वर्ष 2024 हमारी दुनिया को युद्धों व नरसंहारों समेत कई ऐसी त्रासदियों के हवाले करके विदा हो रहा है, जिनका त्रास बहुत संभव है कि हमें दशकों तक चैन की सांस न लेने दे. इस सिलसिले में अपने देश की बात करें, तो इस साल की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हिंदुत्व की छतरी के नीचे पली-बढ़ी धर्म व पूंजी की सत्ताओं ने हमारे राष्ट्र-राज्य की सत्ता के अतिक्रमणों के नए कीर्तिमान बना डाले हैं और कहना मुश्किल है कि इससे पैदा हुए उलझावों को सुलझाने में देश को कब तक व कितना हलकान होना पड़ेगा.
यों, यह देश इससे पहले भी ऐसे अतिक्रमणों से दो-चार होता रहा है. अन्यथा नए अतिक्रमणों को वैसी ढाल नसीब ही नहीं होती, जैसी सहज उपलब्ध हो जा रही है. इसके बावजूद कहना होगा कि पहले के अतिक्रमण न इस साल हुए अतिक्रमणों जैसे ‘सर्वभक्षी’ थे, न ही उनकी ‘लीला’ इतनी ‘अपरंपार’!
दरअसल, इस साल के अतिक्रमण राष्ट्र-राज्य की सत्ता की परिधि से नहीं, उसके शीर्ष कहें या केंद्र से बेहद सुनियोजित ढंग से शुरू हुए और उनमें पहला ही अतिक्रमण इतना सांघातिक था कि उसने हमारे विधिसम्मत ढंग से निर्वाचित व जनादेशप्राप्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदुत्ववादी धर्माधीश व उपदेशक में बदल डाला.
धर्मोपदेशक प्रधानमंत्री
कह सकते हैं कि नाना कर्मकांडों के जरिए पुजारी का चोला तो उन्होंने अरसा पहले ही धारण कर लिया था. लेकिन शायद ही किसी को अंदेशा रहा हो कि इस दिशा में वे अचानक इतने आगे बढ़ जाएंगे कि भूल सुधार की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाएगी.
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के नौ नवंबर, 2019 के फैसले से अयोध्या में ‘वहीं’ यानी ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की जगह बन रहे भव्य राममंदिर के बहाने यह अतिक्रमण गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) से महज चार दिन पहले 22 जनवरी को डंके की चोट पर अनेक स्वनामधन्य ‘महापुरुषों’ व ‘महाप्रभुओं’ की ‘गरिमामय उपस्थिति’ में हुआ. तब तक मंदिर का निर्माण पूरा भी नहीं हुआ था, लेकिन धर्माधीशों की नसीहतों को नकार कर प्रधानमंत्री के हाथों उसमें रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारियां पिछले साल से ही चली आ रही थीं. और उनकी मंशा यह थी कि इस प्राण-प्रतिष्ठा से हिंदूधर्म की प्रतिष्ठा घटे या बढ़े, आगामी लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा के पक्ष में वोटों की भरपूर बारिश हो.
स्वाभाविक ही इसके लिए धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में अकेली छोड़कर हिंदुत्ववादी चोले में मंदिर निर्माण के नाम पर जनादेश मांगने की परंपरा को नए सिरे से समृद्ध किया गया!
प्राण-प्रतिष्ठा के बाद प्रधानमंत्री ने जो ‘प्रवचन’ दिया, वह इस अर्थ में अभूतपूर्व था कि इससे पहले इस देश का कोई प्रधानमंत्री इस तरह किसी एक धर्म का प्रवक्ता बनकर सामने नहीं आया. बहुत हुआ तो उसने धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव का रूप देकर काम चला लिया. याद कीजिए, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने (इसके बावजूद कि उसमें उनकी मिलीभगत का आरोप भी लगाया जाता है) देश को संबोधित कर ध्वंस को दगा करार दिया और ध्वस्त मस्जिद को उसकी जगह फिर से खड़ा करने का वादा किया था.
लेकिन 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छाती ठोककर हिंदुत्ववादियों के प्रवक्ता बन गए, तो हमारी संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती का जतन से गढ़ा गया सारा भरम भी भरभरा कर ढह गया. फिर तो अनेक लोग (वे भी, जो इस सबसे खासे आतंकित हो उठे थे और वे भी, जो कुछ ज्यादा ही आह्लादित थे) कहने लगे कि अब और कैसे आएगा हिंदू राष्ट्र, आ तो गया वह, क्या उसका आना तभी माना जाएगा, जब वह ढोल नगाड़े बजाकर आए?
