आधुनिक मूर्ति कला के प्रतिष्ठित मूर्तिकार मदन लाल के हाथों मिट्टी ने अद्भुत रूप धरे हैं

कभी-कभार | मदन लाल देखने में कहीं से मूर्तिकार नहीं लगते जबकि उनका कला-जीवन चार दशकों से ज़्यादा का है. उन्हें उत्तर प्रदेश, गुजरात, योकोहोमा, कानागावा न्यूयार्क आदि से अनेक सम्मान मिल चुके हैं. उनकी कृतियां संसार के अनेक कला संस्थानों और संग्रहालयों में संग्रहीत हैं. इस सबके बावजूद उनका व्यवहार बेहद विनयशील, सौम्य, निश्छल है. आज की बेहद चिकनी-चुपड़ी दुनिया में वे बिरले हैं.

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मदन लाल और उनकी कलाकृति. (फोटो साभार: madanlalsculptor.com)

‘मेरी मां गणित के मास्टर के पास गई और उनसे कहा कि वे मुझे ठीक से गणित पढ़ा दें और वे उनके घर खाना बना और झाडू-पोंछा कर दिया करेंगी’; ‘चूंकि बड़ोदा में मेरे पास लकड़ी या धातु खरीदने के पैसे नहीं होते थे, मैं आस-पास पड़ी ईंटें जमाकर उनसे अपने शिल्प बनाता था’, ‘जब दिल्ली की त्रिवेणी में मेरी पहली प्रदर्शनी हुई तो मेरे पास अपने ईंटों के शिल्प रखने के लिए पैडेस्टल नहीं थे, मैंने उन्हें फ़र्श पर रखकर प्रदर्शित किया’.

ये सभी उक्तियां आधुनिक मूर्ति कला के प्रतिष्ठित मूर्तिकार मदन लाल के एक सार्वजनिक वक्तव्य से ली गई हैं जो उन्होंने पिछले दिनों नई दिल्ली में दिया. यह सब उन्होंने बिना किसी नाटकीयता के, अपनी आरंभिक विपन्नता का बखान बिना किसी कटुता के, सहज भाव से किया. अपने कठिन संघर्ष का ज़रा भी रोना नहीं रोया. बल्कि यह कहा कि उन्होंने ऐसी चीज़ों-प्रसंगों-घटनाओं आदि से बहुत कुछ हमेशा सीखा. उनमें जीवन और उसमें मिले कई व्यक्तियों के प्रति गहरी कृतज्ञता है.

देखने में वे कहीं से मूर्तिकार नहीं लगते जबकि उनका कला-जीवन चार दशकों से ज़्यादा का है. उन्होंने आरंभिक कला शिक्षा बनारस में ली और उसके बाद बड़ोदा और तोक्यो में. वे दशकों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कला अध्यापक रहे हैं. उन्हें उत्तर प्रदेश, गुजरात, योकोहोमा, कानागावा न्यूयार्क आदि से अनेक सम्मान मिल चुके हैं. उनकी कृतियां संसार के अनेक कला संस्थानों और संग्रहालयों में संग्रहीत हैं. इस सबके बावजूद उनका व्यवहार बेहद विनयशील, सौम्य, निश्छल है. आज की बेहद चिकनी-चुपड़ी दुनिया में वे बिरले हैं.

अगर हम कला में, अपने यहां की कला में एक विभाजन अविच्छिन्न और विच्छिन्न आधुनिकता के बीच करें तो बेहद प्रयोगधर्मी होते हुए भी मदन लाल अविच्छिन्न की कोटि में आएंगे. वे और उनका काम हमारे समय में मिट्टी की महिमा का सत्यापन जैसा है. मिट्टी के अलावा उन्होंने अन्य माध्यम भी अपनाए हैं. पर मिट्टी ने उनके हाथों अद्भुत रूप धरे हैं, ऐसे रूप जो शायद मिट्टी को भी पता न होगा कि उसमें छिपे हुए हैं.

अपने गुरुओं के प्रति मदन लाल की श्रद्धा भी अनोखी है. उन्होंने बनारस में राम छतपार और बड़ोदा में कृष्ण छतपार से सीखा. उन्हें मूर्तिकार शंख चौधरी की गुरुछाया भी मिली. अपने गुरु ऋण को चुकाने का मदन लाल ने अनोखा उद्यम किया. उन्होंने बनारस में गंगा तट पर, उसके पवित्र घाटों की कतार में कुछ दूर जाकर राम छतपार न्यास के अंतर्गत एक बड़ा कलाकेंद्र स्थापित किया है. वह विविध कलाओं का एक सुंदर-मनोरम परिसर है और उस पर जो ख़र्च आया है वह सभी मदन लाल ने अपनी तनख़्वाह और कलार्जन से उठाया है.

