महाकुंभ: आस्था और परंपरा का पूंजीवादीकरण

इस वर्ष कुंभ के बाज़ारवाद से अति प्रभावित रहने के चलते अमृत मंथन क्षीरसागर में नहीं पंक में हुआ. सत्ता की मथनी और मीडिया नामक शेषनाग के संयोग से हुआ यह मंथन भारतीय समाज को कोई अमृत देता हुआ तो नहीं ही दिख रहा.

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(फोटो साभार: X/@MahaKumbh_2025)

कुंभ भारतीयों के आस्था का केंद्र सदियों से है. परंपरा से प्राप्त है कि अमृत्तत्व की प्राप्ति के लिए देवों और असुरों ने क्षीरसागर में मंदराचल नामक पर्वत को मथनी, शेष नाग को रस्सी बना मंथन किया. इस मंथन से कई वस्तु प्राप्त हुए. अमृत कुंभ भी उन्हीं में एक था. इसकी प्राप्ति के बाद पीने को लेकर विवाद हुआ और इस विवाद के क्रम में ही चार स्थानों पर वह कुंभ रखा गया, जहां परंपरा से कुंभ मेला लगता है. 

इस वर्ष प्रयाग का कुंभ बाजारवाद से अति प्रभावित रहा. इस बाजारवाद को चढ़े कुंभ में अमृत मंथन क्षीरसागर में नहीं पंक में हुआ. सत्ता की मथनी और मीडिया नामक शेषनाग के संयोग से हुए मंथन ने भारतीय समाज को कोई अमृत देता हुआ तो नहीं ही दिख रहा. इसके केंद्र में मोनालिसा की आंखे, आईआईटी बाबा की भविष्यवाणियां, चिमटा बाबा के चमत्कार, आए हुए कुछ धर्मगुरुओं की राजनीतिक अतिवादिता आदि ही रहे.

पूंजीवाद जब अपने प्रभाव को अति पर लाना चाहता है, तो धर्म और संस्कृति जैसे संवेदनशील विषयों पर जनता में उन्माद फैलाने की कोशिश करता है. इसी पूंजीवादी व्यापारिक मानसिकता ने कुंभ की पवित्रता, मूल्यों और साधु- संत, नागा, जंगम, नाथ योगियों के मेले को तमाशा बना दिया. इस प्रकार कुंभ मेला 2025, कुंभ कार्निवल बन गया.

विज्ञापनों के अतिरेक ने जनसमुदायों को आकर्षित तो किया पर ध्यान रहे धर्म कोई प्रदर्शनी नहीं है. इस मेले को पूंजीपतियों ने सत्ता के सहयोग से एक प्रदर्शनी में बदलने की भरपूर कोशिश की और हद तक सफल भी रहे. कुंभ में कोई सेलिब्रिटी या नेता आकर मेले पर उपकार नहीं करते, इन बातों को समझने के लिए उसका बड़े टीवी चैनलों और संचार के अन्य माध्यमों पर सीधा प्रसारण अथवा आकर्षक खबरों से समझा जा सकता है. 

मेले में पांच सितारा टेंट, सरकारी बाबाओं के संरक्षण से लेकर ठेले- खोमचों वाले से वेंडरों तक से लाखों की सरकारी उगाही; विश्व के सबसे बड़े धार्मिक-सांस्कृतिक को बाजार का भेंट चढ़ता हुआ कार्निवल के रूप में परिवर्तित होने की गवाही देते हैं. तीर्थयात्रा और धार्मिक पर्यटन का बड़ा अंतर इस मेला में आसानी से दृश्यमान थे. अस्थाई टेंट के एक कमरे में रुकने के लाखों रुपये, वीआईपी स्नान घाट, मेला परिभ्रमण में दहाई में नहीं अपितु सैकड़ों विशिष्ट अतिथियों के लिए स्कॉट आदि जैसे प्रोटोकॉल पैसे और सरकार में प्रभाव को दिखा रहे थे. 

कुंभ मेले से कृषकों का संन्यासी विद्रोह से लेकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आंदोलन की तैयारी हुई थी, इसके संदर्भ मिलते हैं किंतु वह मेला अब पूंजीवादी व्यापारिक शक्तियों और सरकार के महिमामंडन का केंद्र बन लोकमंगल से दूर हो रहा.

मेला एक साधना, आध्यात्मिक- सामाजिक विमर्शों तथा शुद्धियों का केंद्र था, परंतु अब विमर्श में अर्थशास्त्रीय दृष्टि होती है कि कितने यात्री आए और कितने हजार करोड़ का व्यापार हुआ. यह सब तब हो रहा है जब भारतीय परंपरा, संस्कृति और हिंदू धर्म की तथाकथित रक्षा करने वाली सरकार है. इस सरकार ने हिंदू धर्म की संरक्षा कम और व्यापारीकरण, राजनीतिकरण अधिक किया. इसका स्पष्ट और सीधा उदाहरण है 144 वर्ष बाद इस कुंभ का संयोग. इस सरकारी गल्प ने ही पवित्र माने जाने पर्व स्नानों और तीर्थयात्रा को पर्यटन में बदल दिया. 

पारंपरिक साधुओं की सेवा, तप और शास्त्रीय विमर्श को छोड़ वायरल बाबाओं की निर्मिति भी मैं बाजारवाद का हिस्सा मानता हूं. इस कड़ी में ही बॉलीवुड के लोगों को बिना दीक्षा के पूर्ण प्रक्रिया के ही सीधे महामंडलेश्वर बनाना पैसे का ही तो खेल है. दीक्षा के कई वर्ष बाद कोई संन्यासी इसके योग्य माना जाता रहा है किंतु अब तो ‘सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति’ ही सिद्ध है. ऐसी अनेक घटनाएं इस मेले के दौरान हुए, वैष्णव तिलक लगाने वाली हिमांगी सखी स्वघोषित शंकराचार्य हो गईं.’

यह कितनी विडंबना है कि वह राष्ट्रीय टीवी चैनलों के हिंदू धर्म के विमर्शों के मुख्य वक्ता होती हैं. जबकि संप्रदायों का मूल प्रस्थानत्रयी की व्याख्या के मूल से ही संप्रदाय के सिद्धांत और टकसाल तय होते हैं. कितना हास्यास्पद और नाटकीय है जब वैष्णव तिलक लगा, फूल मेकअप वाली कोई तृतीय लिंगधारी स्वयं को शंकराचार्य घोषित करती है. वह मुसलमानों के प्रति घृणास्पद बातें करती हुई अधुना के हिंदू धर्म के तथाकथित सम्राट मोदी- योगी की श्रद्धा में नत होती है, जिससे उसके धर्म के साथ कौतुक के अपराध क्षम्य हो जाते हैं. 

कुंभ मेले का व्यवसायीकरण हिंदुओं की भावनाओं से खेल है. यह आर्थिक रूप से फायदेमंद हो सकता है, लेकिन अगर इसका नियंत्रण नहीं किया गया, तो इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है और आगे इसके विनष्टकारी परिणाम देखने को मिलेंगे. यह ज़रूरी है कि व्यवसायीकरण को संतुलित और नियंत्रित किया जाए ताकि श्रद्धालुओं की आस्था और परंपरा की पवित्रता बनी रहे.

अब यह हिंदुओं को ही सुनिश्चित करना है कि कुंभ मेला केवल एक बाज़ार न बन जाए, बल्कि इसकी आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक पहचान संरक्षित रहे.

(लेखक सत्य धर्म संवाद के संयोजक हैं.)