इतिहासकार अपर्णा वैदिक पर फ़ेसबुक, एक्स (पहले ट्विटर) और यूट्यूब के जरिए हमला हो रहा है. कानपुर में एक ‘लिट फ़ेस्ट’ में क्रांतिकारियों के मुक़दमे को लेकर लिखी गई उनकी नई किताब पर उनके साथ चर्चा की एक स्थानीय अख़बार में रिपोर्ट के आधार पर यह आक्रमण किया जा रहा है.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हमला करनेवालों ने उस रिपोर्ट की प्रामाणिकता की जांच करना ज़रूरी नहीं समझा. जो छपा है वह सत्य है, मानकर अपर्णा पर हमला शुरू कर दिया गया. रिपोर्ट ने आरोप लगाया कि अपर्णा वैदिक ने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के लिए अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग किया था. इतना पढ़ना काफ़ी था कि ख़ुद को क्रांतिकारी या क्रांतिकारियों के वारिस मानने वालों ने अपर्णा पर हमला बोल दिया.
आख़िर उनके देवता के बारे में ‘सांसारिक’ शब्दों का प्रयोग किया ही कैसे जा सकता है? डॉक्टर अपर्णा इतिहासकार हैं. एक विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं. उनकी चार किताबें प्रतिष्ठित प्रकाशकों ने छापी हैं. क्रांतिकारी उनके अध्ययन और शोध के विषय हैं. उनके व्यवहार, आचरण, निर्णयों के आलोचनात्मक विश्लेषण के बिना वे काम नहीं कर सकतीं. वे उनके लिए पूजनीय नहीं हैं. लेकिन हमला करनेवालों के लिए ये सारे तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं हैं. उनके आराध्य का अपमान किया गया है, यह खबर भर उनके लिए काफी है कि अपमान करनेवाली की हत्या कर दी जाए.
इस प्रकरण से हमारे समाज के स्वभाव के बारे में कुछ बातों का पता चलता है. वह यह कि तथ्य की सत्ता समाप्त हो चुकी है. तथ्य का पता करने और प्रमाण आदि की आवश्यकता भी ख़त्म हो चुकी है. उन लोगों के लिए भी जो दिन रात मिथक की जगह तथ्य को स्थापित करने का अभियान चलाते रहते हैं और जो कहते हैं कि किसी भी मान्यता के लिए पहले सबूत ज़रूरी हैं. सबूत खोजने की मेहनत कोई नहीं करना चाहता. लोग मनपसंद तथ्य चाहते हैं.
उसके साथ दूसरी बात यह कि हम सब मित्र की जगह शत्रु की खोज कर रहे हैं. मित्र बनाने के श्रम कौन करे? बिना खोजे शत्रु मिल जाने का आनंद कहीं अधिक बड़ा है. शत्रु देखते ही उसपर टूट पड़ना है. हमारा पहला स्वभाव प्रतिक्रिया और आक्रमण का है. एक अल्पज्ञात स्थानीय अख़बार की रिपोर्ट पर भरोसा क्यों करें जब हम जानते हैं कि हमारे अख़बार प्रायः असत्य के प्रचारक बन चुके हैं? जो कहते हैं कि आज छपनेवाली खबर और जो दिख रहा है उस पर संदेह करना ही हमारा कर्तव्य है.
चौथी बात यह कि हम सबके अपने देवता हैं जिनके बारे में ऐसा कुछ भी हम सुन नहीं सकते जिससे उनकी शान में गुस्ताखी हो. तो पहले इस घटना के तथ्य जान लें. कानपुर के एक ‘लिट फ़ेस्ट’ में डॉक्टर अपर्णा वैदिक से उनकी किताब ‘ Revolutionaries on trial: Sedition, Betrayal and Matyrdom’ पर एक युवा अध्येता ईशान शर्मा चर्चा कर रहे थे.
चर्चा के दौरान क्रांतिकारियों के व्यक्तित्व की जटिलता (complexity) का ज़िक्र आया. उसके लिए ईशान हिंदी का शब्द खोज रहे थे. उन्होंने ‘दोहरा’ शब्द का इस्तेमाल किया. उसे वहीं रद्द कर दिया गया. फिर बहुरूपी शब्द सुझाया गया. वह भी मुनासिब न पाया गया. यह उधेड़बुन श्रोताओं के साथ चल रही थी. अपर्णा ने स्पष्ट किया कि वे कॉम्प्लेक्सिटी की बात करना चाहती हैं. इसके बाद चर्चा आगे बढ़ चली.
अपर्णा ने आगे भगत सिंह के बारे में कुछ मज़ेदार बातें सुनाईं: कि वे खाने पीने के शौक़ीन थे, मौज मस्ती उनके स्वभाव का हिस्सा थे, जेल में कैसे वे अधिकारियों को छकाते थे. जिन्होंने भगत सिंह के बारे में उनके मित्रों के संस्मरण पढ़े हैं, वे इन सारी बातों से वाक़िफ़ हैं. यह भी कि वे जो चार आना उन्हें पार्टी की तरफ़ से मिलता था उससे वे सिनेमा देख आते थे, कि वे अपने दोस्तों के हिस्से का खा जाते थे.
