नई दिल्ली: सोमवार (6 जनवरी) को केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों और शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति और पदोन्नति के लिए न्यूनतम योग्यता और उच्च शिक्षा में मानकों के रखरखाव के उपाय) विनियम, 2025 का मसौदा पेश किया, जिसमें कुलपति और फैकल्टी नियुक्तियों के लिए चयन प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं.
यूजीसी के नए नियम राज्यों में राज्यपालों को कुलपतियों की नियुक्ति के लिए व्यापक अधिकार प्रदान करते हैं. साथ ही कहते हैं कि अब वीसी का पद शिक्षाविदों तक सीमित नहीं है, बल्कि उद्योग विशेषज्ञों और सार्वजनिक क्षेत्र के दिग्गजों को भी वीसी बनाया जा सकता है.
नए नियमों में कहा गया है, ‘कुलपति/विजिटर तीन विशेषज्ञों वाली खोज-सह-चयन समिति (Search-cum-Selection Committee) का गठन करेंगे.’ पहले, नियमों में उल्लेख किया गया था कि कुलपति के पद के लिए इस समिति द्वारा गठित 3-5 व्यक्तियों के पैनल द्वारा उचित पहचान के माध्यम से किया जाना चाहिए, लेकिन यह निर्दिष्ट नहीं किया गया था कि समिति का गठन कौन करेगा.
उल्लेखनीय है कि राज्यपाल कई सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (चांसलर) होते हैं. इस कदम से कुलपति नियुक्तियों की गतिशीलता में संभावित रूप से बदलाव आ सकता है, खासकर तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे विपक्षी शासित राज्यों में, जहां सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है.
इस मुद्दे पर तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के साथ चल रही खींचतान के बीच मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने मंगलवार को कहा कि यूजीसी के नए नियम राज्यपालों को कुलपतियों की नियुक्तियों पर व्यापक नियंत्रण प्रदान करते हैं और गैर-शैक्षणिक लोगों को इन पदों पर रहने की अनुमति देते हैं, जो संघवाद और राज्य के अधिकारों पर सीधा हमला है.
स्टालिन ने एक्स पर लिखा, ‘यूजीसी के नए नियम राज्यपालों को कुलपति नियुक्तियों पर व्यापक नियंत्रण प्रदान करते हैं और गैर-शैक्षणिक लोगों को इन पदों पर रहने की अनुमति देते हैं, जो संघवाद और राज्य के अधिकारों पर सीधा हमला है. केंद्र की भाजपा सरकार का यह सत्तावादी कदम सत्ता को केंद्रीकृत करने और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई राज्य सरकारों को कमजोर करने का प्रयास करता है. शिक्षा को लोगों द्वारा चुने गए लोगों के हाथों में रहना चाहिए, न कि भाजपा सरकार के इशारे पर काम करने वाले राज्यपालों के हाथों में.’
उन्होंने कहा, ‘तमिलनाडु, जो देश में सबसे ज़्यादा शीर्ष रैंकिंग वाले उच्च शिक्षा संस्थानों (एचईआई) के साथ सबसे आगे है, चुप नहीं बैठेगा क्योंकि हमारे संस्थानों की स्वायत्तता छीन ली गई है. शिक्षा हमारे संविधान में समवर्ती सूची के तहत एक विषय है और इसलिए हम यूजीसी द्वारा एकतरफा इस अधिसूचना को जारी करने के कदम को असंवैधानिक मानते हैं. यह अतिक्रमण अस्वीकार्य है और तमिलनाडु कानूनी और राजनीतिक रूप से इसका मुकाबला करेगा.’
कई जगह से उठे विरोध के स्वर
वहीं, केरल के उच्च शिक्षा विभाग ने भी यूजीसी के नए नियमों का विरोध किया.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च शिक्षा मंत्री आर. बिंदु ने मंगलवार को कहा, ‘यह भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा उच्च शिक्षा क्षेत्र में अपने भगवाकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाने और राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण हासिल करने के निरंतर प्रयासों का हिस्सा है.’
कुलपतियों की नियुक्ति के लिए खोज-सह-चयन समिति के गठन को लेकर वाम मोर्चा सरकार और पूर्व राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच लंबे समय से टकराव चल रहा था, दोनों ने ही मानदंडों के उल्लंघन का आरोप लगाया था.
उन्होंने कहा कि उनका विभाग राज्यपाल (जो राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं) को चयन समिति गठित करने के अधिकार देने के कदम पर अपना कड़ा विरोध दर्ज कराएगा. मंत्री ने कहा कि इस बारे में व्यक्तिगत रूप से केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को भी अवगत कराया जाएगा.
