महात्मा गांधी को हम राष्ट्रपिता तो कहते हैं (हमारे बीच के कुछ लोग नहीं भी कहते), लेकिन उनकी सीखों, सबकों व नसीहतों, यहां तक कि ‘आखिरी वसीयत’ का भी क्या हाल कर डाला है, इसे देखने के लिए किसी भी आईने के सामने खड़े होने से सख्त परहेज करते हैं. न करते तो हमारी आज की युवा पीढ़ी का अधिकांश इस जानकारी से महरूम न होता कि महात्मा ने अपनी आत्मकथा में (जिसे उनके सत्य के प्रयोगों के लिए भी जाना जाता है) अपनी 1919-1920 तक की ही जीवनी लिखी है, जबकि वे इसके बाद भी 28 साल तक इस संसार में रहे.
सवाल है कि क्या उनके मन में कभी अपने इन 28 सालों के प्रयोगों की बाबत देशवासियों को कुछ बताने का विचार नहीं आया? आया तो उन्होंने इनकी कथा क्यों नहीं लिखी? यह तो कतई नहीं माना जा सकता कि 1919-20 में ही उन्होंने सत्य के अपने सारे प्रयोग पूरे कर लिए थे और आगे उसका कोई प्रयोग किया ही नहीं, इसलिए उनके पास उनके आगे बताने के लिए कुछ बचा ही नहीं था.
जानकार बताते हैं कि उनके यह कथा न लिखने का एक बड़ा कारण यह है कि उनका 1920 के बाद का जीवन व्यक्तिगत रह ही नहीं गया था. चूंकि वह सार्वजनिक हो गया था, इसलिए उन्होंने उसकी कथा लिखना जरूरी नहीं समझा.
एक और मुमकिन कारण यह है कि 30 जनवरी, 1948 को उन्हें अचानक इस संसार से चले जाना पड़ा. कौन जाने, ऐसा नहीं होता तो आगे और समय पाकर वे अपने इस जीवन खंड पर भी कुछ प्रकाश डाल ही जाते! जो भी हो, उनके ऐसा न करने से पैदा हुए ‘अभाव’ के चलते उनके इन 28 सालों को उनकी ही दृष्टि से देखना चाहने के इच्छुक अध्येताओं के समक्ष उनकी जन्मशती तक विकट निरुपायता की स्थिति बनी रही.
अलबत्ता, 1969 में उनकी जन्मशती आई तो सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक हरिभाऊ उपाध्याय ने ‘बापू कथा’ लिखकर इस स्थिति के खात्मे की एक बड़ी ही सार्थक व सफल कोशिश की.
गांधी स्मारक निधि और गांधी शांति प्रतिष्ठान के सहयोग तथा नवजीवन ट्रस्ट के सौजन्य से वाराणसी के सर्व सेवा संघ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अपनी इस पुस्तक में उन्होंने बापू के वचनों, लेखों, वक्तव्यों व भाषणों वगैरह के सहारे उनके ही शब्दों में उनके अंतिम दिन तक की कथा कही है. जो लोग महात्मा के जीवन और विचारों के हरिभाऊ के विशद अध्ययन से वाकिफ हैं, वे इस पुस्तक को बापू की अभिव्यक्तियों के लिहाज से उनकी आत्मकथा जितनी ही प्रामाणिक मानते हैं. यह भी मानते हैं कि बापू अपनी जो आत्मकथा अधूरी छोड़ गए थे, उसे हरिभाऊ ने पूरी कर दिया.
पुस्तक में हरिभाऊ ने खुद भी लिखा है कि उन्होंने इसमें जो कुछ भी लिखा है, नवजीवन ट्रस्ट अहमदाबाद के सौजन्य से प्राप्त बापू की वाणी के सहारे उनके शब्दों में ही लिखा है.
