नाना प्रकार के उलझावों से भरे इस कठिन समय में 1857 में लड़े गए देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के अलबेले नायक तात्या टोपे की याद इस मायने में बहुत जरूरी है कि वे उस संग्राम के अकेले ऐसे योद्धा थे, जिसने अपनी सुविधानुसार उसमें कोई एक भूमिका चुन लेने के बजाय वक्त की नजाकत के मुताबिक जब जैसी जरूरत हुई, तब तैसी भूमिका निभाई. इतना ही नहीं, लगातार शिकस्तों के बावजूद न निराश हुए, न अपने मनोबल को कमजोर पड़ने दिया और पैंतरे बदल-बदलकर नई उम्मीदें जगाने में लगे रहे.
उनके अप्रतिम शौर्य की गाथा जून, 1857 में शुरू हुई, जब मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब (तब तक देश के बड़े हिस्से पर आधिपत्य जमा चुकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने जिनको लार्ड डलहौजी द्वारा प्रवर्तित कुख्यात डाक्ट्रिन आफ लैप्स के चलते पेशवा का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था) ने बिठूर से कंपनी के विरुद्ध अपना अभियान आरंभ किया और साम-दाम व दंड-भेद सब बरतते हुए उस वक्त के उसके सबसे महत्वपूर्ण गढ़ कानपुर में नाकों चने चबवाकर आत्मसमर्पण करा लिया.
हर मुश्किल का हल
कई उतार-चढ़ावों, क्रूरताओं, प्रतिक्रूरताओं और वीरता के प्रदर्शनों से भरे महीने भर के इस अभियान में तात्या ने नाना साहब के मित्र की भी भूमिका निभाई और दाहिने हाथ की भी. दीवान की भी, प्रधानमंत्री की भी और सेनापति की भी. दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने खुद को उनकी हर मुश्किल के हल के लिए समर्पित किए रखा.
गौरतलब है कि वे सेनापति थे तो सेना के संगठन, सैनिकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, वेतन के भुगतान आदि के सारे मामलों में वही सर्वोच्च निर्णायक थे. एक चुनौती भरे समय में उन्होंने ग्वालियर की सारी शाही संपत्तियों पर कब्जा जमाकर उसके राजकोष से अपने सैनिकों का वेतन भुगतान किया था.
बताते हैं कि उन्हें सेना के संगठन या नेतृत्व का कोई पूर्वानुभव नहीं था. लेकिन उन्होंने प्रयत्नपूर्वक इसमें इतनी कुशलता प्राप्त कर ली थी कि कंपनी की फौजें जितनी उनके खास तरह के गुरिल्ला आक्रमणों से घबराती थीं, किसी और आक्रमण से नहीं. उन पर सीधे हमलों से पहले वे अचानक गुरिल्ला हमले करके उनकी रसद आपूर्ति और संचार सेवाएं बाधित कर उनकी कमर तोड़ने में लग जाते थे.
लेकिन विडंबना कि 1857 के पूरे जून महीने भीषण संघर्ष के बावजूद कानपुर पर उनके कब्जे की उम्र लंबी नहीं हो सकी और 16 जुलाई,1857 को कंपनी के करारे प्रत्याक्रमण के बाद उन्हें उसे छोड़कर वापस बिठूर लौट जाना पड़ा, जो वहां से बारह मील उत्तर स्थित है. कंपनी की फौजें उनका पीछा करती वहां भी जा पहुंचीं तो उनको वहां से भी अन्यत्र जाना पड़ा.
रानी लक्ष्मीबाई की मदद
फिर भी वे निराश नहीं हुए और नए सिरे से सेना संगठित कर नवंबर, 1857 में फिर कानपुर पर धावा बोला और अपना दबदबा कायम किया. अगले छः दिसंबर को एक विषम मुकाबले में कंपनी ने उनके इस दबदबे का अंत कर दिया, तो भी हार नहीं मानी और अगले साल 22 मार्च को कंपनी की फौजों ने झांसी को घेरा तो बड़ी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने वहां पहुंचे.
