उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्ध की बात है, जब हम भारतीयों के लिहाज से समय इतना ‘काला’ था कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर (07 मई, 1861-07 अगस्त, 1941) को लगता था कि देश में कालरात्रि उतर आई है. और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं था कि अंग्रेजों की गुलामी लगातार ज्यादा त्रासद होती जा रही थी. इसलिए भी था कि उस वक्त की हमारी रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था ने अपना ज्यादातर तकिया ऊंच-नीच, अस्पृश्यता और बाल-विवाह जैसी मनुष्यताविरोधी विडंबनाओं पर रख छोड़ा था. इस कदर कि इन ऊंचे-ऊंचे आसनों पर विराजमान इन विडंबनाओं के पैरोकारों को इन्हें बरतने में कोई बुराई ही नजर नहीं आती थी.
इसके विपरीत इनका कोई एक भी पीड़ित उनके विरुद्ध आवाज उठा दे तो वे एकजुट होकर उस पर हमलावर हो जाते थे. इतना ही नहीं, अहमन्यतापूर्वक किसी भी तरह के प्रतिरोध की राह रोकने लगी जाते थे. तिस पर ‘गौरवशाली अतीत की पुनर्प्रतिष्ठा के नाम पर वे इससे भी ज्यादा काले समय की अगवानी के आकांक्षी थे और अपने इस मंसूबे के विरुद्ध लोगों को सचेत करने का कोई भी प्रयास उन्हें फूटी आंखों भी नहीं सुहाता था. कई बार तो उनका राष्ट्रवादी होना भी उन्हें पुनरुत्थान की इस चाह से विरतकर लोकतांत्रिक नहीं बना पाता था और वे वक्त-बेवक्त पितृसत्ता की राहों के कांटे ही बुहारते रहते थे.
स्वाभाविक ही, इसकी सबसे ज्यादा कीमत महिलाओं को चुकानी पड़ रही थी. पतियों को अपनी पत्नियों को जब भी मर्जी हो, उत्पीड़ित करने और तिरस्कारपूर्वक छोड़ या तलाक़ दे देने का ‘अधिकार’ तो था ही, ऐसे बाल-विवाहों के बंधन में बांधे रखने का ‘अधिकार’ भी था, जिसमें पीड़ित पत्नियों की कोई सहमति नहीं होती थी. किसी कारण उनके कथित या तथाकथित पति की मृत्यु हो जाए, तब तो उनकी दुरावस्था अपनी सीमाएं ही नहीं मानती थी.
ऐसे में 1864 में 22 नवंबर को यानी आज के ही दिन मुंबई (तब बॉम्बे) में जन्मी बाल विवाह पीड़िता रखमाबाई ने वयस्क होने पर अपने उस अनचाहे विवाह को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और उसके विरुद्ध अपनी पूरी शक्ति से मुखर हो उठीं तो पितृसत्ता व पुनरुत्थान के सारे पैरोकार तिलमिलाहट से भरकर उनके विरुद्ध हमलावर हो उठे. लेकिन रखमाबाई ने हार नहीं मानी, झुकने या टूटने से इनकार कर दिया और अपने संघर्ष को मंजिल तक पहुंचा कर ही मानीं.
यों शुरू हुआ संघर्ष
इस संघर्ष की शुरुआत तब हुई, जब रखमा की विधवा मां ने अपने सिर से ‘बेटी के विवाह का बोझ’ उतारने के लिए महज़ ग्यारह साल की उम्र में उन्नीस वर्ष के दादाजी भीकाजी को उनका दान (‘कन्यादान’) कर दिया. रखमा उस वक्त तो यह ‘कन्यादान’ भला क्या रोकतीं, उन्हें उसका मतलब तक मालूम नहीं था, लेकिन बाद में उन्हें इस कन्यादान के अपने आजीवन उत्पीड़न का हथियार बन जाने की आशंकाएं सताने लगीं तो उन्होंने सारी जोर-जबरदस्तियों को नकारकर पति के घर यानी ससुराल जाने से मना कर दिया.
उनके पति दादाजी भीकाजी इसके विरुद्ध अपने ‘अधिकारों’ को लेकर अदालत चले गए तो स्थिति जटिल हो गई. रखमा की इस दलील के बावजूद कि वे उनसे विवाह के वक्त उसके लिए कतई रजामंद नहीं थीं और सात फेरों के वक्त इतनी छोटी थीं कि अनजाने में उन्होंने ऐसी कोई रजामंदी दी भी हो तो उनके अबोध के कारण वह महत्वहीन थी, अदालत ने फैसला सुनाया कि या वे अपने पति के वैवाहिक अधिकार मानकर उनके घर जाएं अन्यथा उन्हें छह महीने के लिए जेल जाना होगा.
जानकारों के अनुसार, इस अदालती फैसले की जड़ में उस वक्त के वे पितृसत्ता के पोषक महिला विरोधी कानून थे, जिनका तब तक उदात्तीकरण संभव नहीं हुआ था.
दाद देनी होगी रखमाबाई के ‘दुस्साहस’ की कि इसके बावजूद वे हारीं नहीं और मजबूर होकर अपने बाल-विवाह को स्वीकार कर लेने के बजाय छह महीने जेल की सजा काट लेना बेहतर समझा.
