अवध में अब्दुर्रहीम खानखाना (साझा संस्कृति के पैरोकार मुगलकालीन हिंदी कवि, जो आम तौर पर रहीम के नाम से जाने जाते हैं) का एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है: बसि कुसंग चाहत कुसल यह रहीम जिय सोस, महिमा घटी समुद्र की रावन बस्यो परोस.
जब भी कोई किशोर या युवक कुसंग में पड़कर ‘बिगड़ने’ लगता है, बड़े-बूढ़े उसे ‘बरजने’ के लिए यह दोहा जरूर सुनाते हैं. लेकिन विडंबना देखिए कि अयोध्या के उत्तर से बहने वाली सरयू के दूसरी तरफ स्थित बस्ती की ‘महिमा’ अयोध्या का पड़ोसी होने के बावजूद घटी ही है. इस कदर कि कई लोग उसे अयोध्या की छाया या पासंग भर भी नहीं मानते.
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चन्द्र 1871 के आस-पास किसी रामनवमी के अवसर पर बस्ती पहुंचे, तो उन्हें उसका हाल बस्ती कहने लायक भी नहीं लगा. उन्होंने वहां से लौटकर अपनी पत्रिका ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’ में ‘सरयूपार की यात्रा’ शीर्षक निबंध लिखा, तो यह तक पूछ लिया कि उसे ‘बस्ती कहें तो उजाड़ किसे कहें. साथ ही चिंंतित हो उठे कि ‘नई सभ्यता अभी तक इधर नहीं आई है.’
उन्हीं के शब्दों में कहें तो : वाह रे बस्ती! झख मारने को बसती है. अगर बस्ती इसी को कहते हैं तो उजाड़ किसको कहेंगे? पुरानी बस्ती खाई के बीच बसी है. राजा (तक) के महल बनारस के अर्दली बाजार के किसी मकान से उमदा नहीं.
उन्होंने जिले की नदियों व झीलों के नाम गिनाते हुए वहां के निवासियों को होने वाली घेंघा की बीमारी को लेकर भी सहानुभूति दर्शाने के बजाय मजाक ही उड़ाया : पानी यहां का बड़ा बातुल है. अक्सर लोगों का गला फूल जाता है, आदमी ही का नहीं कुत्ते और सुग्गे का भी. शायद गलाफूल कबूतर यहीं से निकले हैं.
अनंतर उन्होंने बस्ती के एकमात्र महाजन व ठाकुरद्वारे की भी खिल्ली ही उड़ाई थी. हरैया बाजार में बिकने वाली मिठाइयों की ‘क्वालिटी’ (बकौल उनके: जिसके चलते उन्हें चने खाकर रहना पड़ा था) की ‘तारीफ’ उन्होंने इन शब्दों में की थी: बालूशाही सचमुच बालूशाही. भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए. लड्डू भूर के, बर्फी अहा हा हा! गुड़ से भी बुरी.
अयोध्या भी नहीं सुहाई
इस सिलसिले में संतोष की बात इतनी ही है कि उनको बस्ती तो बस्ती, वह अयोध्या भी अच्छी नहीं लगी थी, जहां श्रीरामनवमी की रात काटकर उन्होंने खुद को धन्य माना था. उसका रामनवमी का भीड़-भाड़ वाला मेला भी उन्हें दरिद्र, मैले और बड़े ही कंगली टर्रे लोगों का मेला लगा था. और मेले में आई स्त्रियां?
वे लिखते हैं: रूप कुछ ऐसा नहीं, पर नेत्र नचाने में बड़ी चतुर. यहां के पुरुषों की रसिकता मोटी चाल, सुरती और खड़ी मोछ में छिपी है और स्त्रियों की रसिकता मैले वस्त्र और सूप ऐसे नथ में…. (स्त्रियों का) गाना भी मोटी-सी रसिकता का.
इसके बाद एक मर्मांतक व्यंग्य करते हुए उन्होंने हाहाकार से कराहते हुए लिखा है: हा! यह वही अयोध्या है जो भारतवर्ष में सब से पहले राजधानी बनाई गई. इसी में महाराजा इक्ष्वाकु वंश मांधाता, हरिश्चंद्र, दिलीप, अज, रघु व श्रीरामचंद्र हुए हैं और इसी के राजवंश के चरित्र में बड़े-बड़े कवियों ने अपनी बुद्धि शक्ति की परिचालना की है. संसार में इसी अयोध्या का प्रताप किसी दिन व्याप्त था और सारे संसार के राजा लोग इसी अयोध्या की कृपाण से किसी दिन दबते थे. वही अयोध्या अब देखी नहीं जाती. जहां देखिए मुसलमानों की कब्रें दिखलाई पड़ती हैं.
