जेंडर रीअसाइनमेंट सर्जरी करा कर स्त्री बन चुके हैं और उनका नया नाम अब तमन्ना है. पहले दिन जब मैं अंकित से मिला तो वह अपने लिंग परिवर्तन की घटना से इनकार करते रहे, लेकिन दूसरी मुलाकात में मैंने उन्हें जैन महाभारत में ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा निभाने के वास्ते अपना बंध्याकरण करने वाले भीष्म की कहानी सुनाई. यह प्रसंग उनके लिए उत्प्रेरक साबित हुआ और उन्होंने मुझे शल्य चिकित्सा द्वारा अपने लिंग परिवर्तन की घटना सुनाई. पुरुष से स्त्री बनने पर उन्हें किसी तरह का अफ़सोस नहीं था.
किन्नर जैसा मान पाने की ख़्वाहिश
सर्जरी का प्रभाव लौंडा तक सीमित नहीं है. बलिया के मालीपुर बाजार में कविता और सोनी नाम की दो नर्तकी रहती हैं, जो लिंग परिवर्तन के फलस्वरूप पुरुष से स्त्री बनी हैं. उनके लिंग परिवर्तन की मूल प्रेरणा जानना चाहा, तो उन्होंने बताया कि लिंग परिवर्तन के पश्चात हम किन्नर सदृश दिखते हैं. इससे हमारे लिए अवसरों के नए द्वार खुलते हैं. किन्नरों की सांस्कृतिक मांगलिकता की वजह से उनके लिए नाच और प्रदर्शन के अवसर अधिक होते हैं.
शल्य चिकत्सा, लेज़र हेयर रिमूवल थेरेपी और फीमेल हार्मोन इंजेक्शन आदि की मदद से लौंडा पुरुषों की शारीरिक छवि और रूप आभा किन्नरों के सदृश हो जाती है. इसने किन्नर समुदाय को बेचैन कर दिया है. उनके भीतर अब यह बेचैनी उमड़ने लगी है कि उनकी शारीरिक विशिष्टता और सांस्कृतिक मांगलिकता को लौंडा विस्थापित न कर दें. परिवारों के विभिन्न शुभ अवसरों पर किन्नर बधाई नृत्य करते हैं. अब पुरुष लौंडा भी लिंग परिवर्तन करा कर बधाई नृत्य करने लगे हैं.
लोकाचार में किन्नरों के आशीर्वचन को शुभ माना जाता है. लेकिन अब लौंडा भी आर्शीवाद प्रेषित कर उपहार वसूलने के पेशे में घुस गए हैं. चंद्रवार गांव (बलिया) में एक नाच कार्यक्रम के दौरान सपना नामक किन्नर नर्तक ने अपनी प्रामाणिक अस्मिता की सार्वजनिक उद्घोषणा निम्न शब्दों में की, ‘मैं लिंग कटवाकर किन्नर नहीं बनी हूं. मैं जैविक किन्नर हूं, मुझे उपहार दो, मेरा आशीर्वाद ज्यादा मांगलिक होगा.’
इस तरह पूर्वांचल की भोजपुरी नाच संस्कृति में किन्नरों और लौंडों के बीच अपनी शारीरिक पहचान को लेकर एक होड़ पैदा हुई है. इस होड़ का एक सिरा अर्थोपार्जन से जुड़ा है, दूसरा कामेच्छा से. जो लौंडा जितना कोमल, नाजुक और स्त्रैण होगा वह पुरुष दर्शकों को उतना ही लुभाएगा.
लौंडों और किन्नरों के बीच पारस्परिक दैहिक प्रतिस्पर्धा से उपजी बेचैनी का नतीजा है कि किन्नर अपनी उभयलिंगता को प्रामाणिक साबित करने का कोई अवसर नहीं चूकते. वहीं, दूसरी तरफ बहुत से लौंडा अपनी लैंगिक पहचान सायास छुपाते हुए स्वयं को किन्नर बताते हैं, क्योंकि किन्नर पहचान से उनका व्यवसायिक मूल्य और उनके प्रति यौनाकर्षण बढ़ जाता है.
क्या दवाई और शल्य चिकित्सा का बढ़ता प्रभाव लौंडा पुरुषों की पहचान को खत्म कर उन्हें पूर्णतया औरत या किन्नर अस्मिता में रूपांतरित कर देगा?
शायद यह इतना आसान नहीं होगा. लौंडा नर्तक की अस्मिता सिर्फ नाच और आर्थिक पेशे से संबद्ध नहीं है. लौंडा एक उत्कट भाव है, यह पुरुष के मन में औरत बनने की दबी आकांक्षा का साहसिक प्रकटीकरण है. जब पुरुष देह में नारी भावना उफान मारती है, तब वह प्रस्फुटित होने के लिए एक माध्यम ढूंढती है और उसे यह माध्यम लौंडा नर्तक के रूप में मिलता है.
कुछ लौंडा नर्तकों के लिए जैविक रूप से पुरुष रहते हुए औरत बनना एक रोमांचपरक और साहसिक अनुभूति है.
लौंडा नर्तक रिंकू कुमार कहते हैं कि वह अपने स्त्री और पुरुष दोनों रूपों को समान भाव से पसंद करते हैं. वह द्विलिंगी अस्मिता में आवाजाही का अवसर खोना नहीं चाहते. वह कहते हैं, ‘अगर मैं शल्य चिकित्सा कराकर स्त्री बन गया तो द्विलिंगी अस्मिता से पैदा होने वाली चुनौतियों और आनंद दोनों से वंचित रह जाऊंगा.’
अन्य लौंडों की तरह रिंकू के भी दो रूप और दो नाम हैं. सामान्य जिंदगी के रिंकू जब नाच के दौरान लौंडा बनते हैं, उन्हें स्टेज पर रिंकी नाम से पुकारा जाता है.
इस तरह एक लौंडा नर्तक अपने नाम, वेश-विन्यास, भाव और भंगिमाओं में पुरुष, औरत और किन्नर, तीनों लैंगिक पहचानों को एक साथ जीता है.
(लेखक जेएनयू में शोधार्थी हैं.)