हर साल की तरह इस साल भी मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने 2024 में देखी गई सर्वश्रेष्ठ फिल्मों के बारे में लिखा है. इन फिल्मों में भले ही हमारे युग की नफ़रत, असमानता, कुलीनतंत्र और घुटन भरी राजनीति पर सीधे बात न की गई हो. लेकिन ज़्यादातर फिल्मों में जिस तरह प्यार, दोस्ती और करुणा के बारे में बात की गई है उसके लिए हौसला चाहिए.
2024 का साल एक गणतंत्र के रूप में भारत के 75 साल के सफर में एक और मुश्किल भरा साल था. देश के लोगों ने दुनिया के अब तक के सबसे बड़े चुनाव में अपना वोट डाला. कुछ मायनों में यह चुनाव आजादी के बाद भारत के सबसे महत्वपूर्ण चुनावों में से एक था, क्योंकि बहुत से लोगों के मन में इस बात को लेकर आशंका थी कि अगर मतदाताओं ने सत्तारूढ़ भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया होता तो शायद भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र नहीं रह जाता. फिर भी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अकेले बहुमत न मिलने के बावजूद उसके शासन करने के तरीक़े में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.
चुनावों के बाद से धार्मिक आधार पर होने वाले अपराधों में तेज़ी आई, धार्मिक स्थलों और घरों को ध्वस्त कर दिया गया, हवा में इतनी नफ़रत घुल गई है कि घुटन महसूस होती है और बार-बार सदियों पुरानी मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के दावे किए जा रहे हैं. मणिपुर, जिसे लगभग भुला दिया गया है, वहां गृहयुद्ध में अब भी लोगों की जानें जा रही हैं. कश्मीर और मध्य भारत के जंगलों में सैन्यीकरण जारी है. ठीक उसी समय भारत के सबसे अमीर लोग अप्रत्याशित वैश्विक भ्रष्टाचार के विश्वसनीय आरोपों को चकमा दे रहे हैं या इतिहास के सबसे महंगे विवाह समारोहों में से एक पर पैसा ख़र्च कर रहे हैं, और भारत अपने अधिकांश ग़रीब एशियाई पड़ोसियों की तुलना में वैश्विक भूख सूचकांक में नीचे खिसक गया है.
देश के कुछ बेहतरीन दिल और दिमाग ऊंची जेल की दीवारों के पीछे बंद हैं. डर रोज़मर्रा की ज़िंदगी का अभिन्न अंग बन गया है. पिछले दशक की तरह 2024 की फिल्में शायद ही कभी इनमें से किसी विषय के बारे में बात करती हैं. लेकिन बावजूद इसके 2024 भारतीय सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक वर्ष था. मैंने विवेक पर आधारित फिल्मों का व्यर्थ ही इंतज़ार किया. लेकिन इस साल मुझे ऐसी कई फिल्में देखने को मिलीं जो करुणा से ओत-प्रोत थीं. कई भाषाओं में कई फिल्में बनाई गईं, जिनमें मानवीय स्थिति को मानवतावाद के साथ दर्शाया गया. ग़रीबी, पराजय और अकेलेपन पर कई उल्लेखनीय फिल्में बनीं, जिनमें से ज़्यादातर का अंत आशा और प्रेम के संदेश को साथ हुआ.
विलेज रॉकस्टार्स 2
नफ़रत के शोर, असमानता और उदासीनता के बीच भारतीय सिनेमा ने अपनी धड़कन को खोज लिया. मेरे लिए इस साल की सबसे अच्छी फिल्म एक छोटी-सी मास्टरपीस थी, ‘विलेज रॉकस्टार्स 2’, रीमा दास की सुंदर असमिया फिल्म, जिस पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया. इस फिल्म में सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली की गीतात्मकता, बिमल रॉय की नव-यथार्थवादी क्लासिक दो बीघा जमीन का कोमल सामाजिक प्रतिकार और ऋत्विक घटक की कई फिल्मों में दर्ज मानव स्वभाव की दयालुता की झलक देखी जा सकती है.
