जयंती विशेष : नेता जी के प्रतिद्वंद्वी भर नहीं थे पट्टाभि सीतारमैया

डॉ. भोगाराजू पट्टाभि सीतारमैया ने ‘द हिस्ट्री ऑफ कांग्रेस’ नाम से कांग्रेस का इतिहास लिखा, जो प्रामाणिकता में आज भी अपना सानी नहीं रखता. आज उनकी जन्मतिथि है.

डॉ. भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया. (फोटो साभार: एक्स/@INCIndia)

सन् 1939 : जबलपुर में नर्मदा के तिलवारा घाट के पास स्थित त्रिपुरी में किसी भवन के बजाय खुले स्थान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बावनवां अधिवेशन आरंभ हुआ तो शायद ही किसी को उम्मीद रही हो कि वह इतने ऐतिहासिक महत्व का सिद्ध होगा. लेकिन हुआ कुछ ऐसा ही.

अधिवेशन के लिए महीनों पहले से चल रही तैयारियों के बीच स्वयंसेवकों ने वहां जो अस्थाई विष्णुदत्त नगर बसाया, उसमें कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई, तो किसी एक नेता के नाम पर सहमति नहीं बन पाई. इस पर 1938 में हरिपुरा में हुए अधिवेशन में निर्वाचित अध्यक्ष नेता जी सुभाषचंद्र बोस और डॉ. भोगाराजू पट्टाभि सीतारमैया के बीच मुकाबला हुआ.

इनमें सीतारमैया महात्मा गांधी द्वारा समर्थित प्रत्याशी थे और महात्मा ने उनके लिए अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी. कह दिया था कि सीतारमैया की हार उनकी खुद की यानी व्यक्तिगत हार होगी. इससे साफ था कि सीतारमैया महात्मा के कितने अजीज थे.

इसके बावजूद सीतारमैया 203 वोटों से वह चुनाव हार गए और नेता जी लगातार दूसरी बार अध्यक्ष चुन लिए गए, तो कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के कई कारणों के चलते उनके लिए अपना कार्यकाल पूरा करना संभव नहीं हो पाया और वे इस्तीफा दे कर उसके दायित्वों से मुक्त हो गए.

स्मृतियों के क्षरण और ध्वंस के इस दौर में भी, नेता जी के बहाने ही सही, देश की लोकस्मृति में पट्टाभि सीतारमैया की कम से कम इतनी जगह बची हुई है. लेकिन अफसोस कि उनके द्वारा इससे इतर की गई अनेक देशसेवाओं को इस हद तक भुला दिया गया है कि लोगों की निगाह में वे नेता जी के नाअहल व कमजोर प्रतिद्वंद्वी भर होकर रह गए हैं.

हमारी आज की युवा पीढ़ी के ज्यादातर सदस्यों को तो यह भी नहीं मालूम कि उस चुनाव में उनकी पराजय का एकमात्र कारण नेता जी की लोकप्रियता ही नहीं, बल्कि कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति से पैदा हुई समस्याएं भी थीं.

तिस पर ऐसा भी नहीं था कि नेता जी के मुकाबले उस एक हार ने उन्हें हाशिए पर ले जाकर उनके समूचे राजनीतिक जीवन का अंत कर दिया हो या उसकी कोई सार्थकता ही न रहने दी हो.

हार का कारण

दरअसल, उन दिनों देश में अंग्रेजों द्वारा अपने औपनिवेशिक हितों के संरक्षण के लिए राज्यों के पुनर्गठन का मुद्दा ज्वलंत बना हुआ था और कांग्रेस उसके बरक्स भाषा के आधार पर व अन्य क्षेत्रीय आकांक्षाओं को तुष्ट करने वाले प्रदेशों की अवधारणा को आगे बढ़ा रही थी.

सीतारमैया की मुश्किल यह थी कि वे व्यक्तिगत तौर पर भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के विरोधी थे. इस कारण जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी बने तो अनेक कांग्रेसियों को अंदेशा हो गया कि अध्यक्ष बनने के बाद उनकी चली, तो जिस अलग आंध्र के लिए उन्होंने जी-जान लगा रखी है, उसमें तेलगू बहुल जिलों के साथ तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के तमिलबहुल जिलों को भी शामिल करा देंगे.

स्वाभाविक ही इन कांग्रेसियों को सीतारमैया को वोट देकर कांग्रेस अध्यक्ष बनने देना गवारा नहीं हुआ ओर उन्होंने उन्हें हरा दिया.

यहां यह भी गौरतलब है कि आज़ादी के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन पर विचार करने संबंधी धार समिति की बहुचर्चित रिपोर्ट पर विचार करने हेतु कांग्रेस की जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और सीतारमैया की सदस्यता वाली ‘जेवीपी’ कहलाने वाली समिति बनी तो उसने भी ऐसे पुनर्गठन के खिलाफ ही मत व्यक्त किया था.

