धान के खेत में छोटी मछलियां बेचैन थीं. उन्हें लगा अचानक क्या हो गया है? छोटी मछलियों के भी बच्चे होते हैं. वे और ज्यादा छोटी होती हैं. मुंडारी भाषा में उन्हें ‘गुदनू’ कहा जाता है. उन बच्चों को समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है? लेकिन उनके अभिभावकों की बेचैनी और भागदौड़ उन्हें परेशान कर रही थीं. कुछ तो ज़रूर गड़बड़ है! गड़बड़ क्या है?
दरअसल धान की फसलों की कटाई हो रही थी. दोन वाले धान यानी पानी खेत के धान. झारखंड जैसे पठारी-पहाड़ी प्रदेश में धान के खेतों के कई प्रकार होते हैं और उन्हीं प्रकारों के अनुसार धान के बीज भी होते हैं. दोन वाले खेतों की कटाई अमूमन दिसंबर के माह के आखिर में होती है. लेकिन अब धान के खेतों की कटाई नवंबर के मध्य तक हो जा रही है. यानी जल्दी फसल की कटाई हो रही है. इसकी वजह है हाइब्रिड बीज. अब दूर दराज के जंगली क्षेत्रों में भी सरकारी और निजी प्रयासों से हाइब्रिड बीज पहुंच रही हैं. रासायनिक खाद और उर्वरक पहुंच रहे हैं.
हाइब्रिड बीज के धान जल्दी तैयार हो जाते हैं. इसलिए अब दिसंबर-जनवरी तक इंतज़ार नहीं करना पड़ता है. कह सकते हैं कि जल्दी तैयार होने से दूसरे कामों के लिए अवसर मिल जाता होगा. लेकिन नहीं. जल्दबाज़ी अगर प्रकृति के विरुद्ध हो तो हानिकारक होती है. यह सिर्फ इंसानों को नहीं बल्कि पूरी परिस्थितिकी को प्रभावित करता है. और यही वह कारण है जिसकी वजह से छोटी मछलियों में बेचैनी है. वे भय के माहौल में हैं.
इस बार सोहराई की छुट्टियों (गैर आदिवासी समाज के हिसाब से दीपावली के समय) में जब मैं गांव गया था तो मां ने कहा फसल तैयार है. अब कटाई करनी है. मैंने कहा इतनी जल्दी दोन का धान तैयार हो गया? जब हम धान की फसलों की कटाई कर रहे थे तब मैंने देखा खेत में छोटी मछलियों के बच्चे ‘गुदनु’ डर से इधर-उधर भाग रहे थे. यद्यपि हमने खेत की मेड़ पर ‘कुमनी’ लगाया था मछलियों को पकड़ने के लिए. जिया, पोठी, गेतु, मागुर, केकड़ा, घोंघा अमूमन धान के खेतों में होते हैं. पोठी के बच्चों को देखकर मुझे समझ आया क्यों वे इतनी बेचैन हैं?
दरअसल बारिश के दिनों में जब पहाड़ी नदियां उफान पर होती हैं तब सभी मछलियां ऊपर की ओर नदी छोड़कर चढ़ती हैं. वे ऊपर चढ़कर गढ़ा, डोभा या पहाड़ी झरनों में चली आती हैं. इसी के साथ बहुत बड़े पैमाने पर मछलियां धान के खेतों में चली आती हैं. वे धान के खेतों में अंडे देती हैं. यहीं उनके बच्चे जन्म लेते हैं. बड़े होते हैं और समय चक्र पूरा होते-होते वे धान पकने के समय वापस नीचे नदियों में लौट जाती हैं. यह उनका पूरा जीवन चक्र है.
चूंकि हाइब्रिड धान के बीज समय से पहले तैयार हो जा रहे हैं इसलिए मछलियों के बच्चों के बड़े होने से पहले ही धान की कटाई हो जा रही है. यह कटाई उनके जीवन चक्र को असमय प्रभावित कर रही है. यह उनकी ज्ञान परंपरा में दखल है. उनके जीवन चक्र में असमय दखल. इस नए दखल से वे अपने अस्तित्व संकट में फंस रही हैं. यही वह कारण है जिससे मछलियों का पूरा समुदाय बेचैनी से भरा हुआ है.