विपरीतताओं ने वहां भी साथ छोड़ने से मना कर दिया और उन्हें व रानी को कालपी में भी हार का सामना करना पड़ा तो वे ग्वालियर जा पहुंचे और उस पर कब्जा कर लिया. लेकिन जब तक इस कब्जे को मजबूत करते, 17 जून, 1858 को एक मुकाबले में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गईं और नाना साहब के भतीजे राव साहब व बांदा के नवाब अली बहादुर के साथ तात्या को वहां से भी भाग जाना पड़ा.
तात्या के निकट रानी की यह वीरगति इकलौती बुरी खबर नहीं थी. स्वतंत्रता के लड़ाकों के लिए वह ऐसी अनेक बुरी खबरों का दौर था. गहरी नाउम्मीदी का भी. क्योंकि दिल्ली का पतन हो गया था और बादशाह बहादुरशाह जफर पकड़ लिए गए थे, जबकि नाना साहब का कुछ अता-पता नहीं रह गया था. ऐसे में कंपनी की विजय और बागियों की पराजय लगभग तय हो गई थी.
इसके बावजूद तात्या प्राण-प्रण से या तो गोरी फौजों से दो-दो हाथ करते रहे या दो-दो हाथ करने की तैयारियों में व्यस्त रहे. एक ही चिंता करते हुए कि स्वतंत्रता संग्राम जारी रहे और मंजिल तक पहुंचे. वे सुबह कहीं तो शाम कहीं और रहते, ताकि उनकी जान के पीछे पड़े गोरे उनके ठिकाने का पता नहीं लगा सकें.
पंडित सुंदरलाल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में तात्या द्बारा उन दिनों प्रदर्शित कुशल रणनीति का दिलचस्प वर्णन किया है, जब चंबल घाटी और नर्मदा नदी को पार करते समय तात्या को घेरने व पकड़ने के लिए गोरी फौजों ने जमीन आसमान एक कर दिया था.
दुविधा से परे
उनके अनुसार गोरों ने तात्या को रोकने की पहली कोशिश 22 जून, 1858 को जावरा अलापुर में की, तो तात्या भरतपुर की ओर भाग निकले. वहां उनका एक और सशस्त्र टुकड़ी से सामना हुआ तो वे जयपुर की ओर चल दिए, लेकिन वहां भी अंग्रेज़ उनसे ज्यादा तेज निकले. इस पर तात्या टोंक की ओर बढ़े तो वहां के नवाब ने शहर के फाटक बंद करा दिए और मुकाबले के लिए चार बंदूकों वाली एक टुकड़ी भेज दी. लेकिन इस टुकड़ी का जैसे ही तात्या से आमना-सामना हुआ, तात्या ने चतुराई से उसके साजो-सामान के साथ उसे अपनी ओर मिला लिया.
तात्या की एक बड़ी विशेषता यह थी कि जब भी उनका सामना भारतीय सैनिकों से होता, वे उन्हें किसी न किसी तरह अपनी ओर कर लेते थे और उनसे गोरों के तमाम राज भी जान लेते थे, जो मुकाबलों में उनके काम आते थे. लड़ाइयों के वक्त वे कभी किसी तरह की दुविधा या धर्मसंकट में नहीं फंसते थे और द्रुत गति से फ़ैसले करने के लिए जाने जाते थे.
बहरहाल, अपनी ओर मिलाए गए सैनिकों व साजो-सामान के साथ वे इंद्रगढ़ की ओर चल दिए. लेकिन मूसलाधार बारिश में भी गोरा कर्नल होम्स खासी तेज़ी से उनका पीछा करता आ ही रहा था, जनरल रॉबर्ट्स एक अन्य सैन्य टुकड़ी के साथ राजपूताना की ओर से उनसे भिड़ने पर आमादा था.
उन दोनों को छकाकर तात्या जैसे-तैसे कोटरा पहुंचे तो उनके सामने उफनती चंबल थी. जब तक वे उसे पार करने की जुगत करते, विषम युद्ध उनकी अगवानी करने लगा. कोई और रास्ता न देख उन्होंने अपनी बंदूकें वहीं छोड़ीं, चंबल पार कर गए और गोरे सैनिक हाथ मलते रह गए.
