नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भारत में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने से इनकार करने वाले अपने ऐतिहासिक फ़ैसले को चुनौती देने वाली समीक्षा याचिकाओं को खारिज कर दिया.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस बीवी नागरत्ना, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने चैंबर में याचिकाओं पर विचार किया और पाया कि 2023 के फ़ैसले में जज (सेवानिवृत्त) एस. रवींद्र भट द्वारा लिखित बहुमत के दृष्टिकोण के रिकॉर्ड में कोई त्रुटि नहीं है.
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने 17 अक्टूबर, 2023 को अपने फैसले में देश में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया था. पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने 3-2 के बहुमत से ये फैसला सुनाया था.
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस. रवींद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने चार अलग-अलग फैसलों में ‘संस्थागत सीमाओं’ का हवाला देते हुए विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (एसएमए) के प्रावधानों को रद्द करने या उसमें फेरबदल करने से इनकार कर दिया था.
पीठ ने कहा था कि विवाह करने का ‘कोई भी अधिकार बिना शर्त नहीं है’ और समलैंगिक जोड़ा संविधान के तहत इसे मौलिक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता. समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की प्रार्थना को खारिज करते हुए पीठ ने इस तरह के विवाह को वैध बनाने के लिए कानून में बदलाव करने का काम संसद पर छोड़ दिया था.
गुरुवार को इस फ़ैसले की समीक्षा की मांग करने वाली याचिकाओं को खारिज करते हुए पीठ ने कहा, ‘हमने माननीय जस्टिस भट (पूर्व न्यायाधीश) द्वारा दिए गए फ़ैसलों को ध्यान से पढ़ा है, जिसमें उन्होंने खुद और माननीय जस्टिस हिमा कोहली (पूर्व न्यायाधीश) की ओर से कहा है, साथ ही हम में से एक (माननीय जस्टिस पीएस नरसिम्हा) द्वारा व्यक्त की गई सहमति को भी ध्यान से पढ़ा है, जो बहुमत का मत है. हमें रिकॉर्ड में कोई त्रुटि नज़र नहीं आती. हम यह भी पाते हैं कि दोनों फ़ैसलों में व्यक्त किया गया दृष्टिकोण कानून के अनुसार है और इसलिए इसमें किसी तरह के हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं है. इसलिए, समीक्षा याचिकाएं खारिज की जाती हैं.’
ज्ञात हो कि 2023 में समलैंगिक विवाह को लेकर सीजेआई चंद्रचूड़ ने 247 पन्नों का एक अलग फैसला लिखा था, जिससे सेवानिवृत्त हो चुके जस्टिस संजय किशन कौल ने अपने 17 पन्नों के फैसले में मोटे तौर पर सहमति जताई थी.
वहीं, जस्टिस भट, जो अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं, ने जस्टिस हिमा कोहली के साथ 89 पन्नों का फैसला लिखा था, जिसमें उन्होंने सीजेआई के कुछ निष्कर्षों पर असहमति जताई थी, विशेष रूप से समलैंगिक जोड़ों के लिए बच्चा गोद लेने संबंधी नियम पर. जस्टिस पीएस नरसिम्हा ने भी अपने 13 पन्नों के फैसले में जस्टिस भट्ट के तर्क और निष्कर्ष से पूरी सहमति जताई थी.
हालांकि, पूरी पीठ ने इस बात को सर्वसम्मति से नकार दिया था कि समलैंगिकता शहरी विचार या संभ्रांत (इलीट) लोगों का विचार है.
सीजेआई ने तब अपने फैसले में कहा था कि शादी के अधिकार में संशोधन का अधिकार विधायिका के पास है, लेकिन एलजीबीटीक्यू+ लोगों के पास अपना साथी चुनने और साथ रहने का अधिकार है और सरकार को उन्हें दिए जाने वाले अधिकारों की पहचान करनी ही चाहिए, ताकि ये जोड़े एक साथ बिना परेशानी के रह सकें.
याचिकाओं में तर्क
फैसले के खिलाफ दायर समीक्षा याचिकाओं में कहा गया है कि बहुमत का फैसला ‘रिकॉर्ड को देखकर स्पष्ट रूप से त्रुटिपूर्ण है’ और ‘स्वयं विरोधाभासी और स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण’ है.
इसमें कहा कि बहुमत का निर्णय त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि इसने पाया कि प्रतिवादी (प्राधिकारी) भेदभाव के माध्यम से याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहे थे, फिर भी यह भेदभाव को रोकने में विफल रहा.
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि यह निर्णय समीक्षा के योग्य है, क्योंकि यह न्यायालय द्वारा पूर्व के निर्णयों में कही गई बातों की उपेक्षा करता है तथा यह भयावह घोषणा करता है कि भारत का संविधान विवाह करने या किसी के साथ संबंध बनाने के किसी मौलिक अधिकार की गारंटी नहीं देता है.
उन्होंने तर्क दिया कि यह निर्णय, वास्तव में युवा समलैंगिक भारतीयों को छुपकर रहने और बेईमानी से जीवन जीने के लिए मजबूर करता है, यदि वे वास्तविक परिवार का आनंद लेना चाहते हैं. यह कहना गलत है कि इन तथ्यों के तहत, तथा विवाह करने या विवाह करने के मौलिक अधिकार के अभाव में, समान सुरक्षा, सम्मान और बंधुत्व के अधिकार न्यायिक हस्तक्षेप को उचित ठहराने के लिए अपर्याप्त हैं.