साल 2024: फिल्में जो सामाजिक मुद्दों और असल शख़्सियतों की प्रेरणा से बनी

हिट और फ्लॉप की लिस्ट से इतर इस साल कई ऐसी फिल्मों पर भी लोगों की नज़रें टिकीं, जो समाजिक मुद्दों और असल शख्सियतों की प्रेरणा से बनी फिल्में थीं. कुछ ऐसी ही फिल्मों पर एक नज़र डालते हैं...

फिल्मों के पोस्टर. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

नई दिल्ली: साल 2024 गुजरने को है और नए साल 2025 का आगाज़ होने वाला है. ऐसे में इस साल हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री की ओर से ढ़ेरों फिल्मों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया. कई फिल्में 100 करोड़ के क्लब में शामिल हुईं, कुछ बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर गई.

हालांकि, हिट और फ्लॉप की लिस्ट से इतर साल कई ऐसी फिल्मों पर भी लोगों की नज़रें टिकीं, जो समाजिक मुद्दों और असल शख्सियतों की प्रेरणा से बनी फिल्में थीं. कुछ ऐसी ही फिल्मों पर एक नज़र डालते हैं…

लापता लेडीज

किरण राव द्वारा निर्देशित, आमिर खान प्रोडक्शन्स के बैनर तले बनी फिल्म ‘लापता लेडिज’ इस साल खासी सुर्खियों में रही. आधिकारिक तौर पर इस फिल्म को भारत की ओर से प्रतिष्ठत ऑस्कर के लिए भी भेजा गया था. हालांकि, फिल्म अब ऑस्कर की रेस से बाहर हो गई है, लेकिन इसकी छाप लोगों के दिलों-दिमाग पर लंबे समय तक रहेगी.

धोबी घाट और पीपली लाइव सरीखी चर्चित और विषय आधारित फिल्में बना चुकीं, किरण राव की ये फिल्म भी एक साथ कई सामाजिक मुद्दों पर आधारित है, जो औरतों को लेकर पितृसत्तात्मक सोच, लैंगिक असमानता, शिक्षा, दहेज प्रथा, आत्मनिर्भरता, घरेलू हिंसा, हीनता जैसे तमाम मुद्दों पर सवाल खड़े करती है.

ये फिल्म औरतों को अपने हिसाब से जीना सिखाती है. हर उस महिला में आत्मविश्वास जगाती है, जो अपने सपनों के लिए संघर्ष करती है. फिल्म में गंभीर विषय होने के बावजूद इसे काफी हल्का रखा गया है, जिससे कहानी सीधे दर्शकों के दिल तक पहुंचती है. ये फिल्म भले ही ग्रामीण प़ष्ठभूमि पर बनी है, लेकिन इसकी कहानी शहरों की हक़ीकत से भी रूबरू करवाती है. इस फिल्म में रवि किशन के अलावा स्पर्श श्रीवास्तव, नितांशी गोयल और प्रतिभा रांटा ने प्रमुख किरदार निभाए हैं, जो लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में बेहद सफल रहे.

चंदू चैंपियन

कबीर खान के निर्देशन में बनी बायोपिक फिल्म चंदू चैंपियन भले ही बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकी, लेकिन फिल्म में कार्तिक आर्यन की अदाकारी ने खूब तारीफें बटोरी. यह फिल्म भारत के पहले पैरालिंपिक स्वर्ण पदक विजेता मुरलीकांत पेटकर पर आधारित है.

पैराओलंपियन मुरलीकांत पेटकर की कभी हार न मानने वाली इस कहानी ने दर्शकों का दिल जीत लिया. उन्होंने विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए खेलों में अपनी पहचान बनाई थी. उनके जूनून का सफर सेना में भर्ती से शुरू हुआ, जो बॉक्सिंग के वंडर बॉय बनने और आखिर में 1965 की जंग में अपने शरीर पर 9 गोलियां खाने तक जारी रहा. जंग के बाद उनके शरीर का निचला हिस्सा लकवाग्रस्त होने के बावजूद उन्होंने अपने सपने को पीछे नहीं छोड़ा और विश्व स्तर पर रिकॉर्ड कायम करने के लिए तैराकी सीखी. इसी जूनून और लगन की बुनियाद पर वह देश का पहला पैरालंपिक गोल्ड मेडल जीतने वाले खिलाड़ी बने.

