नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ के नारायणपुर और बीजापुर जिलों की सीमा पर स्थित अबूझमाड़ के कुम्मम-लेकावड़ा गांवों में 11 और 12 दिसंबर को सुरक्षा बलों ने सात माओवादियों को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था. लेकिन स्थानीय लोग और आदिवासी कार्यकर्ता दावा कर रहे हैं कि उनमें से पांच माओवादी नहीं बल्कि ग्रामीण थे. इसके अलावा कम से कम चार नाबालिग ग्रामीण भी घायल हुए हैं.
उल्लेखनीय है कि ये सभी माड़िया आदिवासी समुदाय से हैं, जिन्हें सरकार ने विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) में वर्गीकृत किया है.
पुलिस ने 14 दिसंबर को जो बयान जारी किया था, उसमें इन पांच मृतकों के नाम– रैनू, सोमारू उर्फ मोटू, सोमारी, गुडसा, कमलेश उर्फ कोहला बताये गए थे. पुलिस के मुताबिक इनका पद ‘पी.एम.’ था, जिसे स्थानीय संदर्भ में माओवादी कहा जाता है. पुलिस के अनुसार इन सब पर दो-दो लाख रुपये का इनाम भी था. पुलिस का बयान कहता है कि रैनू, कोहला, सोमारू और सोमारी कुम्मम गांव से थे और गुडसा दिवालूर गांव के निवासी था.
हालांकि, द वायर हिंदी को स्थानीय नागरिकों से बातचीत के कुछ वीडियो प्राप्त हुए हैं, जिनमें वे बता रहे हैं कि मृतकों में चार कुम्मम गांव के हैं, एक लेकवाड़ा गांव का है.
ग्रामीणों के अनुसार, मारे गए 7 कथित माओवादियों में 5 ग्रामीण (चार पुरुष, एक महिला) थे- मासा, मोटू, गुड़सा, कोहला और सोमारी.
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2024 में बस्तर क्षेत्र में अब तक हुई मुठभेड़ों में 220 से ज्यादा माओवादी मारे गए हैं, जो पिछले कई वर्षों का सबसे बड़ा सालाना आंकड़ा है. बीबीसी की एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय के हवाले से कहती है कि 2018 में 125, 2019 में 79, 2020 में 44, 2021 में 48, 2022 में 31 माओवादी मारे गए थे.
केंद्र सरकार इसे बड़ी सफलता के रूप में देख रही है. लगभग दो महीने पहले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक माओवाद का उन्मूलन करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया था, उसके साथ इस ‘सफलता’ को जोड़कर देखा जा रहा है.
स्थानीय कार्यकर्ताओं से बातचीत में मृतकों के परिजनों ने बताया कि शवों को लेने के लिए वे लोग अबूझमाड़ के दूर-दराज़ के इलाकों से बीजापुर ज़िले की भैरमगढ़ तहसील तक कई घंटे पैदल चलकर आए, जहां उनकी मुलाक़ात कार्यकर्ताओं से हुई. परिजनों को अभी यह जानकारी भी नहीं है कि शवों को कहां रखा गया है. पुलिस ने उन्हें अभी तक शव नहीं दिए हैं.
मृतकों में से एक मासा (संभवतः जिनका नाम पुलिस के बयान में रैनू के रूप में दर्ज है) की पत्नी सुधनी ने बताया, ‘कोसरा धान की मिंजाई चल रही थी. कुछ लोग नदी में पानी लेने गए थे. उनमें मेरे पति मासा भी थे…तभी फायरिंग करके उन्हें मार दिया. हम खलिहान पर 10-15 लोग थे. सुरक्षा बलों ने हमें पूरी तरह से घेर लिया, हमें वहां से कहीं जाने नहीं दिया. वहीं रहने को कहा. पुलिस हमारा आधार कार्ड और दस हजार रुपये भी ले गई.’
‘नाबालिगों को लगी गोली’
घटना की खबर मिलने के बाद आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी ने पीड़ितों के गांव गई थीं. द वायर हिंदी से बात करते हुए उन्होंने दावा किया कि छह व्यक्ति अब भी पुलिस की हिरासत में हैं और उनके नाम या तस्वीरें जारी नहीं किए गए हैं.
