पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना ज़िले में 1990 में मेरे ज़िला प्रशिक्षण के आरंभ होते ही मैंने जाना कि प्रदेश का अभिनंदन एक सीधा ‘नमस्कार’ है जो कि आम तौर पर अपरिचित व्यक्तियों के लिए तथा औपचारिक संदर्भों में परिचितों के लिए व्यवहार किया जाता है. परंतु इसमें परिचय और सद्भाव की ख़ुशबू तभी मिलती है जब इसके साथ एक मैत्रीपूर्ण प्रश्न जोड़ा जाए- ‘आपनी केमोन आचेन (आप कैसे हैं?). इसका उत्तर आम तौर पर ‘भालो आची (भली- भांति हूं)’ से दिया जाता है.
लेकिन कई बार इस सवाल का जवाब पूछे गए व्यक्ति के स्वास्थ के गंभीर मुद्दों, उनकी रंग-भरी बारीकियों और सजीव विश्लेषण के साथ विस्तारित रूप से भी आपको प्रस्तुत किया जा सकता है. यह बात मैं बंगाल में आने के छह-आठ महीने बाद ही समझ पाया.
मेरे उत्तर 24 परगना पहुँचने के ठीक तीन सौ साल पहले, यानी 1690 में जब जोब चार्नक ने हुगली नदी के पूर्वी किनारे पर एक बरगद के पेड़ के नीचे दूसरी बार ईस्ट इंडिया कंपनी की दुकान सजाने का निर्णय लिया तो उसे नहीं पता था कि वह इस प्रदेश के शायद सर्वाधिक अस्वास्थ्यकर स्थान में खेमा गाड़ रहा है. चार्नक ने सुतानुति गांव में अपने लिए जो जगह चुनी थी वह आगे चलकर कलिकाता और गोबिन्दपुर नामक दो गांवों के साथ मिलकर कोलकाता शहर में परिवर्तित हुई.
नदी के ऊंचे किनारे से ज़मीन ढलती हुई पूर्वी दिशा में खारे जल के दलदलों में और दक्षिणी दिशा की ओर ढलती हुई सुंदरबन के जंगलों में मिल जाती थी. इस इलाक़े में छोटी बड़ी नदियों और छिछले जलाशयों की बहुतायत तो थी ही, साल में लगभग चार महीने बरसात भी छाई रहती थी. इस वातावरण में छोटे-बड़े ख़तरनाक जन्तुओं की संख्या, सांप से लेकर बाघ तक, बढ़ती जाती थी, किंतु बड़े जानवरों के मुक़ाबले छोटे जीव, दृश्य और अदृश्य, दोनों ही कहीं अधिक भयावह थे. विशेष रूप से बरसात के महीनों में मक्खी-मच्छर तथा अणुजीवों के प्रकोप से अनजाने ही प्रतिवर्ष शत-शत लोग मौत का ग्रास बन जाते थे.
सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल में पायी जाने वाली कुछ आम बीमारियां थीं मलेरिया, इन्फ्लुएंजा, हैज़ा, टीबी, चेचक, प्लेग और कालाज़ार. इनमें से हैज़ा, चेचक और प्लेग जैसी बीमारियां, जो जनसंख्या की घनत्व और सफ़ाई व्यवस्था की दुर्बलता के कारण फैलती हैं, समय-समय पर महामारी का रुद्र रूप ले कर आती थीं. डायरिया तो पूरे साल लोगों, विशेष रूप से अंग्रेजों, के साथ कदम मिलाकर चलता था तथा बहुतों को अपने चपेट में ले लेता था.
मलेरिया और इन्फ्लुएंजा जैसी व्याधियां हर वर्ष ऋतुओं के साथ आती थीं और अपने साथ हर वर्ष बड़ी संख्या में गोरे व्यवसायियों को ले जाती थीं. कंपनी बहादुर के अंग्रेज कारिंदों में शीघ्र ही यह बात प्रचलित हो गई कि यहां की हवा स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं है. परंतु जैसा कबीर ने कहा है,
कबीर माया मोहनी, मोहे जांण सुजांण।
भागां ही छूटै नहीं, भरि भरि मारै बांण॥
इसलिए हिंदुस्तान की विख्यात धन-दौलत के मोह के तीरों से जो अंग्रेज न बच पाए, वे हर जोखिम के लिए प्रस्तुत रहते थे.
सौ-दो सौ साल पूर्व भी बरसात का मौसम भारत की आम जनता के लिए आशा का मौसम था, ख़ुशहाली का सूचक था. लेकिन अंग्रेज व्यवसायियों के लिए सबसे अधिक त्रास का काल हुआ करता था- जून से सितंबर. इस दौरान सावधानी के बावजूद विपुल संख्या में अंग्रेज धन-संपत्ति की लालसा से मुक्ति प्राप्त कर परलोक सिधार जाते थे. साल दर साल, दशकों तक चलती इस स्थिति ने एक रीति को जन्म दिया.
चार माह की वर्षा और गर्मी के बाद कलकत्ता में आगत विदेशी आने वाले सुखद ठंडे मौसम के स्वागत में जुट जाते थे. उमस भरी ग्रीष्म और बरसात से राहत मिलते ही वह मेल-मिलन, ख़ान-पान, जलसा और नाटक की तैयारी में लग जाते थे. हर साल अक्तूबर के महीने में कलकत्ता के गवर्नमेंट हाउस में शानदार रात्रि-भोज का आयोजन किया जाता था जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल गोरे अधिकारियों के साथ अन्य अंग्रेज व्यापारियों तथा वरिष्ठ पेशेवर लोगों को आमंत्रित किया करते थे.