राजसत्ता के शीर्ष पर धर्मसत्ता के इस अतिक्रमण को दूसरे पहलू से इस रूप में भी देखा जा सकता है कि इससे पहले के हिंदुत्ववादी सत्ताधीश सांप्रदायिक कहे जाने पर लजाकर या खीझकर दावा करने लगते थे कि वे स्वत: धर्मनिरपेक्ष हैं और उन्हें किसी से धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ने की आवश्यकता नहीं है. लेकिन इस बार उनकी ओर से किंचित भी रक्षात्मक होने की जरूरत नहीं समझी गई और न ऐसी कोई ‘सफाई’ ही दी गई. उल्टे उनमें से कई इसे प्रधानमंत्री की पुरोहिताई की मान्यताऔर धर्मनिरपेक्षता की हेठी के रूप में देखकर खुश हुए.
घृणा से बजबजाते ‘आह्वान’
इसके आगे-पीछे स्वयंभू हिंदुत्ववादी धर्माधीशों द्वारा अल्पसंख्यकों के विरुद्ध घृणा से बजबजाते ‘आह्वानों’ की जो झड़ी लगी और जिसके प्रति इरादतन सहिष्णु सरकारें सर्वोच्च न्यायालय के कहने के बावजूद समुचित कार्रवाई से कतराती रहीं, उसका जाया अतिक्रमण तो इस साल इस्लाम की समाप्ति के घोषित मंसूबे के साथ तथाकथित विश्व धर्म संसद के आयोजन के ऐलान तक पहुंच गया और राजसत्ता के माथे पर कोई शिकन नहीं दिखाई दी.
संविधान के संरक्षक कहलाने वाले सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ को रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के अंतिम फैसले के लगभग पांच साल बाद इस ‘रहस्योद्घाटन’ की जरूरत महसूस होना भी ऐसा ही अतिक्रमण था कि उक्त फैसला सुनाने वाली न्यायालय की पांच जजों की पीठ के सदस्य के तौर पर वे फैसले की घड़ी में करबद्ध होकर अपने ईश्वर की शरण में चले गए थे और उससे रास्ता सुझाने की प्रार्थना की थी. फिर उसने जो सुझाया, वही फैसला दिया था.
उनके इस ‘रहस्योद्घाटन’ के बाद यह साबित होने में कोई संदेह नहीं रह गया कि उक्त फैसले में उन्होंने कायदे-कानून या संविधान पर अपने ईश्वर के सुझाव को तरजीह दी थी.
इसे धर्मसत्ता द्वारा संवैधानिक सत्ता के अतिक्रमण के अलावा और क्या कहा जा सकता है? दो धर्मों के बीच उस विवाद के निस्तारण में किसी जज द्वारा संविधान व कानून के प्रावधानों को अतिक्रमित किये बिना तो ‘अपने ईश्वर’ को बीच में लाया ही नहीं जा सकता था.
विडंबना देखिए कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसके बाद अपने पक्ष में यह भी कहा कि अदालतें हमेशा सरकारों के विपक्ष में नहीं रह सकतीं, जबकि कायदे से उन्हें यह बताना चाहिए था कि क्या किसी संविधानशासित देश में किसी अदालत को एक बार भी संवैधानिक मूल्यों के विपक्ष में जाने की इजाजत दी जा सकती है?
बहुसंख्यकों की मर्जी यानी..?
जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद मामले में 1991 के उपासनास्थल कानून की अति व्याख्या भी एक अतिक्रमण ही थी, जिसको नज़ीर बनाकर निचली अदालतें मस्जिदों के नीचे मंदिर तलाशने में लगे रहने वाले महानुभावों की अर्जियों पर मस्जिदों के धार्मिक चरित्र का पता लगाने के लिए तुरत-फुरत सर्वे कराने के आदेश देने लगीं. कानूनन उस चरित्र को बदलने की पूरी मनाही के बावजूद.
लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस शेखर कुमार यादव को जैसे हिंदुत्व का इतना प्रभाव काफी नहीं लगा. विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में जाकर उन्होंने घोषणा कर दी कि हिंदू होना उनकी पहली पहचान है. सवाल है कि क्या इसका एक निहितार्थ यह भी नहीं कि उनकी यह पहली पहचान जज के रूप में उनकी पहचान को भी अतिक्रमित करती है?
इसके बगैर वे इस आड़ में अस्पृश्यता, सती और जौहर जैसी कुरीतियों के खात्मे पर सवाल कैसे उठा सकते थे कि दूसरे (अल्पसंख्यकों के) धर्म की कई ऐसी कुरीतियां उन्मूलित नहीं हुई हैं?
