‘क्रिसमस केक माने बिस्कफार्म केक माने बिस्कफार्म फ़ेस्टिव केक, केकेर भेतोर बाक्शो ना कि बाक्शोर भेतोर केक?’
(क्रिसमस केक यानी बिस्कफार्म केक मायने बिस्कफार्म ख़ुशी का केक, केक के अंदर बक्सा है ना कि बक्से के अंदर केक?’)
कलकत्ता में आजकल दिन के किसी भी समय आप जब अपना पसंदीदा एफएम रेडियो स्टेशन लगाते हैं तो जिंगल बेल्स के चिर-परिचित झंकार के साथ उपरोक्त विज्ञापन गूंजने लगता है. बिस्कुट बनाने वाली यह कंपनी जिसे शायद अपने केक पर पूरा भरोसा नहीं है, केक के साथ आपको एयर-टाइट बक्से से लुभा रही है. हरेक रेडियो स्टेशन पर गानों के बीच ब्रेक के संगीतमय विज्ञापनों की जमघट में अधिकतर प्रस्तुतियां किसी न किसी तरह याद दिलाती हैं कि क्रिसमस का त्योहार बस आ पहुंचा है.
यह मौसम ही कुछ ऐसा है कि शहर की बेकरियों के अलावा खाद्य पदार्थ के बड़े-छोटे उत्पादक भी अपने-अपने केक और मिठाई के स्वाद का गुणगान करने में जुटे हुए हैं. एक बेकरी चेन अपने क्रिसमस केक के संग एक लीटर कोला देने का वादा कर रही है, तो एक रेस्तरां 25 दिसंबर तक 25 प्रतिशत की छूट. आप अंडा नहीं खाते? कोई बात नहीं, अमुक भुजियावाले आपकी सेवा में निरामिष केक पेश कर रहे हैं. शहर का एक मशहूर रेस्तरां जो अभी दो महीने पहले दुर्गा पूजा के दिनों उत्सव की बिरयानी का न्योता दे रहा था, वही अब क्रिसमस की बिरयानी के निमंत्रण की उद्घोषणा कर रहा है.
मगर विज्ञापन केवल केक और भोजन तक सीमित नहीं हैं. एक नामी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की दुकान भी आपके क्रिसमस को सुखदायक बनाने के लिए भारी रियायत देने का प्रण कर बैठी है. परंतु सारे विज्ञापन आपको कुछ ख़रीदने के लिए प्रेरित करने में ही नहीं लगे हुए है. उल्लास के इस मौसम में अपने से बदतर हालात वालों के बारे में भी सोचें, सैंटा क्लॉज़ धर्मदान पदयात्रा में भाग लेकर पुण्य कमाएं. और कम से कम दो एफएम स्टेशन हर सुबह ईसा मसीह की जीवन से प्रेरणात्मक कथाएं सुना कर आपके दिन का शुभारम्भ करने का प्रयास भी कर रहे हैं.
एफएम रेडियो ही क्यों आप बांग्ला टेलीविजन पर भी जिंगल बेल्स की धुन की गूंज और सैंटा क्लॉज़ की छवि को विज्ञापनों में पाएंगे. अगर आप कोलकाता शहर का एक चक्कर लगा लें तो जगह-जगह पर क्रिसमस की परंपरा के अनुसार सजावट देखने को मिलेगी. रास्ते हों या चौराहे, न्यू मार्केट जैसे पुराने बाज़ार हों या नए मॉल, उनकी जगमगाती साज-सज्जा और पूरे शहर में उत्सव का वातावरण देखकर आपको शायद लगे कि कोलकाता में ईसाई समुदाय की संख्या बहुत बड़ी है. यह एक भ्रम है. पूरे राज्य की तरह कलकत्ता में भी ईसाइयों की संख्या 1% से भी कम है.
इस महानगरी में क्रिसमस, बड़े दिन, के त्योहार को पूरे ज़ोर शोर से मनाए जाने के तीन मुख्य कारण हैं: एक, यहां के लोगों का परंपरा से गहरा लगाव, दो, सभी धर्मों के प्रति उनका आदर और तीन, हर छोटे-बड़े अवसर को उत्सव में परिवर्तित कर देने की बंगालियों की अनोखी प्रवृत्ति एवं अद्भुत प्रतिभा.
अचंभे की बात नहीं कि इन दिनों सूर्यास्त के बाद पार्क स्ट्रीट- शहर के मनोरंजन का पुराना केंद्र, अब आपको जगमगाता, गाता, थिरकता एक तिलिस्मी दुनिया में ले जाता है. 18 दिसंबर से नव वर्ष तक इस रास्ते पर गाड़ियों के आवागमन पर विराम लग जाता है, ताकि अधिक से अधिक लोग यहां लगे मेले का आनंद उठा सकें. लाखों छोटी-छोटी रंगीन बत्तियों से क्रिसमस से जुड़ी विभिन्न आकर्षक रचनायें तथा आकृतियां, ऊंचे स्वर का संगीत, उमड़ती भीड़, जगह-जगह केक-पेस्ट्री इत्यादि बेचने वाली अस्थाई दुकानें, उल्लासपूर्ण कोलाहल, युवा-युवतियों का स्वयं-स्फूर्त ख़ुशी का इज़हार- सब उत्सव के इस प्रांगण में सम्मिलित हो जाते हैं.