चमकीला

इम्तियाज अली के निर्देशन में बनी फिल्म चमकीला इस साल ओटीटी मंच नेटफ्लिक्स पर 12 अप्रैल को रिलीज हुई थी. ये फिल्म पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला की बॉयोपिक है. फिल्म में दिलजीत दोसांझ ने लीड किरदार निभाया है. वहीं अमरजोत कौर की भूमिका में परिणीति चोपड़ा नजर आई थीं.

यह फिल्म लुधियाना के छोटे से गांव धुबरी में जन्मे पंजाबी म्यूजिक इंडस्ट्री में साल 1979 से 1988 तक राज करने वाले गायक और ‘एल्विश ऑफ पंजाब’ कहे जाने वाले अमर सिंह चमकीला के प्रभावशाली संगीत और विवादास्पद जीवन पर आधारित है.

अमर सिंह चमकीला एक समय पंजाब के बड़े गायकों में शुमार थे. उनकी गायिकी के लोग दीवाने थे. कहा जाता है कि उन्होंने बहुत कम समय में फर्श से अर्श तक का सफर तय कर लिया था. लेकिन महज 27 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा भी कह गए. 8 मार्च, 1988 के दिन कुछ अज्ञात हमलावरों ने अमर सिंह चमकीला की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी थी.

फिल्म में दिखाया गया है कि काफी कम उम्र में पारिवारिक बोझ की वजह से उन्हें कारखानों, गायिकी अखाड़ों में सहायक के तौर पर काम करना पड़ा था. चमकीला के गाने गांव के परिवेश, ड्रग्स, बंदूकें, एक्ट्रा मैरिटल अफेयर और दहेज जैसे मुद्दों पर तंज करते थे. अमर सिंह चमकीला ने अपने गायकी की शुरुआत में कई लड़कियों के साथ स्टेज पर जोड़ी बनाई लेकिन अमरजोत कौर के साथ उनकी जोड़ी काफी हिट रही, जो आगे चलकर उनकी दूसरी पत्नी भी बनीं.

अमर सिंह चमकीला की गायिकी को अक्सर सवालों के घेरे में रखा जाता रहा है, कई लोग मानते हैं कि उनके गाने ‘डबल मीनिंग’ यानी द्विअर्थी होते थे. इस फिल्म में उनके जीवन और उनके प्रति लोगों के प्यार और गुस्से दोनों को बखूबी दिखाया गया है.

श्रीकांत

अभिनेता राजकुमार राव की फिल्म ‘श्रीकांत’ भी इस साल अपना कमाल छोड़ने में कामयाब रही. ये फिल्म असल में उद्योगपति श्रीकांत बोल्ला की कहानी है. जो अपनी आंखों से दुनिया तो नहीं देख सकते, लेकिन सपने, बड़े सपने जरूर देखते हैं और उन्हें पूरा भी करते हैं. एक सामाजिक मुद्दे पर बेहद गंभीरता और शालीनता से बनी यह फिल्म प्रेरणा देती है.

90 के दशक में आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के एक गरीब और अशिक्षित परिवार में जन्मे श्रीकांत बोल्ला ने नेत्रहीन होने की चुनौतियों का सामना करते हुए हुए करीब 500 करोड़ रुपये की कंपनी खड़ी की. इस कंपनी के जरिए श्रीकांत ने विकलांगों के लिए रोज़गार के अवसर खोले, उन्हें नौकरी देने का फैसला किया. हालांकि श्रीकांत का ये सफर मुश्किल लेकिन प्रेरणादायी और गर्व करने वाला रहा है.

लगभग 2 घंटे 2 मिनट की इस बायोपिक में आपको कई जगह सिस्टम पर कटाक्ष देखने को मिलेगा. सरकारी व्यवस्था से लेकर आम लोगों की राय तक, हर जगह विकलांगों को कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, फिल्म बखूबी दिखाती है.

मैदान

अजय देवगन की फिल्म ‘मैदान’ भारत में भुला दिए गए खेल फुटबॉल से जुड़ी सत्य घटना पर आधारित फिल्म है. इस स्पोर्ट्स बॉयोपिक के केंद्र में महान कोच सैयद अब्दुल रहीम हैं, जिनकी भूमिका पर्दे पर अजय देवगन ने निभाई है.

फिल्म की कहानी 1952 के समर ओलंपिक्स से शुरू होकर 1962 के एशियन गेम्स पर ख़त्म होती है. इस एक दशक में कोच सैयद अब्दुल रहीम कैसे फुटबॉल फेडरेशन, क्लब्स और राज्यों की राजनीति और बजट की कमी से जूझने के बावजूद भी वह कर दिखाते हैं, जिसकी देश में किसी ने कल्पना भी नहीं की होती. पूरी फिल्म इसी कॉन्सेप्ट के इर्द गिर्द बुनी गई है.