इस केंद्र के संग्रहालय में शंख चौधरी की अवशिष्ट कलाकृतियां संग्रहीत हैं, जो इसका विशेष आर्कषण हैं. इसके अलावा वहां संगीत-संध्याएं, व्याख्यान, प्रदर्शनियां आदि नियमित रूप से होते रहते हैं. किसी कलाकार द्वारा अपने उद्यम और धन से स्थापित दो ही कला केंद्र देश में हैं: एक चित्रकार जोगेन चौधरी द्वारा कोलकाता में स्थापित-संचालित, दूसरा बनारस में मदन लाल का. एक अर्थ में मदन लाल हिंदी शिल्पकार हैं: हिंदी उनमें रसी-बसी है और सांस्कृतिक रूप से निरंतर विपन्न होते जा रहे हिंदी अंचल के वे बिरले शिल्पकार जिनकी राष्ट्रीय कीर्ति है. अपना कला केंद्र बनाने की प्रेरणा, उन्हीं के वक्तव्य के अनुसार, उन्होंने रविशंकर के रिंपा, अज्ञेय की वत्सल निधि और भारत भवन से पाई.

अखाड़े और लोकहित

कुंभ में बहुत सारे साधु-संत भाग ले रहे हैं और उनमें से कई के अखाड़े भी सदल-बल तरह-तरह के स्नानों के लिए वहां मौजूद हैं. मैं संशयात्मा हूं और मुझे पता है कि ‘संशयात्मा विनश्यति’. इन संतों के लिए कुंभ में अलग व्यवस्था है कि वे बाक़ी श्रद्धालुओं से अलग सुचारू ढंग से स्नान कर सकें. शायद उनके लिए अलग निर्बाध मार्ग भी बन गए हैं. वे उन मार्गों पर निर्भय निश्शंक चलते रहे और कहीं और भगदड़ें मचती रहीं और कुछ लोग मर गए. कितने, इसका प्रामाणिक आंकड़ा अभी तक नहीं आ पाया है.

इस का आधिकारिक बयान तो आता रहा है कि कितने करोड़ लोगों ने किसी स्नान में भाग लिया पर इसका आंकड़ा देने में सरकार को बड़ी दिक्कत है कि कितने मारे गए. दो-चार अपवादों को छोड़कर बाक़ी संतों ने इस ‘मामूली’ दुर्घटना को संज्ञान में लेना ज़रूरी नहीं समझा. अशुद्ध मंत्रोच्चार और अबूझ अध्यात्म का अभ्यास करने वालों के लिए कुछ लोगों का मर जाना एक मामूली हादसा है जो उनके सनातन के अभियान को बाधित नहीं कर सकता. इस मुक़ाम पर इसे सिर्फ़ नोट किया जा सकता है कि ज़्यादातर संत-साधु राजभक्ति में लीन हैं, बजाय धर्मभक्ति के. एक निहायत बड़बोले और बेहद संदिग्ध ने तो यह भी कह दिया है कि गंगा तट पर जो मर गए, वे मोक्ष पा गए. उनसे कहीं बड़े और अपेक्षाकृत सच्चे शंकराचार्य ने, सौभाग्य से, इसका प्रत्याख्यान करते हुए कहा कि अगर ऐसे मोक्ष मिलता हो तो वे इस बड़बोले को धक्का देकर मोक्ष दिलाने के लिए तैयार हैं.