मैं सोचता हूं छोटी मछलियों के इस दुख को कौन सुनता होगा?
मैंने कभी इनके बारे में बड़े-बड़े जीवविज्ञानी को बात करते हुए नहीं सुना, क्योंकि बड़ी मछलियां ही बड़े फायदे के होती हैं. यह चुनाव ही तो है! हां, ताकतवर का चुनाव. निर्धारित पारिस्थितिकी के बदलने से होने वाली मछलियों की यह मानसिक पीड़ा अस्तित्व संकट के न जाने कितने प्रतीकों को उभार रही है.
क्या यही बात फिलिस्तीनी बच्चों और उनके परिवार के बारे में नहीं कही जा सकती है?
क्या यही बात रूस-यूक्रेन के युद्ध में फंसे समाज में नहीं घटित हो रही होगी?
क्या यही बात बस्तर के आदिवासी समुदायों के बच्चों के बारे में नहीं कही जा सकती है? जहां बच्चे युद्ध के माहौल में जी रहे हैं और मां की गोद में अबोध बच्चे गोली का शिकार हो जा रहे हैं. और एक सरकारी जवाब हवा में उड़ा दिया जाता है- क्रॉसफायर में मारे गए बच्चे!
क्या यह बात मणिपुर की नहीं ही सकती है? जहां लगी आग दिल्ली को आग नहीं लगा रही है. कितनी विडंबना है कि मणिपुर की आग कुछ लोगों के लिए सत्ता साधने की आग बन गई है.
और कितने उदाहरण दिए जाएं? क्या हम इसके लिए सूडान जाएं? या जाएं चाड?
बात यह है कि हमारी सभ्यता का भविष्य क्या है? क्या हमने यह मान लिया है कि हाइब्रिड बीज ही हमारी भूख का उपाय है? या, हमने कभी इस पर ग़ौर किया कि यह सभ्यता देशज बीजों के अपहरण की सभ्यता बन चुकी है. यह सभ्यता जैविकता के ध्वंस और कृत्रिमता के घटाटोप शिखर की सभ्यता हो गई है.
अगर हम ग़ौर करें तो पाते हैं कि हमारे पैर इसी दलदल में फंसे हैं. हमारी ज़बान इसी के लासा से चिपकी है और हमारी बुद्धि इसी की गिरवी हो चुकी है. क्या हम अपनी इस सदी में अपनी प्रियतमा को नाज़िम हिक़मत की तरह याद कर सकते हैं? नाज़िम कहते हैं –
‘मुसीबतों की मारी मेरी यह सदी
शर्म से झेंपी हुई
हिम्मत से भरी हुई मेरी यह सदी
बुलंद और दिलेर
मुझे कभी अफ़सोस नहीं हुआ
कि क्यों इतनी जल्दी पैदा हो गया.’
मैंने जब लिखना शुरू किया तब मैं सातवीं का छात्र था. यूं तो नाज़िम हिक़मत ने जिस सदी के लिए अपने ‘जानेमन की आंख’ को याद किया था, वही मेरी लेखनी के उद्भव की सदी है, लेकिन वह उसका आख़िरी दशक था. यानी बीसवीं सदी का अंतिम पड़ाव. उसके तुरंत बाद इक्कीसवीं सदी का आरंभ था, जहां मेरी कलम को जवान होना था और इसी में उसे बूढ़ा भी होना है.
नाज़िम की यह सदी कई मामलों में मेरी सदी के लिए निर्णायक बनी. इसी सदी में भारत में नव उदारवाद का प्रवेश हुआ. इसी समय बाबरी मस्जिद भी ध्वंस हुआ. इसी समय मंडल कमीशन ने जातीय और वर्गीय संरचना में दबे अति पिछड़ों पर रोशनी डाली. इसी समय मेरा प्रांत झारखंड, ऐतिहासिक अन्यायों को समेटे हुए ‘आंतरिक उपनिवेशवाद’ के विरुद्ध उद्घोष कर रहा था.