यह अनुष्ठान कलकत्ता में अंग्रेजों के सामाजिक पुनर्गठन का अवसर होता था. परंतु इस उल्लास की संध्या और वृहत भोज के आयोजन के द्वारा जो बात स्पष्ट हो जाती थी, वह यह कि कितने अंग्रेज-अधिकारी, व्यापारी इत्यादि मौसमी बीमारियों के चुंगल से एक नए वर्ष को देखने के लिए बच कर निकल पाए हैं. हां, इसका हिसाब रखना ज़रूरी नहीं समझा जाता था कि बंगाल के कितने मूल निवासी इस दौरान इन्हीं रोगों के शिकार हो गए हैं.
यह सच है कि कलकत्ता के आसपास के पर्यावरण में अब भी कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ है. गर्मी कुछ बढ़ ही गई है, उमस का साया यदा कदा ही हटता है, परंतु मेघ अब भी तीन-चार महीने तक भिन्न गति से बरसते रहते हैं. बस आजकल कलकत्ता के गुलाबी शीत काल पर कभी-कभी वायुमंडलीय प्रदूषण की हल्की कालिमा की परत चढ़ती-उतरती रहती है.
चेचक, हैज़ा और प्लेग जैसे महामारी अब नहीं हैं. मलेरिया जैसे रोगों की व्यापकता भी कम हुई है और उनसे मरने वालों की संख्या भी. कलकत्ता में उच्चतम स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं. आंकड़े बताते हैं कि जन स्वास्थ्य के मामले में देश के बड़े राज्यों में पश्चिम बंगाल का स्थान देश के पहले चार में है. लेकिन जहां अनेक जानलेवा रोग ख़त्म हो चुके हैं, कुछ और बीमारियां सामने आ गई हैं. इस श्रेणी में जीवनशैली से जुड़े रोग सबसे आगे हैं, जैसे रक्तचाप और मधुमेह.
इस पृष्ठभूमि में आपको अचरज न होगा कि बंगालियों में अपने स्वास्थ्य के प्रति एक उत्कट सजगता है.
ऐसा भी कहा जा सकता है कि बंगालियों की रुचि जैसे ख़ान-पान में है उसी टक्कर की रुचि दवा-दारू में है. अगर किसी को मधुमेह की समस्या है तो मान कर चलिए कि इस विषय पर उसने पीएचडी स्तर की गवेषणा कर रखी है तथा वह आपको बता सकता है कि आपके किस बीमारी में एलोपैथी, होम्योपैथी, बायोकेमिक, आयुर्वेद, नेचुरोपैथी तथा घरेलू नुस्ख़ों में कौन सबसे कार्यकर सिद्ध होगा.
महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें अपनी बीमारी के बारे में बात करने तथा औरों से साझा करने में भी किसी तरह की झिझक नहीं होती. साथ ही अपनी बीमारी को साझा करते हुए वह सामान्यतः कुछ और भी बता देते हैं. जैसा कि, अगर आप किसी व्यक्ति से तीसरी बार मिलते हैं और अगर वह आपको अपने मर्ज़ और उनकी दवाएं गिनवा दे तो अचंभित न हों, जानिए कि आपने उनका विश्वास अर्जित कर लिया है.
अगर आप किसी बैठक या अनुष्ठान में चाय पेश करने वाले से यह पूछ बैठें कि बिना चीनी की चाय मिल सकती है क्या, और आपके पास वाले सज्जन आपसे मुस्कुराते हुआ पूछें, ‘आच्छा , आपनार शुगार आचे? (अच्छा तो आपको डायबिटीज़ है?)’ तो मानिए कि वह आपके हितैषी हैं. अगर कोई अपने मातहत किसी व्यक्ति पर चीखने-चिल्लाने के बाद बैठ जाए और कहे, ‘आमार प्रेशर बेढे गेचे (मेरा प्रेशर बढ़ गया है)’ तो समझिए कि वह रक्तचाप के मरीज़ हैं तथा कह रहे हैं अभी वह आपसे बात नहीं कर पाएंगे.
स्वास्थ्य के प्रति सजगता ही कारण है ‘नमस्कार’ के संग ‘केमोन आचेन’ के जुड़ने का. शिष्टता की मांग है कि आप अपने स्वास्थ्य के साथ औरों के स्वास्थ्य में भी रुचि रखें, ज्ञान ग्रहण करें और बांटें. पश्चिम बंगाल के वासी इस दायित्व को बखूबी निभाना जानते हैं और आम तौर पर मेरा दृष्टिकोण भी औरों के स्वास्थ्य के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रहता है.
समस्या बस एक स्थिति में होती है, जब आप जल्दी में किसी विशेष काम के लिए कहीं जा रहे हों, रास्ते में किसी से भेंट हो जाए, और आपके ‘केमोन आचेन’ के उत्तर में वह अपने वर्तमान व्याधियों का विस्तृत वर्णन आरंभ कर दे. अगर किसी को गले का इंफेक्शन है, और वह बताते-बताते मुंह फाड़कर कंठनली का दर्शन करवाने लगे या अगर किसी के पेट का ऑपरेशन हुआ हो और वह अपनी शर्ट ऊपर उठाकर पेट में पड़े चीरे के दाग को दिखाने लगे. किसी का हृदय रोग का उपचार चल रहा हो और वह आपको अपने दवाई का पर्चा पढ़वाने लगे.
सबसे भयंकर स्थिति तब होती है जब किसी सज्जन का पेट ख़राब हो गया हो और वह विस्तार से उसके हर पक्ष का विवरण देने लगें. जब से लगातार दो बार मुझे दो अलग-अलग लोगों के पेट की गाथा सुननी पड़ी, तब से मैंने ‘नमस्कार’ के साथ ‘केमोन आचेन’ बोलना छोड़ दिया.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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