भेदभाव की जगह नहीं
उनके अनुसार, बापू ने अपनी आत्मकथा अमृतसर कांग्रेस (1919) तक लाकर छोड़ दी है. तिस पर उस आत्मकथा में जीवनी जैसा ज्यादा नहीं, थोड़ा-सा ही है, जबकि ‘सत्य के प्रयोग’ अधिक हैं. इस सत्य के साथ अहिंसा का संबंध तो खैर उन्होंने सब जगह बताया ही है, जो उनके जीवन के अंत तक जस का तस बना रहता है.
हरिभाऊ ने लिखा है कि बापू अपनी हत्या से पूर्व स्वराज्य की ‘हिंद स्वराज्य’ से आगे की एक रूपरेखा तैयार कर गए थे. इस रूप रेखा को उनकी ‘आखिरी वसीयत’ के तौर पर देखा जाता है.
इसमें उन्होंने लिखा है:
‘मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा. जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वहीं उन्हें भी सुलभ होनी चाहिए. इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता…. मुझे इस बात में बिल्कुल संदेह नहीं है कि हमारा स्वराज्य तब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा, जब तक गरीबों को ये सारी सुविधाएं देने की पूरी व्यवस्था नहीं हो जाती.’
वे आगे लिखते हैं:
मेरे सपनों के स्वराज्य में जाति या धर्म के भेदों का भी कोई स्थान नहीं हो सकता. उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य भी नहीं होगा. वह स्वराज्य सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा. ‘सबकी’ गिनती में किसान तो आते ही हैं, लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं.
अनंतर, बापू चेताते हैं: अगर स्वराज्य का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को आर्थिक दृष्टि से शुद्ध तथा मजबूत बनाना न हो तो वह किसी कीमत का नहीं होगा.
फिर बताते हैं कि हमारी सभ्यता का मूल तत्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं. इसलिए: पूर्ण स्वराज्य की मेरी कल्पना दूसरे देशों से कोई नाता न रखने वाली स्वतंत्रता नहीं, बल्कि स्वस्थ और गंभीर किस्म की स्वतंत्रता है. मेरा राष्ट्रप्रेम उग्र तो है लेकिन वह वर्जनशील नहीं है. उसमें किसी दूसरे राष्ट्र या व्यक्ति को नुक़सान पहुंचाने की भावना नहीं है.
उनके अनुसार, अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए. हर एक कर्तव्य के साथ उसकी तौल का अधिकार होता ही है. और सच्चे अधिकार तो वे ही हैं जो अपने कर्तव्यों का यथोचित पालन करके प्राप्त किए गए हों. अधिकारों का सच्चा स्रोत कर्तव्य है, अगर हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें तो अधिकारों को खोजने बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा.
धन का न्यायपूर्ण वितरण
बापू यहीं नहीं रुकते, आर्थिक स्वराज्य की बाबत भी आखिरी वसीयत करते हैं:
समाज की मेरी कल्पना यह है कि हम सब समान पैदा हुए हैं अर्थात हमें समान अवसर प्राप्त करने का हक है. हां, सबकी योग्यता एक ही नहीं है. यह कुदरती तौर पर असंभव है. बुद्धिशाली लोग अधिक कमायेंगे और वे इस काम के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करेंगे. लेकिन जैसे पिता के तमाम कमाऊ बेटों की कमाई परिवार के ही वित्तकोश में जाती है, ठीक वैसे ही उसकी अधिकांश कमाई राज्य की भलाई में काम आनी चाहिए.
इस वसीयत में उनका मानना है कि जो अर्थशास्त्र नैतिक मूल्यों की उपेक्षा करता है, वह झूठा अर्थशास्त्र है:
मेरी राय में न सिर्फ भारत बल्कि सारी दुनिया की अर्थरचना ऐसी होनी चाहिए, जिससे किसी को भी अन्न व वस्त्र के अभाव की तकलीफ़ न सहनी पड़े. हर एक को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिए कि वह अपने खाने पहनने की जरूरतें पूरी कर सके. यह आदर्श निरपवाद रूप से तभी कार्यान्वित किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जनता के नियंत्रण में रहें.
