श्रम मानक तय करे सरकार, श्रमिकों का शोषण नहीं किया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय जल आयोग द्वारा दो एडहॉक कर्मचारियों को अचानक बर्ख़ास्त कर देने के ख़िलाफ़ याचिका सुनते हुए कहा कि सरकारी विभागों को कर्मचारियों को लंबी अवधि के लिए अस्थायी अनुबंध पर रखने के बजाय नौकरी की सुरक्षा और उचित माहौल सुनिश्चित करना चाहिए.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (20 दिसंबर) को गिग इकोनॉमी और सरकारी संस्थानों दोनों में अनिश्चित रोजगार व्यवस्थाओं के बढ़ते प्रचलन की कड़ी आलोचना करते हुए निष्पक्ष और अधिक सुरक्षित श्रम प्रथाओं (labour practices) का आह्वान किया.

हिंंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस विक्रम नाथ और पीबी वराले की पीठ ने कहा कि सरकारी विभागों को कर्मचारियों को विस्तारित अवधि के लिए अस्थायी अनुबंध पर रखने के बजाय श्रमिकों को नौकरी की सुरक्षा और उचित माहौल सुनिश्चित करके एक सकारात्मक उदाहरण स्थापित करना चाहिए.

पीठ ने अस्थायी रोजगार अनुबंधों के व्यापक दुरुपयोग पर अफसोस जताते हुए कहा, ‘ये एक बड़े मुद्दे को दर्शाता है, जो श्रमिकों के अधिकारों और नौकरी सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं. निजी क्षेत्र में गिग अर्थव्यवस्था के उभरने से अनिश्चित रोज़गार में वृद्धि हुई है, जिसमें अक्सर सुविधाओं की कमी, नौकरी की असुरक्षा देखने को मिलती है, जिसकी आलोचना होती है.’

अदालत ने रेखांकित किया कि इस मामले में सरकारी संस्थानों को बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि उन्हें निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखने का काम सौंपा गया है.

पीठ ने कहा, ‘सरकारी संस्थान, जिन्हें निष्पक्षता के सिद्धांतों को बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, उन पर ऐसी शोषणकारी रोजगार प्रथाओं से बचने की बड़ी जिम्मेदारी है.’

मालूम हो कि अदालत चार हाउसकीपिंग और रखरखाव कर्मचारियों (maintenance staff) की अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिन्हें लगभग दो दशक पहले केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा एडहॉक पर रखा गया था और साल 2018 में उन्हें अचानक नौकरी से निकाल दिया गया.

अदालत ने उनकी बर्खास्तगी को रद्द करते हुए उनकी बहाली का आदेश दिया और उनकी सेवाएं नियमित करने का भी निर्देश दिया.

फैसले में इस बात पर जिक्र किया गया कि कैसे अस्थायी और अस्थिर नौकरियां शोषणकारी प्रथाओं को तेजी से आग बढ़ा रही हैं, जो सरकारी विभागों में भी दिखाई दे रहा है.

अदालत का कहना है कि जब सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाएं अस्थायी अनुबंधों के दुरुपयोग में संलग्न होती हैं, तो यह न केवल गिग अर्थव्यवस्था में देखी गई हानिकारक प्रवृत्तियों को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि एक चिंताजनक मिसाल भी स्थापित करती है जो सरकारी कार्यों में जनता के विश्वास को कम कर सकती है.

इस बात पर जोर देते हुए कि अस्थायी अनुबंधों पर कर्मचारियों को शामिल करना उनके मनोबल और जनता के विश्वास दोनों को कमजोर करता है, अदालत ने कहा, ‘सरकारी संस्थानों को निष्पक्ष और स्थिर रोजगार प्रदान करने में उदाहरण पेश करना चाहिए. विस्तारित अवधि के लिए अस्थायी आधार पर श्रमिकों को नियुक्त करना, खासकर जब उनकी भूमिकाएं संगठन के कामकाज का अभिन्न अंग हैं, न केवल अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों का उल्लंघन है बल्कि संगठन को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और कर्मचारी मनोबल को कमजोर करता है.’

फैसले में कहा गया है, ‘निष्पक्ष रोजगार प्रथाओं को सुनिश्चित करके सरकारी संस्थान अनावश्यक मुकदमेबाजी के बोझ को कम कर सकते हैं, नौकरी की सुरक्षा को बढ़ावा दे सकते हैं और न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों को कायम रख सकते हैं. यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है और निजी क्षेत्र के अनुसरण के लिए एक सकारात्मक मिसाल कायम करता है, जिससे देश में श्रम प्रथाओं की समग्र बेहतरी में योगदान मिलता है.’

अस्थायी अनुबंधों के प्रणालीगत दुरुपयोग के बारे में व्यापक टिप्पणियां करते हुए अदालत ने विशेष रूप से सार्वजनिक संस्थानों में अस्थायी कर्मचारियों के लिए मनमाने ढंग से अनुबंध समाप्ति, लाभों से इनकार, और करिअर की प्रगति में कमी की आलोचना की.

अदालत ने कहा, ‘किसी संस्था के कामकाज के लिए आवश्यक और अभिन्न कार्य के लिए लगे कर्मचारियों को अक्सर ‘अस्थायी’ या ‘संविदा’ के रूप में लेबल किया जाता है, भले ही उनकी भूमिका नियमित कर्मचारियों की तरह हो. यह गलत वर्गीकरण उन्हें सम्मान, सुरक्षा और उन लाभों से वंचित करता है जिनके वे हकदार हैं.’

पीठ ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि अवैध नियुक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए 2006 के उमा देवी फैसले की कैसे गलत व्याख्या की जा रही है ताकि नियमितीकरण के वैध दावों को अस्वीकार किया जा सके.

पीठ ने कहा, ‘सरकारी विभाग अक्सर कर्मचारियों के खिलाफ उमा देवी के फैसले को हथियार बनाते हैं, लेकिन उन मामलों की स्वीकृति को नजरअंदाज करते हैं जहां नियमितीकरण को उचित बताया गया है. यह चयनात्मक आवेदन उक्त निर्णय की भावना और उद्देश्य को विकृत करता है, इसे उन कर्मचारियों के खिलाफ प्रभावी ढंग से हथियार बनाता है जिन्होंने दशकों से जरूरी सेवाएं प्रदान की हैं.’

वर्तमान मामले में अदालत ने माना कि याचिकाकर्ताओं की लंबी और निर्बाध सेवा को केवल उनकी प्रारंभिक नियुक्तियों को अस्थायी बताकर खारिज नहीं किया जा सकता है. अदालत ने कहा, ‘उनका निरंतर योगदान और उनके काम की प्रकृति नियमितीकरण के माध्यम से मान्यता की मांग करती है.’

अदालत ने आगे कहा कि उनकी बर्खास्तगी ने समाप्ति आदेशों से पहले उन्हें निष्पक्ष सुनवाई न देकर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का भी उल्लंघन किया है.