यही वह समय है जब मैं बड़ा हो रहा था और जंगल माफियाओं-दिकुओं-अधिकारियों के अवैध गठजोड़ के खिलफ़ हथियार बंद होकर क़ुर्बानी दे रहे अपने जनों को देख रहा था, अपने परिवेश को जी रहा था. मैं देख रहा था यह सदी नाज़िम की कही गई बातों की तरह ही ‘शर्म से झेंपी’ हुई सदी थी और साथ-ही-साथ ‘हिम्मत और उम्मीद’ की सदी भी थी. शर्म उनके लिए जो हमारे जंगलों में, नदियों में और हमारी ज़मीन पर अपना वर्चस्व ढूंढ़ रहे थे और हिम्मत और उम्मीद उनकी, जो अपने अस्तित्व को, अपनी गरिमा को बचाये रखने के लिए शहादत दे रहे थे.
बीसवीं सदी के शर्म ने इक्कीसवीं सदी में और ज्यादा बेशर्म होकर प्रवेश किया है. और हिम्मत और उम्मीद का क्या हुआ?
मेरी समझ में इक्कीसवीं सदी की हिम्मत और उम्मीद अभी अल्प-वयस्क है. यह लगभग किशोर ही है. वह भावुक है और उसकी भावुकता अधिकांशत: धर्म और आस्था जैसे सबसे नाज़ुक विषयों पर केंद्रित हो रही है. उसकी करुणा कथित आस्था से निर्देशित है और आस्था आज की तारीख में स्वायत्त नहीं रही. उसकी संस्थाओं को मुनाफ़ा ने जकड़ लिया है और मुनाफ़ा ने आधुनिकता की उपज, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को अपने नियंत्रण में ले लिया है. आस्थाएं साम्यवाद को परंपरागत शत्रु की तरह तो देखती ही हैं लेकिन उन्होंने समाजवाद को धरकर उसे अपनी कुंडली में बैठा लिए हैं.
समाजवाद यानी धर्म का समाजवाद, जाति और नस्ल का समाजवाद, रंग का समाजवाद, क्षेत्र का समाजवाद, पूंजी का समाजवाद. क्या अपनी संकीर्णता का जस्टिफिकेशन बन गया है समाजवाद? यह भावुकता ऐसी कि यह अपने समाज के सबसे विध्वंसकारी भावना को अपना ‘पवित्र कर्म’ मान बैठी है. यह विद्वेष को अपना ‘धर्म’ मान बैठी है. और तो और यह आस्था के पुष्पक विमान पर सवार होकर मानवीय और संवैधानिक मूल्यों के विरुद्ध जाकर अपना अनुष्ठान कर रही है. अब संभवतः इस सवाल पर विचार करना ही निषिद्ध कर दिया जाएगा कि हजारों बरस पुराने आस्था गृहों के लिए क्यों झगड़े खड़े किए जाएं?
मसला सिर्फ बाबरी मस्जिद या राम मंदिर का ही नहीं, यह मसला तो यरूशलेम का भी है. मसला तो हाया सोफिया का भी है- एक इमारत जो कभी चर्च रही, फिर उसे मस्जिद बनाया गया. उसके बाद वह न चर्च रहा न मस्जिद, वह संग्रहालय बन गया, लेकिन फिर उसके बाद वह मस्जिद घोषित हो गया.
ईंट-गारे और पत्थरों से बनी इमारतें भी इंसानी नफरतों पर दुख जाया करती होंगी! क्यों अतीत में किसी के किए गए अत्याचारों को वर्तमान की चाशनी में जबरदस्त घोल कर घोंटा जाए? हमारी सभ्यता की यात्रा प्रगतिशील होनी चाहिए या अतीतोन्मुख?