आगे, धन के समान वितरण को अपना आदर्श बताकर, यह लिखते हुए कि चूंकि इस आदर्श को सिद्ध नहीं किया जा सकता, उन्होंने धन के न्यायपूर्ण वितरण की वकालत की है.
उन्हीं के शब्दों में: धन का समान वितरण मेरा आदर्श है लेकिन जहां तक मैं देख सकता हूं, यह आदर्श सिद्ध नहीं किया जा सकता. इसलिए मैं धन के न्यायपूर्ण वितरण के लिए काम करता हूं. प्रेम और वर्जनशील परिग्रह एक साथ कभी नहीं रह सकते.
इसी सिलसिले में एक अन्य स्थान पर उन्होंने यह भी लिखा है: आर्थिक समानता अहिंसापूर्ण स्वराज्य की मुख्य चाभी है. आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है पूंजी और मजदूरी के बीच के झगड़ों को हमेशा के लिए मिटा देना. इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर से जिन मुट्ठी भर पैसे वाले लोगों के हाथ में राष्ट्र की संपत्ति का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया है, उनकी संपत्ति को कम किया जाए और दूसरी ओर से जो करोड़ों लोग आधे भूखे और नंगे रहते हैं, उनकी संपत्ति में वृद्धि.
पूंजी, पूंजीपति और गरीब
वे यह लिखने से भी नहीं हिचकते कि जब तक मुट्ठी भर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेहद अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज्य व्यवस्था कायम नहीं हो सकती. अलबत्ता, वे इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि दस-बीस करोड़पतियों का हिंसा द्वारा बलपूर्वक नाश कर देने से गरीबों का शोषण बंद हो सकता है. उनके अनुसार गरीबों का अज्ञान दूर करके उन्हें अहिंसक असहयोग सिखाने से वे गुलामी से मुक्त हो सकते हैं.
उन्होंने स्वराज्य को लेकर यह तक सपना देखा है कि दोनों (पूंजीपति और गरीब) ही अंत में हिस्सेदार बनें, क्योंकि दोष पूंजी में नहीं, उसके दुरुपयोग में है, एक या दूसरे रूप में पूंजी तो हमेशा रहेगी ही.
उनके अनुसार:
आर्थिक समानता का अर्थ है सबके पास समान संपत्ति का होना यानी सबके पास इतनी संपत्ति का होना, जिससे वे अपनी कुदरती आवश्यकताएं पूरी कर सकें. आर्थिक समानता की जड़ धनियों का ट्रस्टीपन है. इस आदर्श के अनुसार धनिक को अपने पड़ोसी से एक कौड़ी भी ज्यादा रखने का अधिकार नहीं है.
लेकिन कोई धनिक अनधिकार ज्यादा रखना चाहे तो?
महात्मा का उत्तर है: मान लो कोई पूंजीपति टेढ़ा निकले. वह कहने लगे कि ‘जाओ, मैं कुछ नहीं छोड़ता.’ तो मैं उससे कहूंगा कि ‘तुम्हें छोड़ना पड़ेगा. कानून से मजबूर होकर छोड़ना पड़ेगा.’ आखिर पूंजीपति अल्पमत में हैं. उन्हें बहुमत के सामने झुकना ही है. हां, मैं पूंजीपतियों का हनन नहीं करना चाहता. उनकी शक्ति का उपयोग कर लेना चाहता हूं. उनसे मैं पूंजी छीनना तो नहीं चाहता, उसका समाज के लिए उपयोग करना चाहता हूं. इसलिए कि मेरा विश्वास है कि सच्चा लोकतंत्र केवल अहिंसा का ही फल हो सकता है.
उनके इन विचारों के आईने में देखकर सोचिए जरा कि हमने उनके सपनों के लोकतंत्र व स्वराज्य का क्या हाल कर डाला है आज?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)