उन्होंने आरोप लगाया, ‘केंद्र सरकार देश में उच्च शिक्षण संस्थानों पर शक्तियों के केंद्रीकरण को बढ़ाने के लिए यूजीसी का इस्तेमाल एक प्रलोभन के रूप में कर रही है.’
मसौदा नियम उद्योग, सार्वजनिक नीति, प्रशासन या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में वरिष्ठ पदों पर आसीन व्यक्तियों को विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए पात्र बनाता है, भले ही वे प्रोफेसर न हों.
एक अन्य महत्वपूर्ण बदलाव में यूजीसी ने फैकल्टी नियुक्तियों में लचीलापन पेश किया है, जिससे व्यक्ति यूजीसी-नेट में अपने प्रदर्शन के आधार पर पदों के लिए अर्हता प्राप्त कर सकते हैं, चाहे उनके स्नातक और स्नातकोत्तर विषय कुछ भी हों. इस परिवर्तन का उद्देश्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में परिकल्पित एक अधिक बहु-विषयक शैक्षणिक वातावरण को बढ़ावा देना है.
यूजीसी ने हितधारकों और जनता को 30 दिनों के भीतर मसौदा विनियमों पर टिप्पणी देने के लिए आमंत्रित किया है. एक बार लागू होने के बाद ये नियम केंद्रीय, राज्य, निजी और डीम्ड विश्वविद्यालयों पर लागू होंगे.
छात्र संगठन और शिक्षकों ने फैकल्टी नियुक्तियों पर नए यूजीसी मसौदा नियमों पर सवाल उठाए
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, वामपंथी छात्र संघ – स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) ने मंगलवार (7 जनवरी) को एक बयान में कहा है कि वह सोमवार को जारी किए गए यूजीसी (विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों और शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति और पदोन्नति के लिए न्यूनतम योग्यता और उच्च शिक्षा में मानकों के रखरखाव के उपाय) विनियमन, 2025 के मसौदे को खारिज करता है.
एसएफआई ने कहा कि यह नियम परिसरों को ‘केंद्रीकृत और कॉरपोरेटीकरण’ करने का एक और प्रयास है.
एसएफआई नेता मयूख बिस्वास और वी.पी. सानू ने कहा कि संशोधित नियमों ने राज्यपालों को कुलपतियों के चयन में अधिक अधिकार प्रदान किए हैं. उन्होंने कहा, ‘यह बिल्कुल स्पष्ट है कि साक्षात्कार और अंतिम चयन के लिए उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट करने की प्रक्रिया बहुत अस्पष्ट है: किसे बुलाया जाएगा, इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.’
उन्होंने कहा कि मसौदे में पहली बार उद्योग विशेषज्ञों और सार्वजनिक क्षेत्र के दिग्गजों को कुलपति की भूमिका के लिए विचार करने की अनुमति दी गई है.
एसएफआई ने कहा, ‘यह विशेष रूप से शिक्षाविदों की नियुक्ति की लंबे समय से चली आ रही प्रथा से अलग है और शैक्षणिक क्षेत्र में कॉरपोरेट संस्कृति का परिचय देता है. यह एक मुख्य विषय में विशेषज्ञता को खत्म करके फैकल्टी की गुणवत्ता को बहुत कमज़ोर कर देगा और भर्ती में चयन समिति को 100% महत्व दिया जाएगा जो प्रकृति में व्यक्तिपरक है और शैक्षणिक योग्यता, शोध प्रकाशनों और शिक्षण अनुभव को कोई श्रेय नहीं देता है.’
वहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की कार्यकारी समिति के सदस्य रुद्राशीष चक्रवर्ती ने कहा कि भर्ती मानदंड राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सामान्य पाठ्यक्रमों पर जोर देने का समर्थन करते हैं, जो खराब और घटिया है.
उन्होंने कहा, ‘भर्ती मानदंड अत्याधुनिक शोध से हटकर मौजूदा ज्ञान को दोहराने पर ध्यान केंद्रित करने की ओर बदलाव को दर्शाता है. क्योंकि मुख्य योग्यता को समाप्त कर दिया गया है. शिक्षकों के लिए एक सप्ताह में सीधे शिक्षण के लिए लगाए जाने वाले अधिकतम घंटों का कोई उल्लेख नहीं है. कार्यभार बढ़ाने और नौकरियों को कम करने की एक खतरनाक चाल है.’