शायद इसीलिए गोह इंसानों को देख कर हंसते होंगे. गोह कहते होंगे-‘ देखो इंसानों को, जिन्होंने हमें रेंगने वाला जीव कहा, आज वे ही रेंगते हुए अतीत की गुफा में कैद हो रहे हैं’. शायद गोह का यह कटाक्ष इंसान बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं इसलिए उन्होंने गोह की प्रजाति को ही विलुप्त करने का बीड़ा उठा लिया है! इस सदी को देखकर तो यही लगता है. यह सदी सवाल उठाने वालों को सलाख़ों में क़ैद करने वाली सदी हो रही है.
जैसे आस्था अब धर्म नहीं देश हो गई है. किसी धार्मिक मान्यताओं से जुड़े विवाद देशभक्ति के प्रतीक बन रहे हैं. अगर किसी धार्मिक स्थल के विवाद से प्रतीक खड़ा करके देशभक्ति का नैरेटिव तैयार किया जाएगा तो फिर उन किसानों का क्या होगा जो कई बार सही दाम नहीं मिलने की वजह से अनाज बहा देते हैं. उन मज़दूरों का क्या, जो आज भी दवा के खर्चे न होने के कारण जिनके बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं और वे भी मज़दूर बनकर स्कूल ड्रेस को चिढ़ाते हैं? उन विद्यार्थियों का ही क्या जिनके अभिभावक खून-पसीना एक करके बच्चे की फीस देते हैं और डिग्री लेकर नौकरी के लिए निकले बच्चे सड़कों पर पुलिस की लाठियां खाते हैं?
अगर पुराने धार्मिक विवादों को ही प्रतीक बनाना है तो फिर आइए खेलते हैं झगड़ा-झगड़ा! तुम जिसे अपनी महान आस्था का केंद्र बना रहे हो वहां कोई आदिवासी आकर कहेगा कि जिन दिनों तुम्हारे महापुरुषों का अस्तित्व नहीं था उन्हीं दिनों उन स्थानों को हमारे पुरखों ने आबाद किया था. तुमने हमें भगाया और सब पर कब्ज़ा कर लिया.
क्या आप बता सकते हैं कि आदिवासियों की आदिम धार्मिक भावनाओं को किसने उखाड़ा? क्या आप बता सकते हैं कि सारे असुर आपके शास्त्रों में राक्षस क्यों हो गए? क्या आप असुर समुदाय की कवयित्री सुषमा असुर को इस सवाल का जवाब दे सकते हैं? वह अपने पुरखों की छवि किसमें देखे?
दरअसल मैं ऐसी आस्था से भागता हूं. लेकिन ग़ौर करें, मैं आस्थावान आदमी ही खोजता हूं. उसी खोज में कविता के पास जाता हूं. कविता में मुझे सबीर हाका मिलते हैं. वे कविता में अपने पिता को याद करते हुए लिखते हैं-
‘मेरे पिता मज़दूर थे
आस्था से भरे हुए इंसान
जब भी वह नमाज़ पढ़ते थे
अल्लाह उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था.’
मुझे भी सबीर हाका के पिता जैसे आस्थावान आदमी चाहिए जिसे देखकर अल्लाह को भी शर्म आए. शर्म की मुनासिब वजह हो.
धर्म के नाम के हत्यारों से होने वाले ईश्वर का शर्म मुझे नहीं चाहिए, न ही वैसा आस्थावान आदमी चाहिए. इसीलिए फिर मैं गांधी के पास जाता हूं. मैं देखता हूं महात्मा एक युवा अंग्रेज पादरी वेरियर एल्विन से बात कर रहे हैं. वह युवा अंग्रेज भारत में ईसा के साम्राज्य के लिए गरीबों की सेवा करना चाहता है. गांधी उसे कह रहे हैं, ‘किसी धर्म की सच्ची सेवा धर्मांतरण में नहीं बल्कि और सच्चा हिंदू होने, सच्चा ईसाई होने, सच्चा मुसलमान होने में है.’