लेकिन उनसे खार खाए बैठी रूढ़िवादी शक्तियों के निकट उनके द्वारा की गई पितृसत्ता की यह अवज्ञा इतनी गंभीर थी कि उन्हें उसकी एवज में यह कठोर सजा भी पर्याप्त नहीं लगी. इसके चलते उन्होंने न सिर्फ उनकी ओर अपनी भृकुटियां टेढ़ी किए रखीं बल्कि आसमान सिर पर उठा लिया.
पहली बार मांगा तलाक
यहां तक कि ‘लोकमान्य’ बालगंगाधर तिलक, जो उन दिनों राष्ट्रवाद के चैंपियन हुआ करते थे, रखमा द्वारा की गई इस अवज्ञा से इतने आशंकित हो गए कि अपने अख़बार ‘मरहट्टा’ (मराठा) में उसे हिंदू परंपराओं पर धब्बा तक बताने पर उतर आए. वे इतने पर ही रुक जाते तो भी गनीमत होती, लेकिन उन्होंने हृदयहीन होकर ‘रखमाबाई जैसी सारी महिलाओं से चोरनियों, व्यभिचारिणियों और हत्यारिनों जैसे सलूक की वकालत कर डाली.’
इसके बावजूद रखमा का मनोबल नहीं टूटा.
अच्छी बात यह थी कि ऐसे कठिन वक्त में पितातुल्य सखाराम अर्जुन उनका बल बने रहे. उनकी मदद से रखमा ने तलाक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया तो वहां उन्हें इंसाफ तो नहीं मिला, लेकिन वे तलाक मांगने वाली पहली भारतीय महिला बन गईं.
अदालत से निराश होने के बाद उन्होंने क्वीन विक्टोरिया को पत्र लिखकर इंसाफ की गुहार लगाई, जो रंग भी लाई. क्वीन ने दादाजी से हुई शादी खत्म करने की उनकी मांग मान ली और इस बाबत अदालत द्वारा दिए गए फ़ैसले को पलट दिया.
आगे चलकर रखमाबाई का यह संघर्ष इस रूप में रंग लाया कि गोरी सरकार ने 1891 में एज ऑफ कंसेंट एक्ट बनाकर व्यवस्था की कि बारह साल से कम उम्र की लड़कियों से यौन संबंध बनाना बलात्कार माना जाएगा और बलात्कारी द्वारा अपने बचाव के लिए उनकी सहमति की आड़ नहीं ली जा सकेगी. क्योंकि लड़कियों को ऐसी सहमति देने की पात्रता बारह साल की हो जाने पर ही हासिल होगी. इस पात्रता में इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि वे विवाहित हैं या अविवाहित.
उन दिनों के लिहाज से यह कितनी बड़ी बात थी, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि देश की महिलाओं को आज भी पतियों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों के विरुद्ध संघर्ष में सफलता नहीं मिली है, जबकि रखमाबाई का संघर्ष उन दिनों लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र तय करने का आधार भी बना था.
श्रेय से वंचित
लेकिन रखमाबाई इतने भर से ही रखमाबाई नहीं बन गईं. बाल-विवाह के अभिशाप से मुक्त होकर उन्होंने अपनी मर्जी से कोई और शादी कर घर बसाने और सुखपूर्वक जीवन गुजारने के बजाय डॉक्टरी की पढ़ाई करने की सोची. लेकिन इस मामले में भी उनका रास्ता निष्कंटक नहीं रहा.
उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वीमेन से स्नातक की पढ़ाई पूरी कर एमडी करना चाहा तो पाया कि वह संस्थान महिलाओं को एमडी ही नहीं करवाता. इसके चलते उन्हें ब्रसेल्स जाकर एमडी करनी पड़ी, जिसके बाद वे भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बन गईं. मुंबई के भीकाजी कामा अस्पताल में शुरुआती सेवाएं देने के बाद वे सूरत चली गईं और साढ़े तीन दशकों तक खुद को महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान के प्रयत्नों में झोंके रखा.
यहां यह बात भी गौरतलब है कि पुणे की जिन आनंदीबाई गोपालराव जोशी के नाम भारत की पहली महिला डॉक्टर होने का रिकॉर्ड दर्ज है, वे भी बाल-विवाह पीड़िता ही थीं. ग्यारह वर्ष की उम्र में उन्हें उनसे बीस साल बड़े गोपाल राव से ब्याह दिया गया था और चौदह वर्ष की उम्र में ही वे गर्भ धारण करने और शिशु को जन्म देने को अभिशप्त हो गई थीं. अलबत्ता, उनके पति ने उनके डाक्टर बनने की राह में रोड़े अटकाने के बजाय उसके लिए प्रोत्साहित ही किया था.
लेकिन आज के समय में रखमाबाई का जिक्र छिड़ने पर जिस एक बात को लेकर सबसे ज्यादा क्षोभ होता है, वह यह है कि महिलाओं के अधिकारों की दिशा में इतने संघर्ष के बावजूद उन्हें वह श्रेय नहीं दिया जाता, जिसकी वे पात्र हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)