बेहतरीन ढंग से शूट किए गए दृश्यों और ज़्यादातर ग़ैर-पेशेवर अभिनेताओं को लेकर बनाई गई इस फिल्म में दास ने एक असमिया गांव के परिवेश में एक किशोर लड़की की चिरकालिक कहानी को दर्शाया है, जो घोर ग़रीबी, भूख, बाढ़, विस्थापन, कॉरपोरेट लालच सो जूझती है. उसकी अकेली मां की बीमार पड़ने के बाद मर जाती है और उसके भाई को शराब की लत है. युवा नायिका के सपने धीरे धीरे बोझिल होते जाते हैं क्योंकि उसके ऊपर ही परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी है.
मेइयाजाघन
सी. प्रेम कुमार द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म ‘मेइयाजाघन’ देखने के बाद मज़ा आ गया. एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति (अरविंद स्वामी ने उस अधेड़ व्यक्ति का बेहतरीन अभिनय किया है) 22 साल बाद बेमन से चेन्नई से अपने गृहनगर तंजावुर की यात्रा करता है. उसके दिल में अभी भी अपने रिश्तेदारों के व्यवहार की वजह से पीड़ा और कड़वाहट है, जिन्होंने उसके परिवार को उनकी पैतृक संपत्ति से बेदखल कर दिया, और उन्हें हमेशा के लिए तंजावुर छोड़ने पर मजबूर कर दिया.
वहां उसकी मुलाक़ात एक ऐसे व्यक्ति से होती है जिसे वह पहचानता नहीं है, जो शुरू में उसे परेशान करता है. लेकिन जब वह उसके साथ कुछ घंटे बिताता है, तो वह उसकी निश्छल अच्छाई और सभी प्राणियों के प्रति दयालुता से गहराई से प्रभावित होता है.
इस नि:स्वार्थ व्यक्ति के साथ समय बिताने के बाद वह अपने भीतर मौजूद शालीनता और क्षमा करने की अपनी क्षमताओं को खोजने के लिए बाध्य होता है. आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित करने वाली यह फिल्म अच्छाई के बल पर बुराई को समाप्त करने की एक दंतकथा जैसी लगती है.
आदुजीविथम या द गोट लाइफ़
क और फिल्म जिसने मुझे काफ़ी लंबे समय तक परेशान किया, वह थी ब्लेसी की मलयालम आदुजीविथम या द गोट लाइफ़. खाड़ी देश में एक मलयाली आप्रवासी नजीब की सच्ची कहानी पर आधारित इस फिल्म की विषय वस्तु बहुत दर्दनाक है.
नजीब पहली बार भारत से आता है और हवाई अड्डे से ही एक अरबी व्यक्ति उसका अपहरण कर लेता है. उसे रेगिस्तान के बीचों- बीच ले जाया जाता है और ग़ुलाम बनाकर बकरियों की देखभाल करने के काम में लगा दिया जाता है. उसके पास अपने परिवार और बाहरी दुनिया से संपर्क करने का कोई ज़रिया नहीं होता है. कई सालों तक वह इंसानों से भी नहीं मिल पाता है. उसके आसपास बात करने के लिए भी सिर्फ़ बकरियां होती हैं, जिनके साथ वह घुलमिल जाता है. अंततः, वह भागने की हताश कोशिश करता है और कई दिनों तक रेगिस्तान में भटकता रहता है. उसके पास खाने को भोजन और पानी भी न के बराबर होता है.
इस बीच वह लगभग मरे हुए हालत में एक दयालु अरबी को मिलता है जो उसकी जान बचाता है. रेगिस्तान के आश्चर्यजनक दृश्य और मानवीयता, जिसे सौम्य स्वभाव वाला नायक सभी तरह के कष्टों के बावजूद बचाए रखता है, जो इसे मौत पर विजय पाने वाली फिल्म से अलग ध्यान (मेडिटेशन) में बदल देता है जिससे जीवन को अर्थ मिलता है.
