नई दिल्ली: मिड डे मील योजना में रसोइए और सहायक (Cooks-Cum-Helpers) के रूप में काम करने वालों के लिए 2009 में जो 1,000 रुपये प्रति माह का मानदेय निर्धारित किया गया था, वह आज तक नहीं बढ़ा है. ऐसे दस राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं, जिन्होंने 2009 से मानदेय नहीं बढ़ाया है.
अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग वेतन
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, मिड डे मील योजना के अंतर्गत काम करने वाले रसोइयों का वेतन विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है. उन्हें मिलने वाली राशि इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य सरकार इसे कितनी बढ़ाती है. उदाहरण के लिए, केरल 12,000 रुपये देता है, लेकिन दिल्ली, गोवा और कई पूर्वोत्तर राज्यों में यह राशि 1,000 रुपये ही है.
24 नवंबर, 2024 को संसद में दिए गए जवाब के आधार पर, विभिन्न राज्यों में रसोइयों को मिलने वाला मासिक मानदेय निम्नलिखित है:
केरल: ₹12,000
पुडुचेरी: ₹10,000
तमिलनाडु: ₹4,100 – ₹12,500
हरियाणा: ₹7,000
दमन और दीव: ₹4,408
कर्नाटका: ₹3,700
हिमाचल प्रदेश: ₹3,500
चंडीगढ़: ₹3,300
आंध्र प्रदेश, पंजाब, तेलंगाना, उत्तराखंड: ₹3,000
गुजरात, त्रिपुरा: ₹2,500
अरुणाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश: ₹2,000
राजस्थान: ₹1,742
बिहार: ₹1,650
असम, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मिजोरम, पश्चिम बंगाल: ₹1,500
ओडिशा: ₹1,400
अन्य सभी राज्य: ₹1,000
इस रिपोर्ट के अनुसार, रसोइयों को मिलने वाला मानदेय अधिकांश राज्यों में बहुत कम है, जो उनकी मेहनत और जिम्मेदारियों के मुकाबले अपर्याप्त प्रतीत होती है.
केंद्र का कितना योगदान होता है?
1,000 रुपये के मानदेय का खर्च केंद्र और राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों के बीच एक तय पैटर्न के अनुसार बंटता है. उदाहरण के लिए, उत्तर-पूर्वी राज्यों, हिमालयी राज्यों (उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश) और जम्मू-कश्मीर में केंद्र 90% देता है, जबकि अन्य राज्यों और दिल्ली, पुडुचेरी में यह 60:40 के अनुपात में बंटता है. इस हिसाब से केंद्र अधिकांश राज्यों में हर रसोइए-सहायक के मानदेय में 600 रुपये का ही योगदान करता है.
पिछले दिनों कई राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश से सैकड़ों रसोइयों-सहायक ने जंतर मंतर (दिल्ली) पर मिड डे मील वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के बैनर तले प्रदर्शन किया था. वे अपनी मजदूरी में वृद्धि, स्थायी नौकरी, सामाजिक सुरक्षा लाभ, और योजना को कक्षा 12 तक के सभी बच्चों तक बढ़ाने की मांग कर रहे थे. साथ ही, वे योजना के निजीकरण का विरोध कर रहे थे.
न्यूनतम मजदूरी भी क्यों नहीं मिल रही?
मुद्रास्फीति यानी महंगाई को ध्यान में रखें तो 15 साल पहले जो 1,000 रुपये मिलता था, उसकी वैल्यू अब 540 रुपये के बराबर है.
1,000 रुपये का मानदेय प्रतिदिन 33 रुपये बनता है. ज़ाहिर है यह राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी से कम है. राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी 5,340 रुपये प्रति माह है, यानी लगभग 178 प्रति दिन. लेकिन सरकार के पास इससे पल्ला झाड़ने का तरीका है.
सरकारी स्कूलों में रसोइए और सहायक का काम करने वाले इन लोगों को सरकार वर्कर यानी श्रमिक मानती है. सरकार का कहना है कि ये ‘मानद श्रमिक (Honorary workers)’ है, जो सामाजिक सेवा के लिए आगे आए हैं. जबकि ख़बरों से पता चलता है कि यह सच नहीं है, स्कूलों में बतौर रसोइया काम करने वाले लोग सिर्फ समाज सेवा के लिए नहीं बल्कि अपना घर और पेट चलाने के लिए काम करते हैं.
रसोइयों की कार्य-शर्तें भी बहुत कठिन हैं. इनकी जिम्मेदारी केवल खाना पकाने तक सीमित नहीं है, बल्कि उन्हें खाना परोसने, बर्तन धोने, शिक्षकों के लिए चाय बनाने और सफाई जैसे कई अन्य काम भी करने पड़ते हैं. इन कामों को न करने पर नौकरी से निकलने की धमकी मिलती है. इस सबके बावजूद, उन्हें मिले वेतन में कोई वृद्धि नहीं की गई है, जिससे उनके जीवन स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.
इस बीच सांसदों की सैलरी कितनी बढ़ी?
मिड-डे-मील योजना के तहत काम करने वाले रसोइए-सहायक का वेतन भले ही 15 साल में न बढ़ा हो लेकिन सांसदों का वेतन गत 12 साल में तीन बार बढ़ा है. अब उनकी सैलरी एक लाख रुपये से अधिक है. वहीं, सरकारी कर्मचारियों के न्यूनतम वेतन में भी वृद्धि हुई है.
2008 में छठे वेतन आयोग के तहत यह 2,550 रुपये से बढ़कर 7,000 रुपये हुआ और फिर 2015 में सातवें वेतन आयोग के तहत यह 18,000 रुपये हो गया.
हालांकि, सरकार मिड-डे-मील योजना के तहत काम करने वाले रसोइए-सहायक के काम को पार्ट-टाइम मानती है, जबकि असले में वे आठ घंटे या उससे भी अधिक काम करते हैं.