नौ साल बाद जीते

विडंबना यह कि 1939 में महात्मा गांधी के खुले समर्थन के बावजूद उनके नेता जी से हार जाने की तो आज भी बहुत चर्चा होती है, लेकिन इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि इस हार के नौ साल बाद 1948 में कांग्रेस के जयपुर में हुए अधिवेशन में सीतारमैया उसके अध्यक्ष चुन लिए गए थे.

आचार्य जेबी. कृपलानी के बाद उन्होंने इस पद का कार्यभार संभाला तो उन्हीं की प्रेरणा से कांग्रेस ने अपने लिए विश्व शांति तथा मैत्री और राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक समानता के आधार पर भारतीय राष्ट्र एवं जनता को प्रगति पथ पर अग्रसर करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया था.

जानकारों के अनुसार 24 नवम्बर, 1880 (कुछ दस्तावेजों के अनुसार 1888) को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के कृष्णा जिले में (जिसे अब आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के रूप में जाना जाता है और जिसका मुख्यालय एलुरु में है) गुंडुगोलानु में जन्मे सीतारमैया बचपन से ही सौम्य और प्रतिभाशाली थे.

डाॅक्टर बनने के लिए एमबीबीएस करने के बाद उन्होंने मछलीपट्टनम में अपना क्लीनिक भी खोल लिया था, लेकिन महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1920 में असहयोग आंदोलन आरंभ किया तो उसे छोड़कर आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े. यों, उनकी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियताएं इससे पहले ऐतिहासिक बंग-भंग के वक्त से ही आरंभ हो गई थीं. उन्होंने 1919 से ही ‘जन्मभूमि’ नामक राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत अंग्रेजी साप्ताहिक निकालना शुरू कर दिया था, जो 1930 तक प्रकाशित होता रहा था .

महात्मा गांधी के सान्निध्य में आने से पहले वे कांग्रेस के बहुचर्चित ‘लाल-बाल-पाल’ यानी लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल के प्रशंसक व उग्र विचारों के हिमायती थे. फिर वे श्रीमती एनी बेसेंट की होमरूल लीग के सदस्य बने और अंततः गांधीवादी हो गए.

1930 में अपने क्षेत्र में सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत नमक कानून तोड़ने के बाद उन्हें एक वर्ष की कैद व ग्यारह सौ रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई.
फिर भी उन्होंने अपने अध्ययन, लेखन और पत्रकारिता का सिलसिला थमने नहीं दिया. भले ही, उनकी जेल यात्राओं का सिलसिला भी नहीं थमा. 1933 में विदेशी कपड़ों की एक दुकान की पिकेटिंग को लेकर भी उन्हें छह महीने की कैद और पांच सौ रुपए के जुर्माने की सजा भुगतनी पड़ी.

व्यापक चितंन व मनन ने उन्हें जल्दी ही गांधीवाद का अनूठा व्याख्याता बना दिया. इस लिहाज से उनकी लिखी ‘गांधी ऐंड गांधीज्म’ पुस्तक को आज भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है.

कांग्रेस के इतिहास के लेखक

अनंतर, उन्होंने ‘द हिस्ट्री ऑफ कांग्रेस’ नाम से कांग्रेस का इतिहास भी लिखा, जो डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नोट के साथ प्रकाशित हुआ और प्रामाणिकता में आज भी अपना सानी नहीं रखता.

1942 के ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन में गोरों ने उन्हें पकड़ा, तो अहमदनगर के किले में नजरबंद कर निर्ममतापूर्वक तीन साल तक सारे बाहरी संपर्कों से काटे रखा. लेकिन वे कतई विचलित नहीं हुए. इस दौरान उन्होंने जो जेल डायरी लिखी, वह ‘फेदर्स ऐंड स्टोन्स’ नाम से छपकर सामने आई तो लोगों ने जाना कि अपने विचारों और संघर्षों को लेकर वे कितने दृढ़ थे. भारतीय राष्ट्रवाद और शिक्षा पर उनके अकादमिक महत्व के कामों से भी उनकी इस दृढ़ता का पता चलता है.

इतना ही नहीं, 28 नवंबर, 1923 को उन्होंने मछलीपट्टनम में आंध्र बैंक की स्थापना भी की थी, जिसके हैदराबाद स्थित मुख्यालय भवन को उनके नाम पर ‘पट्टाभि भवन’ कहा जाता है. आंध्र बीमा कंपनी और कृष्णा जिला सहकारी बैंक भी उन्हीं की संतानें हैं. उन्हें अलग आंध्र के गठन के उनके संघर्ष के लिए भी जाना जाता है.

1916 में लखनऊ में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने आंध्र के लिए अलग कांग्रेस मंडल की मांग की तो महात्मा गांधी तक उनके विरुद्ध थे. लेकिन 1918 में बाल गंगाधर तिलक के समर्थन से आंध्र की अलग कांग्रेस समिति बनी और 1937 में सीतारमैया को उसका अध्यक्ष बनाया गया था.

देश के स्वतंत्र होने पर उन्होंने संविधान सभा और राज्यसभा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था. 1952 में उन्हें मध्य प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया था और 1956 में उसके पुनर्गठन के बाद भी वे इस पद पर बने रहे थे.