यह सुनकर उस युवा अंग्रेज के कान की जाली फट गई. ऐसी कान की जाली फटनी ही चाहिए जो एक ही प्रार्थना सुनने को अभ्यस्त हो! उसके बाद वह युवा अंग्रेज कुजात ईसाई हो गया. प्रेमचन्द ने भी तो कहा कि नाम के मुसलमान, नाम के हिंदू रह गए हैं. न कहीं सच्चा मुसलमान नज़र आता है, न सच्चा हिंदू. बिना ‘कर्म’ के कैसी आस्था?
इक्कीसवीं सदी अल्पवयस्क में ही शर्म से झेंपी सदी बन रही है. तब क्या करे एक कवि? लेखक क्या करे? बेशर्म होकर झंडा फहराए संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों का? या, कसीदे लिखे बच्चों के हत्यारों के लिए? या, युद्ध के सौदागरों के लिए विज्ञापन लिखे? अगर यही लिखना है तो फिर लिखना क्यों? लेखक क्यों?
मेरी कलम मुझे ऐसे ही कुरेदती है. नोंच डालना चाहती है मुझे ही. कहती है कि तुम्हारी चमड़ी के अंदर जो चर्बी जम रही है वह बेशर्मी की चर्बी है उसे गला डालो. जब तक न गले यह चर्बी, तो फिर क्या कबीर, क्या मुक्तिबोध, क्या नेरुदा क्या वर्जिनिया वुल्फ? और तो और क्या ही मंसूर, क्या ही नजीर, क्या ही मार्क्स और क्या ही गांधी और लोहिया? सबको तुमने अपने खून में घुलाया नहीं, सांसों का छन्नी बंधा हुआ है नाक में.
घोंट-घोंटकर निगली गई विचारधारा न देह में घुलती है न आत्मा में पिघलती है. छद्म विचारधारा की स्याही से कागज का रंग बदलता है जीवन का नहीं. पहले जीवन है फिर कागज. विचारधारा अगर है तो उसे कागज़ से ज़्यादा जीवन में रंगो. मेरी कलम मुझे लताड़ती है. मुझे पटकती है जैसे आदिवासी चिकित्सा पद्धति ‘होड़ोपैथी’ के पितामह पीटर पॉल हेम्ब्रम बाबा को उसकी ही आत्मा परीक्षण के दौरान उन्हें उठाकर पटक देती थी. कलम कहती है यह इक्कीसवीं सदी है इसमें बीसवीं सदी की हिम्मत जितनी नहीं है उससे ज़्यादा बीसवीं सदी की शर्म है.
मुझे आदिवासी पुरखों का एक गीत याद आता है. मुंडा आदिवासी सरहुल में एक गीत गाते हैं- ‘ने समय रसिका बोड़े रसिका रे /हन समय रिझुवर चिल्का तैय केना.’ अर्थात्, ‘यह दौर बहुत उल्लास का दौर है. पता नहीं पिछले युग में नृत्य-गान का जुनून कैसा था?’
संभवतः अपनी स्वायत्तता की ख़ुशी में उन पुरखों ने यह गीत गाया होगा. अगर हम इस गीत के भाव को अपने भविष्य के बारे में पलट दें तो कहना होगा- ‘पिछले युग में नृत्य-गान का जुनून था. पता नहीं अब क्या होगा?’ यह बदला हुआ भाव क्या धान के खेतों की उन छोटी मछलियों का कथन नहीं बन जाएगा, जो बेचैन हैं असमय उनके जीवन में दखल से? भाव तो बिल्कुल जुड़ जाएगा लेकिन फिर नाज़िम हिक़मत आ जाते हैं जिन्होंने अपनी प्रियतमा से कहा था-
‘मरती और फिर-फिर पैदा होती हुई मेरी सदी
मेरी सदी, जिसके आख़िरी दिन ख़ूबसूरत होंगे
सूरज की रोशनी जैसी खुल-खुलेगी मेरी सदी
जानेमन, तुम्हारी आंखों की तरह.’