क्या पता, हिंदी का पहला यात्रा वृत्तांत बताए जाने वाले उनके इस लेख की नकारात्मक टिप्पणियों का असर है या किसी और कारण, अब बस्ती के निवासियों के लिए खासी अपमानजनक कई अन्य कहावतें भी कही जाती हैं. जैसे बस्ती में नई सभ्यता की राह उसके सत्ताधीशों के बजाय निरीह निवासियों ने ही रोक रखी हो.
ऐसे में दुखी ही हुआ जा सकता है कि ‘सरयूपार की यात्रा’ में भारतेंदु अपनी यात्रा की दुश्वारियों के बीच किसी चाक्चिक्य की तलाश में ही उलझे रह गए और नहीं देख पाए कि इतनी दुश्वारियों के बीच भी बस्ती के निवासियों ने न जीवन के प्रति अपने उत्साह को मंद पड़ने दिया है, न कर्तव्यपालन के प्रति लापरवाह हुए है.
भारतेंदु को शौक-ए-दीदार होता और वे उसके अनुरूप निगाह पैदा कर पाते, तो कम से कम इतना तो देखते ही कि बस्ती के पास और कुछ हो न हो, संत कबीर का इतिहासप्रसिद्ध मगहर तो है ही, जिसे काशी पर तरजीह देते हुए उन्होंने अपने प्राणत्याग के लिए चुना था. यह कहते हुए कि जौ काशी तन तजै कबीरा तौ रामै कोन निहोरा रे!
1865 में जिला बने बस्ती से मगहर 1997 में तब छिना, जब उसका विभाजन कर संतकबीरनगर नाम से नया जिला बनाया गया. सिद्धार्थनगर जिला भी एक समय उसका ही हिस्सा हुआ करता था और तब वह क्षेत्रफल के लिहाज से उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला हुआ करता था.
ग्रामीणों ने पांच गोरे लेफ्टिनेंट मारे
यहां एक और बात गौरतलब है. भारतेंदु की यात्रा के वक्त 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम हो चुका था और बस्ती के वीरों ने उसमें जैसी बहादुरी दिखाई थी, वह किसी भी देशप्रेमी के लिए गर्व का वायस हो सकती और बस्ती को वीरों की बस्ती की संज्ञा दिलाने के लिए पर्याप्त थी.
1857 में दस जून को अवध के फैजाबाद (अब अयोध्या) जिले से दानापुर (बिहार) जा रही ब्रिटिश सेना बस्ती में मनोरमा नदी के तट पर बसे कोई पांच हजार की आबादी वाले बुनकरबहुल महुआडाबर गांव के निकट पहुंची तो बागी ग्रामीणों ने आव देखा न ताव, उसे घेरकर उस पर हमला बोल दिया था. ऐसा विकट हमला, जिसमें न सिर्फ ब्रिटिश सेना को उलटे पांव लौटने को मजबूर होना पड़ा, बल्कि उसके पांच लेफ्टिनेंट क्रमशः लिंडसे, थामस, इंग्लिश, रिची व काकल के साथ सार्जेंट एडवर्ड की जानें भी चली गईं.
आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित उस नियमित सेना के लिए यह डूब मरने जैसी बात थी कि वह ग्रामीणों के लाठियों, भालों व बर्छियों जैसे पारंपरिक हथियारों से भी पार नहीं पा सकी और बिखर गई.
उसका सार्जेंट बुशर जैसे-तैसे जान बचाकर भागा और नजदीक के सैन्य शिविर में जाकर वरिष्ठ अधिकारियों को वस्तुस्थिति की जानकारी दी. लेकिन गोरे सैन्य अधिकारियों ने, संभवतः रणनीति के तौर पर और कुमुक के साथ उक्त गांव पर फौरन धावा बोलने से परहेज रखा. दस दिनों के इंतजार के बाद 20 जून को, जब उन्होंने समझा कि अब ग्रामीण असावधान हो चुके होंगे, डिप्टी मजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे के नेतृत्व में घुड़सवार सैनिकों से घिरवाकर समूचे गांव में आग लगवा दी.
इस अग्निकांड में कितने ग्रामीणों की बलि चढ़ी, कितनी माताओं की गोद सूनी हुई, कितने बच्चे यतीम हुए और कितने सुहाग उजड़ गए, इतिहास की पुस्तकों में इसकी कोई तफसील दर्ज नहीं है. अलबत्ता, ये पुस्तकें बताती हैं कि ब्रिटिश सेना ने गांव के जले हुए मकानों, मस्जिदों व हथकरघों को सायास जमींदोज कर डाला और उसके बाहर एक बोर्ड लगाकर उस पर लिखा दिया-‘बेचिरागी’.
