नई दिल्ली: श्रमिकों और कार्यकर्ताओं के एक प्रमुख संगठन ने कहा है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) योजना के लिए केंद्र सरकार का 86,000 करोड़ रुपये का अपरिवर्तित बजटीय आवंटन अपर्याप्त है और यह योजना को ‘व्यवस्थित रूप से खत्म करने’ का हिस्सा है.
रिपोर्ट के अनुसार, रविवार (2 फरवरी) को जारी एक बयान में नरेगा संघर्ष मोर्चा ने कहा कि जब महंगाई को ध्यान में रखा जाता है, तो 2025-26 के बजट में योजना का आवंटन 2024-25 के बजट की तुलना में प्रभावी रूप से लगभग 4,000 करोड़ रुपये कम है.
बयान में यह भी कहा गया है कि 2024-25 में इस योजना के लिए आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.26% था, जबकि शनिवार को पेश बजट में आवंटन सकल घरेलू उत्पाद के 0.24% के बराबर है.
मनरेगा अधिनियम के तहत ग्रामीण परिवारों को विशेष रूप से अधिसूचित मजदूरी पर प्रति वर्ष 100 दिन का रोजगार की गारंटी दी जाती है.
मोर्चा ने कहा कि 1 फरवरी तक के आंकड़ों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत परिवारों को औसतन 45 दिनों से भी कम काम मिला है, जबकि 2023-24 के लिए यह आंकड़ा लगभग 52 दिन है. यह वित्तीय वर्ष 31 मार्च को समाप्त होगा.
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1 फरवरी तक योजना का घाटा 9,860 करोड़ रुपये और लंबित मजदूरी 6,949 करोड़ रुपये है. साथ ही यह भी लिखा है कि ‘(योजना के) बजट का औसतन 20% पिछले बकाये को चुकाने में खर्च किया जाता है.’
मोर्चा ने आरोप लगाया कि, ‘इस अपर्याप्त बजट के परिणामस्वरूप अनिवार्य रूप से मजदूरी वितरण में देरी होगी, जिससे ग्रामीण श्रमिकों की वित्तीय परेशानी बढ़ेगी; योजना के तहत काम की मांग दब जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप लोगों को रोजगार के उनके अधिकार से वंचित किया जाएगा; और ग्रामीण बुनियादी ढांचे को कमजोर किया जाएगा.’
इसमें यह भी कहा गया है कि सरकार की कम प्रारंभिक आवंटन की रणनीति मनरेगा कार्य की मांग को दबाने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास है और जब इसे योजना की कम मजदूरी दरों के साथ जोड़ दिया जाता है, तो भागीदारी हतोत्साहित होती है.
मोर्चा ने कहा, ‘यह उपेक्षा नहीं है, यह लाखों लोगों की महत्वपूर्ण जीवनरेखा को व्यवस्थित रूप से खत्म करने का हिस्सा है.’
ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति ने दिसंबर में कहा था कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में महंगाई और जीवन-यापन की लागत कई गुना बढ़ गई है.
इसमें कहा गया है, ‘इस समय भी मनरेगा की अधिसूचित मजदूरी दरों के अनुसार, कई राज्यों में प्रतिदिन लगभग 200 रुपये की मजदूरी दर किसी भी तर्क को चुनौती देती है, जब उसी राज्य में श्रम दरें बहुत अधिक हैं.’
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (consumer price index) (सीपीआई-एएल) के कृषि श्रम आयाम में परिवर्तन के आधार पर मनरेगा के लिए मजदूरी हर साल संशोधित की जाती है.
पिछले फरवरी में ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति ने कहा था कि 2010-11 के सीपीआई-एएल मूल्यों को मानकर मजदूरी में संशोधन करने की प्रथा ‘वर्तमान महंगाई और जीवन-यापन की लागत के अनुरूप नहीं है.’
एक विशेषज्ञ समिति के निष्कर्षों का हवाला देते हुए, जिसने 2019 में सिफारिश की थी कि भारत में आवश्यकता-आधारित न्यूनतम मजदूरी 375 रुपये प्रतिदिन तय की जाए, स्थायी समिति ने सिफारिश की कि मनरेगा मजदूरी को ‘उसके अनुसार संशोधित’ किया जाए.
मार्च 2024 में मनरेगा मजदूरी दरों में अंतिम संशोधन के अनुसार, भारत में कोई भी प्रशासनिक इकाई प्रति दिन 374 रुपये से अधिक का भुगतान नहीं करती है.