अपर्णा भगत सिंह और उनके मित्रों के व्यक्तित्व के इस पक्ष की चर्चा कर रही थीं: वे इंसान थे और नौजवान थे. इन सबकी चर्चा से भगत सिंह की छवि कैसे धूमिल होती है, उनका अपमान कैसे होता है, यह समझना मुश्किल है. अगर आप पूरी चर्चा का वीडियो देखें जो यूट्यूब पर उपलब्ध है तो पाएंगे कि शब्दों के चुनाव को लेकर वक्ताओं और श्रोताओं के बीच ऊहापोह है लेकिन उसके बाद पूरी चर्चा आराम से होती है.
मात्र एक श्रोता हैं प्रश्नोत्तर के दौरान जो ‘दोहरा’ शब्द के इस्तेमाल पर फिर एतराज ज़ाहिर करते हैं. अपर्णा स्पष्ट करती हैं कि यह शब्द तो उसी वक्त वापस ले लिया गया था. बात ख़त्म हो जाती है. लेकिन इसे एक स्थानीय अख़बार ‘अमृत विचार’ में विवाद की शक्ल में पेश किया जाता है.
‘अमृत विचार’ जैसे अख़बार में छपे शब्दों को उन सबने अमृत वचन मानकर पी लिया जो ख़ुद बार-बार हर छपे लफ्ज की जांच करने को कहते हैं. उसकी बात इसलिए भी पुष्ट होती है कि आयोजक बचने के लिए माफी मांग लेते हैं. किसी की भावना आहत करने का उनका इरादा न था और आगे से सावधानी बरती जाएगी, ऐसा कहकर वे मुक्त हो जाना चाहते हैं. उन्हें तो अख़बार द्वारा पूरे प्रसंग को विकृत किए जाने की आलोचना करनी चाहिए थी और अपनी वक्ता की तरफ़ से बात करनी चाहिए थी.
ऐसा न करके उन्होंने माफी मांगकर मामले को रफ़ा दफ़ा करने का आसान रास्ता खोजा. ऐसा क्यों हुआ, इस पर विचार करना ज़रूरी है. प्रसंग का उतना महत्त्व नहीं जितना उसपर हुई प्रतिक्रिया का है. इससे यही मालूम होता है कि हम उत्तेजित किए जा रहे हैं या ख़ुद उत्तेजना की तलाश कर रहे हैं. इसके कारण सार्वजनिक विचार विमर्श धीरे-धीरे असंभव होता जा रहा है. आख़िर सोचने-समझने के लिए कुछ स्थिरता और शांति की आवश्यकता है. कुछ समय की ज़रूरत भी है.
लेकिन हम सब, एक समाज के तौर पर अब किसी विषय या घटना पर विचार नहीं करते, हमेशा प्रतिक्रिया करते हैं. वह भी फ़ौरन. तुरंता प्रतिक्रिया की इस संस्कृति का पहला शिकार विचार होता है या विचार करने की क्षमता होती है.
वैसे लोग भी जो ख़ुद को बौद्धिक कहते हैं, लेकिन जो सार्वजनिक क्षेत्र में हैं या उसमें हस्तक्षेप करते रहना चाहते हैं, किसी भी घटना पर फ़ौरन प्रतिक्रिया देने के प्रलोभन का संवरण नहीं कर पाते. क्या उन्हें भय होता है कि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो वे अप्रासंगिक हो जाएंगे?
वे भूल जाते हैं कि हड़बड़ी या जल्दबाज़ी से बौद्धिकता का रिश्ता शत्रुता का है. यह भी दिलचस्प है कि हर कोई, हर विषय पर बोलने के लिए ख़ुद को योग्य पाता है. समाज से विद्वत्ता या विशेषज्ञता का लिहाज़ ख़त्म होता जा रहा है. शायद ही कोई यह कहने की विनम्रता रखता हो कि वह उस विषय पर नहीं बोल सकता.
साथ ही यह संकोच भी ख़त्म हो गया है कि हम किसी विषय के जानकार या विशेषज्ञ की उस विषय से जुड़ी बात पर टिप्पणी करने के पहले दो मिनट सोचें. उस विशेषज्ञ ने समय लगाया है, अभिलेखागार में दस्तावेज़ों को खंगाला है, घटनाओं, व्यक्तियों के बीच के रिश्तों को समझने की कोशिश की है. इन सबका उनके लिए कोई महत्व नहीं जिनके पास इनमें से कुछ नहीं, सिर्फ़ उनके हिसाब से सही राय भर है.
टिप्पणी करनेवालों में वे लोग हैं जो ख़ुद को ज़िम्मेदार मानते हैं. तो टिप्पणी करने के पहले तथ्यों को जांच का ज़िम्मा भी उनका था. वह उन्होंने क्यों नहीं किया? क्या वे यह कहकर बच जाएंगे कि उनके पास वक्त नहीं था? जिस प्रसंग को ख़ुद नहीं जानते, उसपर टिप्पणी करने की ही जल्दी क्या थी?
इस प्रसंग से एक बात ज़ाहिर होती है कि हम सबकी जिम्मेदारी वातावरण को उत्तेजना मुक्त करने की है. हड़बड़ी और जल्दबाज़ी की संस्कृति के मुक़ाबले ठहराव की संस्कृति की स्थापना की ज़िम्मेदारी हमारी ही है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)