इस संशयात्मा का प्रश्न यह है कि जो साधु-संत और अखाड़े इस समय बहुत दृश्य हैं, वे जब कुंभ न हो तो सार्वजनिक जीवन में नज़र क्यों नहीं आते? वे अपना सामान्य समय क्या करने में बिताते हैं? अपनी धार्मिक दिनचर्या के अलावा उनका समय किस तरह के लोकहित में बीतता है? यह एक तथ्य है कि इस समय गिने-चुने उद्योगपतियों के अलावा हमारे मंदिरों के पास सबसे अधिक धन इकट्ठा होता रहता है. यह धन इन साधुओं के प्रवचन आदि से नहीं, अधिकांशतः मंदिरों में हर दिन आनेवाले चढ़ावे से एकत्र होता है. इस कुंभ में एक बेहद दिखाऊ और भदेस होड़ लगी है कि कौन संत या साधु, महामण्डलेश्वर या जो भी उनके नाम हों, कितना धनाढ्य है; किसके पास किसी महंगी गाड़ी है आदि. उन पर जो ख़र्च आता है, ज़ाहिर है कि आकाश से वरदान के रूप में नहीं टपकता पर मंदिरों आदि से ही आता है. यह साधारण श्रद्धालुओं द्वारा किया गया दान है.

मंदिरों और साधु-संतों के रख-रखाव पर उसका एक बड़ा हिस्‍सा ख़र्च किया जाता होगा. क्‍या बाक़ी बचे हिस्से का कुछ किसी जनहित के काम पर ख़र्च होता है? शिक्षा या स्वास्थ्य पर? नहीं! अधिकांश दिव्य ऐश पर ही. कोविड के दौरान गुरुद्वारों, मसजिदों और थोड़े से मंदिरों ने लाखों लोगों की, मदद की, उन्हें राहत दी जो सत्ता की निमर्मता के कारण, पैदल घर-गांव लौटने पर मजबूर हुए थे पर अधिकांश मंदिरों ने नहीं. क्या यह मंदिरों द्वारा सनातन धर्म की दीनदयालुता का उल्लंघन नहीं है?

 अपूर्वा

कमलेश अवस्थी हिंदी लेखक नहीं थीं. वे एक बहुत असमय दिवंगत हिंदी अलोचक की पत्नी थीं- देवीशंकर अवस्थी की. उन्होंने अपने जीवन के लगभग 60 वर्ष अपने परिवार की देखभाल करने में बिताए. पर इसके अलावा उन्होंने अपने पति की स्मृति में हिंदी में युवा आलोचना के संवर्द्धन और समर्थन के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान स्थापित किया और पूरी निष्ठा और प्रतिबद्धता से अब तक उनका नियोजन करती रहीं. यह सम्मान उन थोड़े से पुरस्कारों में से है जिसकी कीर्ति उसकी पारदर्शिता, आलोचना में दृष्टियों की बहुलता के एहतराम और सुविचारित चयन के कारण दशक-दर-दशक अक्षुण्ण रही है. यह पुरस्कार ने सिर्फ़ हिंदी, बल्कि संभवतः सभी भारतीय भाषाओं में, अनूठा है. यह सब संभव हो पाया तो कमलेश जी की कुशलता, सतर्कता और सजगता से. पुरस्कार हर वर्ष अप्रैल माह में देवीशंकर जी के जन्मदिन पर दिया जाता है. मैं उम्मीद कर रहा था कि कमलेश जी का फ़ोन आता होता, इस वर्ष के पुरस्कार के संबंध में.

हिंदी लेखकों को आम तौर से अपने परिवारों का बहुत समर्थन नहीं मिल पाता क्योंकि हिंदी समाज में लेखक होने का कोई ख़ास मतलब नहीं है. न उसे क़द्र मिलती है, न उसकी वित्तीय स्थिति में कोई बढ़ोतरी हो पाती है. लेखक के दिवंगत हो जाने के बाद अकसर परिवार उसकी स्मृति में पारिवारिक कुछ भले करते हों, सार्वजनिक रूप से प्रायः कुछ नहीं करते. समाज तो उसे भुला ही देता है, अकसर परिवार भी. कमलेश जी इसका बहुत उजला अपवाद थीं. एक बड़े परिवार का पालन-पोषण करने के अलावा, उन्होंने अपने दिवंगत लेखक-पति की स्मृति को बनाये रखने के लिए दो बड़े काम किए. पहला इस पुरस्कार की स्थापना, संचालन और वित्त-पोषण. दूसरा, देवीशंकर जी की समस्त लेखक का बारी-बारी से और अन्ततः उनकी रचनावली का प्रकाशन. इसमें उन्हें अपनी ननद रेखा अवस्थी से लगातार पर्याप्त सहायता मिलती रही. हिंदी साहित्य समाज कमलेश जी का हमेशा ऋणी रहेगा. वे अपूर्व थीं कि बिना लेखक हुए वे हिन्‍दी लेखक समाज की आदरणीय सदस्‍य बन गईं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)