सोनी सोरी ने कहा कि वो कुम्मम गांव गई थीं जहां से चार घायल बच्चों, जिनकी उम्र 8 और 14 साल के बीच है, को भैरमगढ़ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाईं, जहां प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें अलग-अलग अस्पतालों में रेफर कर दिया गया. गौरतलब है कि इस बीहड़ जंगल में न तो कोई यातायात उपलब्ध है और न सरकारी सुविधा. सोनी सोरी और अन्य आदिवासी इन घायलों को चारपाई पर ढोकर स्वास्थ्य केंद्र तक लाए थे.
जिन चार बच्चों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है, उनमें से रमली ओयाम (12) कुम्मम गांव की है. उसके गले में गोली का टुकड़ा या छर्रा जैसी वस्तु अभी भी फंसी हुई है. सोनू ओयाम (8) कुम्मम गांव का है, उसके सिर पर गहरा घाव है. चैतराम ओयाम (14) लेकवाड़ा गांव का है जिसके नितंब में गोली लगी. राजू नंदम दिवालुर गांव का है, स्थानीय लोगों के मुताबिक उनके हाथ और पैर में गोलियां लगी हैं. इन घायलों की मेडिकल रिपोर्ट कहती हैं कि उन्हें किसी ‘फोरेन पार्टिकल’ से चोट लगी है. यह रिपोर्ट उस वस्तु का उल्लेख नहीं करती.
इन चार घायलों में से दो का इलाज दंतेवाड़ा और एक का जगदलपुर में इलाज चल रहा है, जबकि रमली ओयाम को रायपुर के एक अस्पताल में रेफर कर दिया गया है. रमली के गले में गोली या छर्रा होने की पुष्टि करने वाला एक्स-रे नीचे देखा जा सकता है.
‘एकतरफा गोलीबारी‘
सोनी सोरी ने बताया कि 11 दिसंबर को दंतेवाड़ा, बीजापुर और नारायणपुर जिलों से भारी संख्या में फोर्स रेकावाय पंचायत के कुम्मम, लेकवाड़ा, दिवालुर गांवों के आसपास के जंगलों में गई थी. सुबह के समय लोग खेत गए हुए थे. फायरिंग करीब 8-9 बजे शुरू हुई. गांव वालों का कहना है कि फायरिंग दोनों तरफ से (माओवादियों और पुलिस के बीच) नहीं हुई थी, बल्कि एक ही तरफ से हुई थी.
घायल बच्चे 14 दिसंबर तक गांव में ही थे जब तक आदिवासी कार्यकर्ता उन्हें भैरमगढ़ नहीं लाए. शवों को तो पुलिस ले आई, लेकिन घायलों को वहीं छोड़ दिया. गांव में कई घायल अभी हैं. कार्यकर्ता सिर्फ घायल बच्चों को ला पाए थे. इसके अलावा कुछ लोग भी लापता बताए जा रहे हैं.
‘जब मैं उन्हें अस्पताल लाने के लिए कह रही हूं तो ग्रामीण कह रहे हैं कि क्या आप हमें गारंटी देंगी कि हमें जेल में नहीं डाला जाएगा,’ सोनी सोरी ने कहा.
कैंपेन फॉर पीस एंड जस्टिस ने अपने बयान में कहा है कि जब पुलिस का प्रेस नोट ग्रामीणों को दिखाया गया तब जाकर वे मतृकों को अपने परिजन के रूप में पहचान पाए थे. सोनी सोरी जैसे कार्यकर्ताओं के साक्ष्य पर आधारित यह बयान कहता है है कि घायलों को अस्पताल ले जाने के बाद पूरे अस्पताल परिसर को पुलिस ने घेर लिया, ताकि किसी को भी घायल बच्चों से मिलने से रोका जा सके.
नाबालिगों और ग्रामीणों का मानव ढाल के रूप में उपयोग: पुलिस
इस बीच 17 दिसंबर की शाम को पुलिस ने एक प्रेस नोट जारी कर दावा किया, ‘वरिष्ठ नक्सल कैडर कार्तिक की जान बचाने हेतु माओवादियों ने नाबालिगों और ग्रामीणों का उपयोग मानव ढाल के रूप में किया है.’
बयान में यह भी कहा गया, ‘ग्रामीणों को नक्सलियों का सामान ढोने के लिए साथ में रखा गया था और मुठभेड़ के दौरान उन्हीं ग्रामीणों की आड़ लेकर सुरक्षा बलों पर फायरिंग की गई थी जिसमें नक्सलियों की फायरिंग में चार ग्रामीणों के घायल होने की सूचना मिली थी.’
