नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (19 नवंबर) को जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की रिहाई को लेकर प्रावधानों को लागू करने की तात्कालिकता पर ज़ोर देते हुए कहा कि कि न्याय को सिस्टम में अनसुने और अनदेखे ‘अंतिम व्यक्ति’ तक पहुंचाया जाना चाहिए.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ ने कहा कि सभी पात्र विचाराधीन कैदियों की रिहाई सुनिश्चित करना जेलों में अमानवीय स्थितियों और भीड़भाड़ को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.
अदालत ने अपने आदेश में कहा, ‘हम उस आखिरी व्यक्ति को देख रहे हैं, जिसकी आवाज़ नहीं सुनी जा सकती. यह वह व्यक्ति है, जिसे कानून का लाभ नहीं मिला है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि 500 या 5,000 अन्य कितने भी कैदियों को रिहा कर दिया गया हो, अगर एक भी पात्र व्यक्ति रिहा होने के अधिकार के बावजूद भी कैद में है.
मालूम हो कि अदालत की ये टिप्पणी भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 479 के कार्यान्वयन का जायजा लेते समय आई, जो पहली बार के अपराधियों को बिना किसी पूर्व दोषसिद्धि के उनकी अधिकतम सजा का एक तिहाई पूरा करने के बाद रिहा करने की अनुमति देती है. बीएनएसएस का यह प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की संबंधित धारा 436 ए से अधिक व्यापक है, जो ऐसी राहत को उन विचाराधीन कैदियों तक सीमित करता था, जिन्होंने अपनी अधिकतम सजा का आधा हिस्सा काट लिया है.
टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, बीएनएसएस के तहत ये प्रावधान उन अपराधों पर लागू होता है, जो जघन्य नहीं हैं और जो मृत्यु दंड या आजीवन कारावास के तहत दंडनीय नहीं हैं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से पहले आदेश दिया था कि ये प्रावधान 1 जुलाई, 2024 को बीएनएसएस के लागू होने से पहले दर्ज मामलों पर भी पूर्वव्यापी रूप से लागू होना चाहिए.
ज्ञात हो कि पीठ अपने 23 अगस्त के आदेश के अनुपालन की निगरानी कर रही है, जिसने देशभर के जेल अधिकारियों को पात्र विचाराधीन कैदियों की पहचान करने और धारा 479 के तहत रिहाई के लिए उनके आवेदनों पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया था.
इस संबंध में वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव अग्रवाल न्याय मित्र के रूप में कार्य कर रहे हैं, जो राज्यवार डेटा एकत्र करने और कार्यान्वयन में कमियों को उजागर करने में सहायक रहे हैं.
पीठ ने विचाराधीन कैदियों की पहचान और कार्रवाई की धीमी गति पर चिंता व्यक्त की और इस बात पर जोर दिया कि व्यवस्थागत देरी के कारण पात्र कैदियों को सलाखों के पीछे नहीं रहना चाहिए.
शीर्ष अदालत ने इस मामले में अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत न करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई. राज्य की अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद ने समीक्षा के लिए आने वाले राज्यों की सूची में उत्तर प्रदेश का नाम शामिल नहीं करने के बारे में गलतफहमी को इसके पीछे का कारण बताया. हालांकि, अदालत ने इसे ‘बेकार बहाना’ माना.
अदालत ने कहा, ‘यह एक बेकार बहाना है…आपके पास 75 जेल हैं और यह सबसे बड़ा राज्य है. ऐसे अन्य राज्य भी हैं जहां एक या दो जेलें हैं. आपके पास विचाराधीन कैदियों की संख्या भी सबसे अधिक होनी चाहिए. आप अपनी खचाखच भरी जेलों को खाली क्यों नहीं करते? आख़िरकार यह एक लाभकारी क़ानून है.’
इस पर गरिमा प्रसाद ने बताया कि बड़ी संख्या में जमानत आवेदनों और विचाराधीन कैदियों के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि ऐसे अनुरोधों की लंबितता उतनी अधिक नहीं है. इस पर पीठ ने कहा कि यह इस बारे में नहीं है कि 500 या 5,000 अन्य व्यक्तियों को लाभ मिला है या नहीं. हम उस अकेले व्यक्ति को देख रहे हैं जिसे पात्रता के बावजूद लाभ नहीं मिला है.
अदालत ने विचाराधीन कैदियों की पहचान और रिहाई की प्रक्रिया के संबंध में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा अपनाई जाने वाली एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का भी समर्थन किया.
अदालत ने कहा कि राज्य अधिकारियों को राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के साथ बैठना चाहिए और कार्रवाई की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए. ये सभी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामले हैं और सभी हितधारकों को मिलकर काम करना चाहिए.
गौरतलब है कि अदालत की निगरानी का महत्व भारतीय जेलों में अत्यधिक भीड़भाड़ के कारण है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया 2022 रिपोर्ट के अनुसार, जेल की आबादी में विचाराधीन कैदियों की संख्या 75% से अधिक है. 31 दिसंबर, 2022 तक 5.73 लाख कैदियों में से 4.34 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी थे.
22 अक्टूबर को अपनी पिछली सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा था कि जेल में बंद व्यक्ति लगातार उस दिन के बारे में सोचता होगा, जब वह जेल की दीवारों से बाहर आ सकेगा. ऐसे में एक विचाराधीन कैदी, जिसे बीएनएसएस की धारा 479 के तहत रिहाई मिलनी चाहिए, वो कानून के लाभकारी प्रावधान के तहत प्रभावी विचार का हकदार है. ”
अदालत ने इस बात पर भी अफसोस जताया था कि स्पष्ट दिशानिर्देशों के बावजूद पहचान की प्रक्रिया पूरी नहीं की गई. पीठ ने प्रत्येक जिले में विचाराधीन समीक्षा समितियों (यूटीआरसी) को पात्र कैदियों की पहचान करने में सक्रिय भूमिका निभाने का निर्देश दिया था. इसके अलावा जिला और राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरणों के सदस्य सचिवों से विचाराधीन कैदियों पर प्रासंगिक जानकारी को लगातार अपडेट करने के लिए पैनल अधिवक्ताओं और पैरालीगल स्वयंसेवकों को जुटाने का भी आग्रह किया था.