इतिहास के जानकार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने अस्त्र-शस्त्र और सैनिकों की संख्या के लिहाज से कई गुनी ज्यादा ताकतवर कंपनी की टुकड़ियों को अपने ऐक्शनों से अरसे तक न सिर्फ मुश्किल में डाले रखा, बल्कि ऐसा तिलिस्म रचा कि उनकी आखिरी सांस के भी देश पर न्यौछावर हो जाने के कई सालों बाद तक गोरे उनके अंत को लेकर आश्वस्त नहीं हो सके-उनके धोखे में कई रणबांकुरों को शूली पर लटकाने के बावजूद!
बीबीसी के लिए ओंकार करंबेलकर द्वारा लिखी गई एक रिपोर्ट कहती है कि 1863 में तत्कालीन ब्रिटिश मेजर जेनरल जीएसपी लॉरेंस ने ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा कंपनी से राजपाट छीनकर खुद चलाई जा रही भारत सरकार के सचिव को लिखा था कि हमारे चालीस हज़ार सैनिक पूरी तरह से असली तात्या टोपे और उनके पांच हज़ार सैनिकों को गिरफ़्तार करने के लिए तैयार हैं.
जाहिर है कि उनको तब भी भरोसा नहीं था कि तात्या की मौत हो चुकी है. रिपोर्ट के अनुसार तब भी तात्या को लेकर ऐसी किवदंतियां प्रचलित थीं कि वे जिंदा हैं.
पुणे से बिठूर
प्रसंगवश, महाराष्ट्र के नासिक जिले के येवला नामक गांव में 1814 में आज के ही दिन जन्मे तात्या को उनके माता-पिता ने रामचंद्र पांडुरंग यावतेल नाम दिया था. लेकिन लाड़ जताने के लिए उन्हें तात्या कहा जाता था. उसमें ‘टोपे’ जुड़ने के दो कारण बताते जाते हैं. पहला यह कि पेशवा बाजीराव द्वितीय ने उन्हें एक खास तरह की टोपी दी थी, जिसे लगातार धारण करने के कारण वे तात्या टोपे कहलाने लगे. दूसरा यह कि तोपखाने में रुचि रखने के कारण उनके नाम में टोपे जुड़ गया.
बहरहाल, उनके पिता पांडुरंग की वेद व उपनिषद कंठस्थ होने की योग्यता से प्रभावित पेशवा बाजीराव द्वितीय ने उन्हें पुणे बुलाया तो तात्या भी उनके साथ वहां गए थे.
बाजीराव द्वितीय जब पुणे से बिठूर गए तो अपने माता-पिता के साथ तात्या का ठिकाना भी वही हो गया. वहीं वे बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र व उत्तराधिकारी नाना साहेब, मोरोपंत तांबे और बाद में रानी लक्ष्मीबाई के संपर्क में आए. और संपर्क में आए तो अपनी प्रतिभा व योग्यता से निरंतर नए मुकाम पाए.
अरसा पहले, तात्या के वंशज पराग टोपे ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित ‘ऑपरेशन रेड लोटस’ नामक पुस्तक लिखी तो दावा किया कि तात्या को लेकर प्रचलित कई किंवदंतियां व जानकारियां सिरे से गलत हैं. यह बात भी सही नहीं है कि अंग्रेजों द्वारा एक विश्वासघाती की मदद से तात्या के ग्वालियर के पास के जंगल में स्थित ठिकाने का पता लगाकर पकड़ा व शिवपुरी, फिर सिपरी गांव लाकर 18 अप्रैल,1859 को फांसी पर लटका दिया.
इस फांसी के बावजूद गोरी फौजों के तात्या की तलाश जारी रखने से भी कुछ ऐसा ही लगता है. इससे भी कि तात्या होने के संदेह में गोरों ने कई लोगों को फांसी पर लटकाया.
वीरगति पाई!
पराग टोपे की मानें तो तात्या को राजस्थान व मध्य प्रदेश की सीमा पर छिपाबरोद में ब्रिटिश फौज से एक मुकाबले में वीरगति प्राप्त हुई थी. एक अंग्रेज मेजर के हवाले से उन्होंने लिखा है कि उस वक्त तात्या एक सफेद अरबी घोड़े पर सवार थे और वीरगति के बाद उनके साथी उनका पार्थिव शरीर वहां से उठा ले गए थे. बाद में उनके साथियों ने ही जानबूझकर प्रचार करना शुरू कर दिया था कि वे जिंदा हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)