प्रेम और संबंध हमेशा से मीमांसा के विषय रहे हैं. भारतीय परंपरा में इसको लेकर बहुविध धारणा है. आमतौर पर लोगों की समझ बन चुकी है कि विवाह के पूर्व स्त्री-पुरुष संबंध अनैतिक हैं. अनेक अवसरों पर यह बहस का हिस्सा होता है और परंपरा, संस्कृति और नैतिकता की दुहाई देते हुए इसे अनैतिक और असामाजिक बताए जाते है. लोगों का बड़ा समूह इसे अनैतिक कहने का विरोध भी करता है.
वस्तुत: हम यह चयन करने के ऊहापोह में हैं कि भारतीय और गैर भारतीय परंपरा क्या है, कौन-सी है. वैलेंटाइन्स डे भी इन्हीं में से एक है.
भारतीय परंपरा के नाम पर मॉरल पोलिसिंग करते हुए सैकड़ों लोग पार्कों, समुद्र किनारे और ऐसे स्थान जहां दो लोग सहमति से बातचीत अथवा आलिंगन करते हैं वहां से भगाते हुए राष्ट्रीय चैनलों पर देखें जाते हैं. अमूमन ऐसे लोग ख़ास विचारधारा को मानते हैं, धार्मिक नारों के साथ सामाजिक सुधार के नेता होने का दावा कर रहे होते हैं. एक विशेष प्रकार के राष्ट्र के निर्माण में ये लोग जिनका नाम उपयोग करते हैं, उन्हीं के संदर्भ ग्रंथ से बात हो तो भारतीय परंपरा के मूल का पृथक्करण आसान होगा.
धार्मिक दृष्टि से त्रेता युग की विपुल महत्ता है, वाल्मीकि कृत रामायण तत् युग की रेखाचित्र प्रस्तुत करती है. दाशरथि राम और अयोध्या के संबंध में प्राचीन, पुरातन और आधिकारिक ग्रंथ महाकाव्य रामायण मानी जाती है. अयोध्या नगर की अव्यवस्था, शोक और किसी बड़े अपशकुन के लक्षणों में उद्यानों में प्रेमी- प्रेयसी का ना मिलना भी है.
श्रीराम के वनवास के पश्चात भरत-शत्रुघ्न ननिहाल से लौट अयोध्या में प्रवेश करते हैं. भ्राताद्वय अपने सारथी से तथा परस्पर जो संवाद करते हैं, जिसमें नगर के अशुभ लक्षणों को देख किसी विपत्ति के आगमन की शंका प्रकट करते हैं. अयोध्या कांड के इकहत्तरवें सर्ग में दाशरथि भरत कहते हैं,
‘हे सुत! दूर से अयोध्या दिखाई दे रही है. लेकिन यहां की मिट्टी पीली हो गई है. यह नगर यज्ञ करने वाले, गुणसंपन्न, वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों से भरा हुआ था. यह नगर पहले ऋषियों से भरा हुआ था और श्रेष्ठ राजर्षियों द्वारा संरक्षित था. अयोध्या में पहले महान और ऊंचा कोलाहल सुनाई देता था. किंतु अब मैं चारों ओर पुरुषों और स्त्रियों का वह कोलाहल नहीं सुनता हूं. जो लोग सायंकाल में उद्यानों में खेलकर लौटते थे, अब वे यहां दिखाई नहीं देते. पहले उद्यान चारों ओर से भाग-दौड़ करते हुए पुरुषों और स्त्रियों से भरे हुए और प्रकाशमान रहते थे. लेकिन अब ये उद्यान त्यागे हुए प्रतीत होते हैं और मानो विलाप कर रहे हों. यह नगर मुझे अब जंगल जैसा प्रतीत हो रहा है. यहां न तो रथ दिखाई देते हैं, न हाथी और न घोड़े. पहले यहां के मुख्य पुरुष और स्त्रियां नगर से बाहर जाते और आते दिखाई देते थे. उद्यान पहले उल्लास से भरे हुए रहते थे, ये उद्यान पहले जनसमूह के आनंद और प्रेम के लिए अत्यंत उपयुक्त थे. लेकिन आज मैं इन्हें हर तरफ निरानंद और सूने देख रहा हूं. जहां प्रेमी- प्रेयसी जाते हुए नहीं दिख रहे.’
भरत की सारथी से बातचीत आगे भी जारी रहती है, जिसमें नगर में अपशकुन होने की शंका के लक्षणों की चर्चा है. मुख्य बिंदु यह है कि तथाकथित धार्मिक, सामाजिक और नैतिक बनने वाले लोग जब धर्मग्रंथों के संदर्भ से नैतिकता थोपते हैं तो महर्षि वाल्मीकि के अयोध्या पर विपदागत लक्षणों का निरूपण तो देखना ही चाहिए. जहां नगर की पहले की सजीवता और अब के सन्नाटे का जो चित्र खींचा गया है, वह यह दर्शाता है कि जीवन में आनंद, प्रेम, और उल्लास का होना कितना आवश्यक है.
पहले उद्यान पुरुषों और स्त्रियों के प्रेम और आनंद से जीवंत थे, लेकिन आज वे सूने और निर्जीव हो गए हैं. यह चित्र इस ओर इंगित करता है कि यदि हम प्रेम और सौहार्द को जीवन से निकाल देंगे, तो हमारा समाज एक जंगल जैसा वीरान और निरानंद हो जाएगा.
उद्यानों से जोड़ों को भगाना नितांत कुंठित बात लगती है. किसी को प्रेम करने और उसे प्रकट करने का अधिकार छीनना स्वयं अनैतिक है. नैतिकता का अर्थ केवल यह नहीं है कि समाज के नियमों का पालन किया जाए, बल्कि यह भी है कि दूसरों की स्वतंत्रता और अधिकारों का सम्मान किया जाए. प्रेमी जोड़ों को भगाने वाले लोग स्वयं को नैतिकता के संरक्षक मानते हैं, लेकिन उनकी यह हरकत असल में उनकी अपनी कुंठा और संकीर्ण मानसिकता का प्रदर्शन है. जो लोग दूसरों के प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकते, वे स्वयं प्रेम और करुणा से वंचित हैं.
पुराणों में वसंतोत्सव, होली आदि का विविधरूपेण उत्सव मनाने के संदर्भ हैं. हमारे यहां मदनोत्सव-कामोत्सव जैसे त्यौहार रहे हैं. उत्तरपूर्वी भारत में बिहू जैसा लोकपर्व जहां जोड़ों को परस्पर चुनने की स्वतंत्रता है. भारतीय परंपरा में काम और संबंधों को लेकर मुक्त संवाद वेद, उपनिषद, महाकव्य, पुराण प्रभृति में संदर्भ के रूप में देखे जा सकते हैं.
(लेखक सत्य धर्म संवाद के संयोजक हैं.)