नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) ने ‘मुंबई में अवैध आप्रवासियों’ (Illegal immigration) पर एक सेमिनार आयोजित करने के विश्वविद्यालय (जेएनयू) के फैसले की कड़ी निंदा की है. जेएनयूटीए ने इसे वैचारिक उद्देश्यों के लिए शैक्षणिक स्थानों का खुला दुरुपयोग बताया है.
रिपोर्ट के अनुसार, इस महीने 11 नवंबर को आयोजित सेमिनार में ‘अवैध आप्रवासन के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणामों’ का विश्लेषण किया गया था. जेएनयूटीए ने आरोप लगाया है कि यह महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रहों को पुष्ट करने का प्रयास था.
जेएनयूटीए ने सेमिनार में कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित की भागीदारी की भी आलोचना की, जो 5 नवंबर को टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) में इस संबंध में जारी एक रिपोर्ट के विमोचन कार्यक्रम में शामिल हुई थीं.
शिक्षक संघ ने इस रिपोर्ट में मुंबई में सभी प्रवासियों को ‘अवैध’ करार देने का आरोप लगाया है, जबकि तथ्य बताते हैं कि मुंबई में केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों का हैं. जेएनयूटीए ने दावा किया कि यह घटना अकादमिक स्वतंत्रता को दबाने के एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है.
देशभर के चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह मेडिको फ्रेंड सर्कल (एमएफसी) ने भी इस संबंध में बयान जारी कर इसे ‘शिक्षा की आड़ में राजनीतिक गतिविधि’ करार दिया है.
एमएफसी ने कहा, ‘महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के समय के साथ योजनाबद्ध तरह से मेल खाने वाले अनैतिक ‘अध्ययन’ की इस अधूरी और भारी पक्षपातपूर्ण अंतरिम रिपोर्ट को जारी करना एक अकादमिक अभ्यास नहीं है, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप का एक सोचा-समझा कृत्य है.’
समूह ने बयान में आगे कहा, ‘यह मतदाताओं के ध्रुवीकरण, हाशिए पर रहने वाले समुदायों को बदनाम करने और मुंबई में प्रवासियों के खिलाफ हिंसा भड़काने के लिए जानबूझकर किया गया प्रयास है. शिक्षाविदों का ऐसा आचरण शिक्षण की मूलभूत नैतिकता के साथ धोखा है. ज्ञान के प्रसार में अपनी भूमिका को विभाजनकारी विचारधाराओं का जरिया बनाकर इस ‘अध्ययन’ से जुड़े शिक्षाविदों ने शिक्षकों और शिक्षाविदों को शर्मसार कर दिया है.’
इसके अलावा एमएफसी ने बताया कि इस अध्ययन में ‘अत्यधिक अनुचित और असंगत डेटा विज़ुअलाइज़ेशन’ का इस्तेमाल किया गया है, जो दक्षिणपंथ द्वारा जनसांख्यिकीय बदलाव को लेकर फैलाए जाने वाले भय (demographic alarmism) और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का प्रमुख उदाहरण है’.
एमएफसी ने ये भी कहा कि इस अध्ययन की पद्धतिगत और नैतिक खामियां गंभीर हैं. 3,000 में से केवल 300 प्रतिभागियों के सैंपल के आधार पर यह सभी समुदायों, विशेष रूप से मुंबई में रहने वाले मुस्लिम प्रवासियों, जिन्हें बांग्लादेशी और रोहिंग्या बताया गया है, के बारे में व्यापक निष्कर्ष देता है.
एमएफसी ने आगे कहा कि कोई विश्वसनीय सबूत दिए बिना रिपोर्ट इन प्रवासियों को आतंकवाद, तस्करी और संगठित अपराध से जोड़ती है और खतरनाक स्टीरियोटाइप को बढ़ावा देती है, जो नफरत बढ़ाते हैं. यह न केवल पद्धतिगत रूप से गलत है, बल्कि कमजोर आबादी की गरिमा और अधिकारों पर भी सीधा हमला है.
उल्लेखनीय है कि इससे पहले अक्टूबर महीने में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) ने ‘अपरिहार्य परिस्थितियों’ का हवाला देते हुए अलग-अलग अवसरों पर भारत में ईरानी, फिलिस्तीनी और लेबनानी राजदूतों द्वारा संबोधित किए जाने वाले तीन सेमिनार रद्द कर दिए थे.
सेमिनार पश्चिम एशियाई देशों में चल रही हिंसा को संबोधित करने के लिए थे और विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज (एसआईएस) के तहत स्थित सेंटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज द्वारा आयोजित किए गए थे. इस कार्यक्रम को लेकर काथित तौर पर, वरिष्ठ संकाय सदस्यों ने सेमिनार के लिए चुने गए विषयों की ध्रुवीकरण प्रकृति के कारण परिसर में संभावित विरोध प्रदर्शन पर चिंता व्यक्त की थी.
इसके अलावा हरियाणा के गुरुग्राम विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान और लोक नीति विभाग (department of political science and public policy) द्वारा 12 नवंबर को एक वार्ता का आयोजन किया जाना था, जिसका एजेंडा ‘समान अधिकारों के लिए फिलिस्तीनी संघर्ष: भारत और वैश्विक प्रतिक्रिया’ से जुड़ा था. इस कार्यक्रम में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के राजनीतिक अध्ययन केंद्र की प्रतिष्ठित प्रोफेसर जोया हसन की वार्ता होनी थी, जिसे रद्द कर दिया गया था.