क्या नाज़िम की ‘मरती और फिर-फिर पैदा होती’ सदी के आखिरी दिन ‘ख़ूबसूरत’ हुए उनकी ‘जानेमन की आंख’ की तरह? जवाब है- नहीं. दुनिया ने नाज़िम को यातनाएं दी, लेकिन कविता ने उसे उम्मीद दी. नाज़िम की यातनाएं अब मेरी सदी की, मेरी यातनाएं बन चुकी हैं.
और कविता? क्या कविता मेरी उम्मीद है?
कह सकता हूं- हां, कविता मेरी उम्मीद है. लेकिन अल्पवयस्क मेरी इस सदी में कविता की उम्मीद भी उतनी वयस्क नहीं हुई कि वह हिम्मत से कह सके कि तीस साल के युवा उमर ख़ालिद की गिरफ़्तारी नासूर की तरह मीडिया समूहों में क्यों प्रचारित हो जाती है और नागरिक समाज ‘भूतों की शादी में कनात’ की तरह बिछ जाता है? बिना संकोच कविता को यह कहना चाहिए.
सत्ता और व्यवस्था से सवाल पूछने वाले एक युवा के लिए युवाओं की ही कविता कहां है? क्या एक युवा इसलिए अब भी कैदख़ाने में है क्योंकि वह उन छोटी मछलियों के बारे में अपनी राय रख सकता है? यानी वह सारंडा और बस्तर के जंगलों को अपनी आंख से देख सकता है या मणिपुर और फिलिस्तीन और बुलडोजर न्याय के बारे में खुद से सोच सकता है?
या, वह उस बुजुर्ग पादरी स्टेन स्वामी से बात कर सकता था जिन्हें जेल में पानी पीने के लिए ‘सिपर’ तक नहीं दिया गया? गरीबों का दुख कहने वाले की व्यवस्थागत हत्या की साजिश! वह युवा उनसे अपनी पीएचडी. की थीसिस के लिए पूछ सकता था कि झारखंड के आदिवासियों के नंगे तलवे में कौन-सी चमड़ी है जो न अस्त होने वाले सूरज जैसे साम्राज्यवादियों को ठोकर मार सकते हैं?
हां, वह ज़रूर कहते कि संविधान की पांचवीं अनुसूची के दावे के नाममात्र पर स्वायत्तता और स्वशासन की बात करने वाले खूंटी के लगभग दस हज़ार आदिवासियों पर देशद्रोह का आरोप लगया गया. लगभग उन्नीस एफआईआर में 43 गांव के ग्राम सभा प्रमुखों को देशद्रोही कहा गया.
नाजिम सुनो! तुम्हारी सदी के आख़िरी दिन तुम्हारी जानेमन की आंख की तरह ख़ूबसूरत नहीं हुए. और देखो, मेरी इक्कीसवीं सदी का शर्म देखो! फिर भी हिम्मत और उम्मीद तो है अल्पवयस्क ही सही. हिंदी के युवा कवि इसे दर्ज नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें छोड़ो. सत्य तो और भी हैं न! यह सदी कई मोर्चों पर बिखरी सदी है और कविता को वहां तक पहुंचना है. उसी की एक कोशिश भर तो है मेरी कविता, मेरा लिखना.
अच्छा सुनो, इस सदी में मेरी उम्मीद है मेरी बेटी. उसका नाम ही अपने आप में एक कविता है. हमने उसका नाम रखा है- रुम्बुल. जानते हो मुंडारी में रुम्बुल का मतलब क्या होता है? रुम्बुल यानी ऐसी आवाज़ जो दूर तक पहुंचे और देर तक गूंजे. है न कविता!
नाज़िम, तुम्हारी सदी के दुख को मैंने अपनी सदी की हथेली से पकड़ लिया है. मुझे उम्मीद है उसे हमारी बेटियां एक दिन अपनी हथेली में लेकर उसे समूल कूड़ेदान में फेंक आएंगी. वे छोटी मछलियों का दुख बेहतर समझेंगी और धान की फसलों का सुख सबको मिलेगा.
(अनुज लुगुन कवि और लेखक हैं.)
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