इंडियन एक्सप्रेस में 18 दिसंबर को छपी रिपोर्ट में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के हवाले से लिखा गया है कि ‘मुठभेड़ में चार नाबालिग छर्रे लगने से घायल हुए हैं. माओवादियों के द्वारा उपयोग किए गए बैरल ग्रेनेड लॉन्चर के छर्रों से वो घायल हुए हैं. उनमें से एक बच्ची को गले में चोट लगी, इसलिए उसे रायपुर रेफर किया गया.’
निर्दोष नागरिकों को निशाना मत बनाओ: टीएस सिंहदेव
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और छत्तीसगढ़ के पूर्व उप मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव ने इस घटना पर चिंता व्यक्त की है.
जैसा कि मैंने 15 दिसंबर को कहा था, लक्ष्यों को निर्धारित करने से ऐसे खतरों का जन्म होता है। नक्सल समस्या का समाधान ज़रूरी है, लेकिन यह आम नागरिकों की जान की कीमत पर नहीं हो सकता। उस क्षेत्र में रहने वाले निर्दोष आदिवासी और अन्य नागरिक लक्ष्य-निर्धारण की प्रक्रिया का शिकार नहीं बन…
— T S Singhdeo (@TS_SinghDeo) December 17, 2024
एक्स पर शेयर किए गए एक पोस्ट में उन्होंने कहा, ‘लक्ष्यों को निर्धारित करने से ऐसे खतरों का जन्म होता है…. नक्सल समस्या का समाधान ज़रूरी है, लेकिन यह आम नागरिकों की जान की कीमत पर नहीं हो सकता… निर्दोष नागरिकों को किसी भी सूरत में कोलेटरल डैमेज नहीं बनने दिया जा सकता….. यह अत्यंत दुखद है कि 11 तारीख को गंभीर रूप से घायल हुए लोग केवल कल ही रायपुर पहुंच पाए.’
पहले भी लगे हैं फर्जी मुठभेड़ के आरोप
बता दें कि कांकेर जिले में 25 फरवरी को हुए मुठभेड़ को लेकर पुलिस ने दावा किया था कि नक्सल विरोधी अभियान के दौरान सुरक्षाकर्मियों के साथ मुठभेड़ में कोयलीबेड़ा थानाक्षेत्र के भोमरा-हुरतराई गांवों के बीच एक पहाड़ी पर तीन ‘नक्सली’ मारे गए थे. हालांकि, कुछ स्थानीय लोगों और मृतकों के परिजनों ने पुलिस पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ का आरोप लगाया था.
मृतकों की पहचान – मरदा गांव के मूल निवासी रामेश्वर नेगी, सुरेश तेता और क्षेत्र के पैरवी गांव के अनिल कुमार हिडको के रूप में की गई थी.
इसी तरह छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में सुरक्षा बलों ने 10 मई को एक मुठभेड़ में 12 कथित माओवादियों को मारने का दावा किया था. मृतकों के परिजन फर्जी मुठभेड़ का आरोप लगाया था और कहा था कि 12 में से 10 मृतक पीडिया और ईतावर गांव के निवासी थे और खेती-किसानी किया करते थे.
7 फरवरी 2019 को अबूझमाड़ के ताड़बल्ला में हुए एक कथित मुठभेड़ में पुलिस ने दस माओवादियों को मारने का दावा किया था. ग्रामीणों ने इसे एक सुनियोजित हमला बताया था. उन्होंने मारे गए 10 युवाओं के शवों के क्षत-विक्षत होने और मृतक लड़कियों के साथ संभावित यौन शोषण की बात कही थी.
बीजापुर के एड्समेट्टा गांव में मई 2013 में तकरीबन 1,000 सुरक्षाबलों ने ‘विज्जा पंडुम’ पर्व मना रहे आदिवासियों पर गोली चला दी थी, जिसमें 8 आदिवासी मारे गए थे. सुरक्षाबलों ने कहा था कि ये सभी माओवादी थे और यह कार्रवाई उन्होंने माओवादियों द्वारा की गई गोलीबारी के जवाब में की थी. लेकिन हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की जांच में सामने आया था कि यह एनकाउंटर फ़र्ज़ी था और एक भी मृतक माओवादी नहीं था.
एक अन्य मामले में बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा में सुरक्षाबलों द्वारा जून 2012 में 6 नाबालिग समेत 17 लोगों की हत्या कर दी गई थी. 28 जून की रात आदिवासी किसी पर्व के लिए एकत्र हुए थे. सुरक्षाबलों ने उसे नक्सलियों की बैठक समझ कर फायरिंग शुरू कर दी. जांच में सामने आया था कि एक भी मृतक नक्सली नहीं था.