इतना ही नहीं, ब्रिटिश सेना लौटी तो वह पड़ोसी गांव के पांच निवासियों- गुलाम खान, गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान व बदलू खान को अपने साथ ले गई और महुआडाबर के ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में मुकदमे चलाकर 18 फरवरी, 1858 को उन्हें फांसी दे दी.
गोरों की प्रतिहिंसा इतने से भी संतुष्ट नहीं हुई तो उन्होंने सरकारी नक्शों व रिपोर्टों से महुआडाबर का नाम तक मिटा दिया. इसीलिए आज की तारीख में किसी गजेटियर में भी उसका जिक्र नहीं मिलता. हां, बाद में उन्होंने इस गांव से पचास किलोमीटर दूर बस्ती और गोंडा जिलों की सीमा पर गौर ब्लाॅक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसाया.
बस्ती का गर्व
बस्ती जिले के मुख्यालय से 41 किलोमीटर दूर स्थित अमोढ़ा को 1857 में प्रदर्शित बहादुरी के लिए उसका गर्व कहा जाता है. अमोढ़ा यानी राजा जालिम सिंह की रियासत, जो अपने नाम के विपरीत कतई जालिम नहीं थे. 1853 में उनका निःसंतान निधन हो गया और रानी तलाशकुवंरि ने राजगद्दी संभाली तो अन्यत्र 1857 के बगावत के शोले बुझ जाने कर भी अंग्रेजों की अधीनता या पराजय स्वीकार करना गवारा नहीं किया, जबकि गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी की कुख्यात ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ के सीधे निशाने पर थीं. उन्होंने न सिर्फ झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह मर्दाना वेश में लड़कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए बल्कि सैन्यव्यूह रचना में अपनी सिद्धहस्तता भी प्रमाणित की.
पखेरवा के पास हुए निर्णायक मुकाबले में उनका घोड़ा घायल होकर मर गया और पराजय सामने आ खड़ी हुई तो भी किंचित घबराए बिना उन्होंने अपने सैनिकों से कहा, ‘अंग्रेज मुझे हर हाल में जिंदा या मुर्दा पकड़ना चाहते हैं…लेकिन मैंने भी तय कर लिया है….इसकी नौबत आई तो अपनी ही कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दूंगी….आप लोग उसके बाद भी जंग जारी रखना और मेरी लाश उनके हाथ न पड़ने देना.’
2 मार्च, 1858 को बुरी तरह घिर जाने पर रानी ने जो कहा था, कर दिखाया. अपनी ही कटार खुद को मार ली. उनके वफादार सैनिकों ने जान पर खेलकर उनकी लाश अंग्रेजों के हाथ न पड़ने देने का वायदा निभाया.
गोरे जनरल की कटार उसी को भोंकी
बगावत उसके बाद भी जारी रही. बागियों द्वारा क्षेत्र की नदियों में ठप करा दिया गया जल परिवहन बहाल करने के लिए अंग्रेजों ने नौसेना तैनात की और पास के एक गांव में छावनी बनाईं तो रामगढ़ गांव में मुकाबले की नई रणनीति तय करने हेतु बागियों व राजे-रजवाड़ों की गुप्त बैठक बुलाई गई. लेकिन वह गुप्त नहीं रह सकी और गोरे जनरल हगवेड फोर्ट ने भारी लावलश्कर के साथ धावा बोलकर बागियों के नेता धर्मराज सिंह को पकड़ लिया. उसने उनके शरीर में कंटीले तार और रस्सी बंधवाई, फिर खुद घोड़े पर बैठकर रस्सी के सहारे घसीटते हुए ले जाने लगा.
लेकिन रास्ते में कमर में खुंसी उसकी कटार छूटकर नीचे गिर गई, तो घोड़ा रोककर उस पर बैठे-बैठे ही घिसट रहे धर्मराज को हुक्म दिया-कटार उठाओ!
तब तक धर्मराज का शरीर जगह-जगह से कट-छिल गया था और वे रह-रहकर अचेत हुए जा रहे थे. लेकिन हुक्म सुनकर उनके तन-बदन में बिजली-सी कौंध गई. वे उठे, कटार उठाई और फोर्ट के सीने में भोंक-भोंककर उसको धराशायी कर दिया. उनके इस पराक्रम से दूसरा अंग्रेज सेनानायक रोक्राफ्ट अरसे तक इधर का रुख नहीं कर पाया.
अलबत्ता, बाद में अंग्रेजों ने भी धर्मराज की जान नहीं बख्शी और उनकी सेनाओं ने निर्दोष ग्रामीणों तक का भयावह दमन किया.
बताइए जरा कि इतने वीरों की बस्ती को हम उजाड़ कैसे कहें? क्यों न पड़ताल करें कि भारतेंदु ने क्यों कहा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)