लापता लेडीज़
किरण राव की ‘लापता लेडीज़’ एक और बड़े दिल वाली छोटी फिल्म थी. यह दो घूंघट वाली दुल्हनों की एक अप्रत्याशित कहानी से शुरू होती है, जो भीड़ भरी पैसेंजर ट्रेन में बदल जाती हैं. लेकिन कहानी ग्रामीण पितृसत्ता की एक रोमांचक, मज़ेदार और कभी-कभी कोमल नारीवादी कहानी में बदल जाती है. एक दुल्हन को उस गांव का नाम याद नहीं है जहां उसकी शादी हुई थी; दूसरी जानबूझकर अपनी पहचान छिपाती है क्योंकि उसे एक वाहियात आदमी से शादी करने के लिए मजबूर किया गया था और उसे आगे की पढ़ाई करने से रोका गया था.
दोनों महिलाएं संकट के समय में शक्ति और साहस के साथ आगे बढ़ती हैं. अभिनय आकर्षक है. नितांशी गोयल और प्रतिभा रांटा ने खोई हुई दुल्हनों की भूमिका निभाई है, और छाया कदम एक चाय की दुकान की मालकिन की भूमिका में है जो दुल्हनों में से एक को आश्रय देती है. स्पर्श श्रीवास्तव ने दूल्हे की सशक्त भूमिका निभाई है जो अपनी खोई हुई दुल्हन से शिद्दत से प्यार करता है और उस पर विश्वास करता है.
ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट
अकेलेपन, आकांक्षा और महिला एकजुटता पर आधारित तीन भाषाओं- मलयालम, मराठी और हिंदी- में एक नाज़ुक ढंग से तैयार की गई फिल्म ने दुनिया भर के दर्शकों की कल्पना को आकर्षित किया है. यह फिल्म है पायल कपाड़िया की ‘ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट’.
दो मलयाली नर्सें मुंबई में एक अपार्टमेंट में रहती हैं. अधिक उम्र वाली नर्स का पति जर्मनी चला गया और सालों से उससे बात नहीं की. कम उम्र वाली नर्स का एक मुस्लिम व्यक्ति के साथ गुप्त प्रेम संबंध है.
उन दोनों की एक दोस्त है जो अस्पताल में रसोइया है, यह एकल महिला जिसे रियल एस्टेट बिल्डर द्वारा अपने छोटे से मकान से बेदख़ल कर दिया गया है. दोनों नर्सें रसोइए के साथ रत्नागिरी इलाक़े में समुद्र तट के किनारे उसके गांव जाती हैं ताकि बेघर होने के बाद उसे फिर से बसाने में मदद कर सकें. यहां, महानगर से अस्थायी रूप से मुक्त होकर, तीनों महिलाएं अलग-अलग तरीक़ों से प्यार, दोस्ती और यहां तक कि थोड़े जादुई यथार्थवादी तरीक़े से आंतरिक सहारा पाती हैं.
रात में समुद्र के किनारे एक झोपड़ी में हंसती तीन महिलाओं का आख़िरी डरावना दृश्य, स्वीकृति और एक-दूसरे की दोस्ती से ताक़त हासिल करना, एक ऐसा चित्रांकन है, जो फिल्म को सबसे अच्छी तरह परिभाषित करता है.
ऐ वतन, मेरे वतन
कन्नन अय्यर की फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’ इस साल एक छोटी सी, उपेक्षित मगर बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म थी, जो युवा और कम लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानियों पर आधारित थी.
आज के युवा जिस निराशा भरे समय में बड़े होने को अभिशप्त हैं, उसमें यह फिल्म उस आदर्शवाद की याद दिलाती है जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हज़ारों युवाओं को प्रेरित किया था.
