नई दिल्लीः बीते महीनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बिगड़ती वायु गुणवत्ता के बीच अब लांसेट प्लैनेट हेल्थ द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आया है कि भारत में सभी लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां का वार्षिक औसतन प्रदूषण स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा अनुशंसित स्तर से ज्यादा है. डब्ल्यूएचओ के हिसाब से इसका सबसे अधिक स्तर पीएम2.5 है, जिसके कारण साल भर में 15 लाख मौतें होती हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 81.9% भारतीय उन क्षेत्रों में रह रहे हैं, जहां हवा की गुणवत्ता देश के राष्ट्रीय परिवेश वायु गुणवत्ता मानकों (एनएएक्यूएस) – 40 µg/m³ पीएम2.5 के अनुसार भी नहीं है. एनएएक्यूएस का मानक डब्ल्यूएचओ के 5µg/m³ के मुकाबले बहुत अधिक है.
अध्ययन में पाया गया है कि अगर हवा की गुणवत्ता इन मानकों पर खरी उतरती भी, तो भी वायु प्रदूषण से लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण 3 लाख मौतें होती.
पेपर के लेखकों में से एक डॉ. दोराईराज प्रभाकरन ने कहा, ‘यह रिपोर्ट वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गंभीर प्रभाव को दर्शाती है. हमें पहचान करनी होगी कि प्रदूषण किन कारणों से हो रहा है, चाहे वह निर्माण कार्य से हो, वाहनों से हो या फसलों को जलाने से हो, इनका समाधान करना होगा. प्रदूषण स्तर को नियंत्रित करने के लिए सक्रिय कदम उठाने की जरूरत है. अगर हम इसे एनएएक्यूएस स्तर तक लाने में भी सक्षम हो पाते हैं, तब इससे होने वाली मौतों की संख्या कम हो जाएगी, हालांकि अगर हम इसे डब्ल्यूएचओ के स्तर तक ले आएं, तब और ज्यादा जानें बच पाएंगी.’
उल्लेखनीय है कि वायु प्रदूषण, खासकर पीएम 2.5 न केवल श्वसन प्रणाली को प्रभावित करता है, बल्कि दिल के दौरे और स्ट्रोक के खतरे को भी बढ़ाता है. यह रक्तचाप में वृद्धि का भी कारण बनता है और बच्चों के शारीरिक व मानसिक विकास को भी प्रभावित करता है.
अध्ययन में पाया गया कि पीएम 2.5 के स्तर में प्रत्येक 10 µg/m³ की वृद्धि से किसी भी कारण से मृत्यु का जोखिम 8.6% बढ़ जाता है.
शोधकर्ताओं ने मौतों की कुल संख्या को दर्ज करने के लिए नागरिक पंजीकरण प्रणाली के डेटा का उपयोग किया, जिससे उन्होंने पाया कि 25% या 15 लाख मौतें प्रदूषण के उच्च स्तर के संपर्क में आने से हुई.
डॉ. प्रभाकरन ने कहा, ‘हमारा अनुमान ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज द्वारा अनुमानित पिछली 11 लाख मौतों से थोड़ा अधिक है. यह अंतर जनसंख्या में वृद्धि के कारण या फिर मेथोडोलॉजी में भिन्नता के कारण हो सकता है.’