एशियन गेम्स 1962 के गोल्ड के बाद आज लगभग छह दशक बीत जाने के बाद भी भारतीय फुटबॉल टीम मेडल के इंतज़ार में है. हाल ही में जारी फीफा रैंकिंग में भारत शीर्ष 100 टीमों में भी अपनी जगह नहीं बना पाया था और 117वें स्थान पर पहुंच गया. फिल्म के आख़िर में लिखा ये संदेश आपको मौजूदा समय में देश में फुटबॉल की स्थिति पर सोचने को ज़रूर मजबूर कर देगा.

कागज-2

दिवंगत अभिनेता सतीश कौशिक की फिल्म ‘कागज 2’ ने सिनेमाघरों में 1 मार्च को दस्तक दी थी. यह फिल्म उनके निधन के कुछ महीनों बाद ही सिनेमाघरों में आ गई थी. इस फिल्म में अनुपम खेर, दर्शन कुमार, नीना गुप्ता और अनंग देसाई समेत कई स्टार्स एक साथ दिखाई दिए थे.

इस फिल्म में देश के आम आदमी की सच्चाई और जीवन के संघर्ष देखने को मिलते हैं. सरकारी संस्थानों के बाहर लंबी-लंबी कतारें और अदालतों में सुनवाई के लिए लंबी तारीखें इस आम आदमी के जीवन का पर्याय हैं, ये फिल्म बखूबी दिखाने में सफल रही है. फिल्म में राजनेताओं की रैलियां, जो किसी के जीवन का अधिकार तक छीन सकती हैं, इसका दर्द दिखाया गया है.

संविधान ने कागज पर तो सबके लिए बराबरी का अधिकार सुनिश्चित किया है, लेकिन क्या वाकई आम आदमी के लिए कानून भी समान है, ये फिल्म इस मुद्दे पर जरूरी सवाल उठाती है.

ऐ वतन मेरे वतन

सारा अली खान की फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’ भी इस साल रिलीज हुई, जिसकी कहानी साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान की है. उस दौर में जब आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने गांधी और नेहरू समेत कांग्रेस के सारे बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया था. ऐसे मुश्किल समय में आजादी की आवाज देश की अवाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी कांग्रेस की एक नौजवान कार्यकर्ता उषा मेहता उठाती है, जिनके इर्द-गिर्द ये कहानी घूमती है.

उषा मेहता आजादी की ऐसी सेनानी हैं, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान छिपकर कांग्रेस रेडियो चलाया था, भारत छोड़ो आंदोलन में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही थी. उषा मेहता को 1998 में पद्म विभूषण से नवाजा गया था. इन्हीं उषा मेहता की कहानी को फिल्म में दिखाया गया है.

पटना शुक्ला

ओटीटी मंच डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई रवीना टंडन की फिल्म पटना शुक्ला सामाजिक मुद्दे पर बनी एक काल्पनिक फिल्म है. ये एक हाउसवाइफ की कहानी जो वकील है, लेकिन मानी नहीं जाती. हर दिन वे अपनी पहचान पाने के लिए संघर्ष करती है. बाहर का काम संभालने के साथ ही घर भी संभालती है, लेकिन उसकी कद्र कहीं नहीं होती.

हालांकि एक समय ऐसा आता है, जब उन महिला वकिल के हाथ एक ऐसा केस लगता है, जो पूरे शिक्षा जगत में हलचल पैदा कर देने वाला होता है, लेकिन इसमें बड़े लोगों का हाथ और खौफ दोनों आशमिल होता है, तो वो पीछे नहीं हटतीं. वो इस शैक्षिक घोटाले को दुनिया के सामने लाती हैं और खुद अपने आप को भी इसी का शिकार पाती हैं.

इस साल कई अन्य फिल्में भी आईं, जैसे गुजरात के गोधरा कांड से कथित तौर पर जुड़ी ‘द साबरमती रिपोर्ट’, बस्तर, आर्टिकल 370, अटल, वीर सावरकर, जो किसी न किसी तरह देश या जनता से जुड़ी थीं, लेकिन इन फिल्मों को लेकर विवाद भी सामने आए और इन्हें प्रोपगैंडा फिल्में कहा गया. इनकी आलोचना हुई और तथ्यों को तोड़-मोड़कर पेश करने के आरोप लगे. हालांकि, समाज के एक वर्ग से इन्हें वाहवाही भी खूब मिली.