उन्हें इस अतिक्रमण से बचना इसके बावजूद जरूरी नहीं लगा कि उक्त कार्यक्रम कोर्ट के लाइब्रेरी हॉल यानी न्याय के परिसर में ही हो रहा था. पहले उन्होंने हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच कई जन्मजात अंतर गिनाए, फिर ऐलान कर दिया कि देश बहुसंख्यकों की मर्जी से चलेगा. बहुसंख्यकों की यह मर्जी संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनाने के लिए संकल्पित संविधान को धता बताये बगैर भला कैसे चल सकती है? और अगर जज तक उसे चलाने की बात कह रहे हैं तो इसे धर्मसत्ता द्वारा किए जा रहे अतिक्रमण के अलावा क्या कहा जा सकता है?
लेकिन बात इतनी-सी ही नहीं है. संविधान की शपथ लेकर राजकाज चलाने वाले कई हिंदुत्ववादी मुख्यमंत्री पूरे साल उसके पवित्र संवैधानिक मूल्यों का खुला अतिक्रमण करते दिखे. तिस पर संसद के शीतकालीन सत्र में गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहकर हद ही कर दी कि ‘अब ये एक फ़ैशन हो गया है-आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर… इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता! इस अतिक्रमण की बाबत सोचिए जरा : हिंदू के रूप में जन्मे बाबासाहब ने हिंदू के रूप में मरने से इनकार कर दिया था और गृहमंत्री उसी हिंदू धर्म की पुनर्जन्म व स्वर्ग-नर्क की धारणाओं का उनके अपमान के लिए इस्तेमाल करते हुए कहते हैं कि बाबासाहब जितना नाम भगवान का लेते तो सात जन्मों का स्वर्ग मिल जाता!
पूंजी के खेल
याद आता है, भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने अंतिम वर्षों में फैजाबाद (अब अयोध्या) में इन पंक्तियों के लेखक से एक अनौपचारिक भेंटवार्ता में कहा था कि देश की समस्याओं के हल केवल इसलिए गुम हुए जा रहे हैं कि संकल्पहीन नेताओं को समस्याओं के इस्तेमाल से सत्ता में बने रहने में मजा आने लगा है. इस मजे के समक्ष उनके आत्मसमर्पण के कारण अंतरराष्ट्रीय पूंजी कदम-कदम पर हमारे राष्ट्र-राज्य व उसकी सत्ता का अतिक्रमण कर रही है और एकतरफा भूमंडलीकरण अपरिहार्य होकर हम पर गाज पर गाज गिरा रहा है.
तब उन्होंने जरूरत जताई थी कि हमारे नेता भूमंडलीकरण को अपरिहार्य बताने के बजाय उपयुक्त मंचों पर उसे न्यायोचित बनाने की मांग उठाएं और पूंजी के वर्चस्व के इच्छुक देशों से कहें कि पूंजी के भूमंडलीकरण को हम तभी स्वीकार करेंगे जब सेवाओं व श्रम का भी भूूमंडलीकरण किया जाए. ताकि उन देशों की पूंजी हमारे देश में सस्ते श्रम की सर्वथा बेरोकटोक शिकारी न बनने पाए और हमारे कामगार उनके देशों में जाकर अपने श्रम का ठीक-ठाक मोल भी पा सकें.
लेकिन तब किसी ने उनकी नहीं सुनी और उनके इस संसार को अलविदा कहने के सोलह साल बाद हम देख रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय पूंजी तो अंतरराष्ट्रीय पूंजी, तथाकथित राष्ट्रीय पूंजी भी देश की राजसत्ता के अतिक्रमण से परहेज़ नहीं कर रही. अंतरराष्ट्रीय पूंजी से गठबंधन कर उसने अपने व उसके बीच के उस प्रवृत्तिगत व चारित्रिक फर्क को ही मिटा डाला है जिसकी बिना पर कई लोग राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय पूंजी के बरक्स उसकी हिमायत किया करते थे. साथ ही उम्मीद भी जताते थे कि वह अंतरराष्ट्रीय पूंजी की तरह अंधाधुंध मुनाफे की गुलाम नहीं होगी और सब कुछ अपनी मुट्ठी में करने के फेर में पड़ने के बजाय सामाजिक जिम्मेदारियां भी निभाएगी.
इस उम्मीद के विपरीत आज उसने राजसत्ता की संचालक सरकारों को बुरी तरह अपनी चेरी बना लिया है और उनसे अपने पक्ष में धड़ाधड़ फैसले करा रही है. हिंदुत्ववादी केंद्र सरकार तो अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संदिग्ध हो चुके एक पूंजीपति/उद्योगपति के बचाव में प्रधानमंत्री की छवि को भी दांव पर लगाने से परहेज़ नहीं कर रही.
ऐसे में किसी को यह निष्कर्ष निकालने से कैसे रोका जा सकता है कि इस पूंजी का हिंदुत्ववाद से गठजोड़ है और दोनों मिलकर अपने साझा स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश की संवैधानिक राजसत्ता का अतिक्रमण पर अतिक्रमण किए जा रहे हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)