द लास्ट हीरोज़: फ़ुटसोल्जर्स ऑफ इंडियन फ़्रीडम
यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में पी. साईनाथ ने अपनी हालिया किताब ‘द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्जर्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम’ में सार्थक तरीक़े से और पूरी ऊर्जा के साथ लिखा है. साईनाथ हमें उन आम लोगों की याद दिलाते हैं जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए अपने जीवन और भविष्य का बलिदान दिया, लेकिन जिन्हें अब भुला दिया गया है. अय्यर की फिल्म भी यही कोशिश करती है, लेकिन अय्यर की फिल्म और पी. साईनाथ की किताब में बहुत अंतर नहीं है.
फिर भी, कई ख़ामियों के बावजूद (सबसे अधिक जिस तरह से यह अंग्रेज़ी पात्रों को व्यंग्यात्मक कैरिकेचर में बदल देती है) यह फिल्म उन युवाओं के चित्रण की वजह से मेरी पसंदीदा सूची में शामिल है, जो अपने देश की आज़ादी के लिए अपने भविष्य का बलिदान करने के लिए तरसते हैं, जिनमें पोलियो से ग्रस्त एक मुस्लिम युवा और एक साहसी युवती शामिल है, जो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक भूमिगत रेडियो शुरू करती है.
जग्गी
मेरी पसंद की दो फिल्में ज़्यादा कर्कश, ज़्यादा क्रूर और कम उम्मीद वाली हैं. इनमें से एक है अनमोल सिद्धू द्वारा निर्देशित पंजाबी फिल्म ‘जग्गी’. इस फिल्म में आप एक ऐसे पंजाब को देखते हैं जो निर्दयी, क्रूर और कभी-कभी घिनौना भी है. यह पंजाबी पॉप के मशहूर, उत्साही, हिंसक, लैंगिकवादी घोर पौरुषवाद का एक परेशान करने वाला प्रतिवाद प्रस्तुत करता है, जो इसके विनाशकारी परिणामों को आईना दिखाता है.
रमनीश चौधरी ने एक किशोर का अभिनय किया है, जिसका लगातार यौन शोषण होता है. यह एक कठोर और दिल दहला देने वाले चित्रण है. उसके पास ऐसी कोई जगह नहीं है जहां वो जा सके. उसके माता-पिता होकर भी उसके लिए नहीं हैं: उसके पिता एक पुलिसकर्मी हैं जो हर रात नशे में घर आते हैं, और उसकी मां का संबंध उसके चाचा के साथ है. उसके शिक्षक और दोस्त उसे नामर्द होने का ताना मारते हैं, और कई लोग उसका यौन शोषण करते हैं. अंत में दुखद पर्दाफ़ाश न केवल उस लड़के के लिए बल्कि सतत अशांति में डूबी भूमि के लिए एक स्तुति गान प्रतीत होता है.
संतोष
और फिर संध्या सूरी की उदास फिल्म ‘संतोष’ है, जो ऑस्कर की लंबी सूची में शामिल की गई है. एक युवा पुलिस कॉन्स्टेबल सांप्रदायिक दंगे में ड्यूटी पर मारा जाता है. उसकी विधवा को अनुकंपा के आधार पर पुलिस कॉन्स्टेबल के पद पर नियुक्त किया जाता है. शाहना गोस्वामी ने बेहतरीन तरीक़े से पुलिस कॉन्स्टेबल की भूमिका निभाई है. वह ख़ुद को एक ऐसी आपराधिक न्याय प्रणाली के भंवर में फंसा हुआ पाती है जो अंदर से सड़ चुकी है.
भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है, मुसलमानों के प्रति घृणा सर्वव्यापी है, जातिगत भेदभाव अभिशाप की तरह जड़ जमाए हुए है, और पुलिस द्वारा दी जाने वाली यातनाएं रोज़मर्रा की बात है जिसे पुलिसिंग का एक ज़रूरी हिस्सा बताया जाता है. भयावह और निर्मम घटनाओं को प्रामाणिकता के साथ चित्रित किया गया है. यह भयावहता तब दर्दनाक रूप से सामने आती है जब एक निर्दोष मुस्लिम व्यक्ति को उच्च जाति के स्थानीय राजनेताओं द्वारा दलित लड़की के सामूहिक बलात्कार और हत्या के लिए फंसाया जाता है. उस युवक को प्रताड़ित किया जाता है और उसकी मौत हो जाती है.
नई भर्ती की गई महिला कॉन्स्टेबल न केवल इस घटना की गवाह है, बल्कि वह जल्दी ही एक इच्छुक भागीदार बन जाती है. फिल्म के सबसे भयावह दृश्य में वह उस मुस्लिम व्यक्ति को प्रताड़ित करने में भी शामिल हो जाती है, इसका एक कारण यह भी है क्योंकि उसके पति की सांप्रदायिक दंगे में हत्या कर दी गई थी.
मुझे यह फिल्म देखना मुश्किल लगा क्योंकि इसमें कोई भी चरित्र नैतिक दिशानिर्देश नहीं देता, यहां तक कि नई महिला कॉन्स्टेबल भी नहीं. लेकिन शायद यह नए भारत का आईना है जिसे हमें स्वीकार करना होगा और उसका सामना करना होगा.
वी आर फ़हीम एंड करुण
हम जिस दौर में जी रहे हैं उसके हिसाब से ओनिर की असफल प्रेम कहानी ‘वी आर फ़हीम एंड करुण’ बहुत ही बहादुर कही जाएगी. कश्मीर में एक चेकपॉइंट पर तैनात मलयाली सैनिक करुण के बारे में सोचिए, जो एक स्थानीय कश्मीरी व्यक्ति फ़हीम से प्यार करने लगता है. यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जो बहुत सी बेरहम सीमाओं को लांघती है. लिंग, धर्म और प्रतिस्पर्धी राष्ट्रीयताओं की सीमाएं. कश्मीरी उग्रवाद की हिंसा और भारतीय राज्य की सैन्य प्रतिक्रिया फिल्म के अधिकांश भाग में केवल पृष्ठभूमि में दिखाई देती है, और केवल मार्मिक चरमोत्कर्ष के दौरान सामने आती है.
जब मैंने इस शरद ऋतु में धर्मशाला महोत्सव के शुरुआती स्क्रीनिंग में यह फिल्म देखी, तो दर्शकों में से कुछ कश्मीरियों ने अपनी निराशा व्यक्त की, कई ने तो ग़ुस्से से कहा कि यह फिल्म घाटी में सैन्य दमन की भयावहता को नहीं दर्शाती है.
निर्देशक ओनिर ने बताया कि उन्होंने यह फिल्म क्यों बनाई. वह कश्मीर में दशकों से चले आ रहे अंधेरे में एक मोमबत्ती जलाना चाहते थे, ताकि इस असफल प्रेम कहानी के ज़रिये प्यार की अनिवार्यता, प्यार करने के लिए साहस और शायद प्यार की असंभवता के बारे में बात कर सकें. और शायद यही वह बात थी जिसने 2024 के सर्वश्रेष्ठ भारतीय सिनेमा को अलग पहचान दी. इन फिल्मों में भले ही हमारे युग की नफ़रत, असमानता, कुलीनतंत्र और घुटन भरी राजनीति पर सीधे बात न की गई हो. लेकिन ज़्यादातर फिल्मों में जिस तरह प्यार, दोस्ती और करुणा के बारे में बात की गई है उसके लिए हौसला चाहिए. इस अंधेरे समय को अभिव्यक्त करने के लिए 2024 के सिनेमा ने प्रतिरोध का वह स्वरूप चुना.
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
(मूल अंग्रेजी से ज़फ़र इक़बाल द्वारा अनूदित. ज़फ़र भागलपुर में हैंडलूम बुनकरों की ‘कोलिका’ नामक संस्था से जुड़े हैं.)