उत्तर कलकत्ता में बो-बैरेक्स तथा एंग्लो-इंडियन समाज के अन्य पुराने ठिकाने भी कुछ इसी तरह सज-संवर आगंतुकों की प्रतीक्षा करते दिखते हैं. रेडियो और टीवी पर बाक़ी बेकरी चाहे जितने इश्तिहार दे दें, कलकत्ता के शौक़ीन लोगों के निशाने में तीन बेकरियां ही होती हैं- न्यू मार्केट में नाहूम्स, न्यू मार्केट के पास ही सलदाना और पार्क स्ट्रीट पर फलूरीज़. क्रिसमस के एक सप्ताह पहले से ही दिन के ग्यारह बजे के बाद से इन तीनों बेकरियों के सामने हर वक्त दो-तीन सौ लोगों की ऐसी लंबी क़तार लगी रहती है मानो फ़्रूट केक की बिक्री नहीं अमृत का बंटन किया जा रहा हो.
महानगरी के पुराने क्लब भी क्रिसमस की तैयारी में कमर कस लेते हैं क्योंकि क्रिसमस की पूर्व संध्या पर हर क्लब में एक विराट जश्न का आयोजन किया जाता है तथा अगला दिन, यानी बड़ा दिन, मनाया जाता है दिन के पारंपरिक भोज से. आखिरकार कोलकाता में क्रिसमस की परंपरा काफी पुरानी है.
वास्तव में ईसाई धर्म बंगाल में अंग्रेजों के आने से पहले आ चुका था. इसे यहां लाने वाले पुर्तगाली थे जिन्होंने सन 1599 में हुगली जिले में स्थित बंदेल नामक जगह में पहले गिरजाघर का निर्माण किया. इस रोमन कैथोलिक गिरजा का नाम पड़ा बसिलिका ऑफ द होली मेरी. इसके 89 वर्ष बाद कलक़त्ता शहर में पहला गिरजाघर अर्मीनियन समुदाय ने 1688 में बनाया जिसके जल जाने के बाद 1724 में उसका पुनः निर्माण करना पड़ा.
आज यही ‘नैज़रेथ का अर्मिनियन’ गिरजाघर इस नगरी का सबसे पुराना गिरजा है. इसके अलावा कलकत्ता में और बहुत सारे गिरजाघर हैं जहां पहले की भांति अब भी अर्चना होती है, जैसे पुराना मिशन गिरिजा, संत जॉन गिरजा, संत पॉल कैथेड्रल और संत ऐंड्रू गिरजाघर.
हर साल की तरह इस बार भी हरेक गिरजाघर में प्रभु यीशु के जन्मदिन को धूमधाम से मनाने की प्रस्तुति काफ़ी पहले ही आरंभ हो गई थी. बड़ा दिन से कुछ दिनों पहले ही शाम को कैरल गीत गाने की रीति भी ईसाई समाज में ही नहीं बल्कि अन्य वर्गों में भी फिर उभर आती है. कलकत्ता के कई बड़े क्लबों में तो बड़े दिन से कुछ दिन पहले एक शाम कैरल संध्या के रूप मनाई जाती है. इस वर्ष संत पॉल कैथेड्रल के परिसर में बाइबिल की कथाओं से उद्धृत कई झांकियां भी ख़ूबसूरती से पेश की गई हैं.
बड़े दिन की पूर्व संध्या से ही हरेक गिरजा में मिस्सा, या पूजा सेवा, मनायी जाती है जिसमें लघु नाटकों के माध्यम से यीशु के जन्म की घटना को पुनः जागृत किया जाता है. मज़े की बात है कि अक्सर छोटे बच्चे इस लघु नाटक को प्रस्तुत करते है. 24 दिसंबर की मध्यरात्रि में रिवाज के अनुसार हरेक गिरजाघर में पूजा सेवा का आयोजन होता है जिसमें ठंड के बावजूद बहुत भीड़ रहती है. संत पॉल कैथेड्रल में तो बाहर तक लोगों का जमाव दिखता है. पहले ही बता दूं कि अगर आप भी वहां जाएंगे तो यह देखकर आप आश्चर्य न कीजिएगा कि वहां इकट्ठी विशाल जनसमूह में कई सारे लोग ईसाई नहीं बल्कि अन्य धर्मों के अनुयायी हैं.
चूंकि मैंने विदेश में कुछ क्रिसमस बिताए हैं, मुझे लगता है कि कलकत्ता में बड़ा दिन की सबसे ख़ास बात यह है कि यहां इस उत्सव की भावना में डूबकर जोश के साथ मनाने वाले सारे लोग ईसाई धर्म के अनुयायी नहीं हैं, ठीक उसी तरह जैसे दुर्गा पूजा के दौरान पूजा पंडालों में पहले वहां की निराली सजावट और अलंकार को निहार कर फिर मां दुर्गा को नमन करने वाले सभी लोग हिंदू धर्म के अनुगामी नहीं होते.
यह सही है कि कई लोगों के लिए बड़ा दिन वर्ष के अंत के जश्न का मुखौटा पहन कर आता है, लेकिन यह भी सच है कि हो-हुल्लड़ और खान-पान के मध्य क्रिसमस की जादुई और तेजपूर्ण आकृतियां दोनों ही फिर से जन मानस को मोहकर विलुप्त हो जाती हैं. जैसे दुर्गा पूजा आनंद के लहरों के मध्य ही बुराई के ऊपर अच्छाई की अवश्यम्भावी विजय की सूचना कर जाता है, बड़ा दिन भी रस की तरंगों के बीच शांति और सद्भावना की स्थायी प्रासंगिकता का स्मरण करा जाता है.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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