अवध के नवाबों की विलासिता के अनेक किस्से उनकी नवाबी खत्म होने के डेढ़ से ज्यादा सदियों बाद भी सूबे के लोगों के दिल व दिमाग में इस कदर जड़ीभूत हैं कि वे बडे़ से बड़े इतिहासकार की गवाही पर भी इस तथ्य पर यकीन करने को तैयार नहीं होते कि आसफउद्दौला (1775-1797) से पहले तक ये नवाब न सिर्फ खुद बेहद पराक्रमी थे, बल्कि अपनी फौज की ताकत से भी कोई समझौता नहीं करते थे और उसे अजेय बनाए रखने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखते थे.
इस सिलसिले में सर्वाधिक जड़ीभूत किस्सा वह है, जिसमें कहा जाता है कि 11 फरवरी, 1856 को ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर दल-बल के साथ नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार करने पहुंचे तो ‘विलासी’ वाजिद मौके की नजाकत के मुताबिक कदम उठाने के बजाय बैठे इंतजार करते रहे कि कोई सेवादार आकर उन्हें जूते पहना दे, तो वे बचने के लिए कहीं छिपें या भागें.
वाजिद के व्यक्तित्व और कृतित्व के जानकार बताते हैं कि इस किस्से को कभी जानबूझकर उनकी छवि बिगाड़ने के लिए गढ़ा गया, लेकिन इस तरह की तोहमतों से उनके पूर्ववर्ती नवाबों को भी बख्शा नहीं जाता. उनको भी नहीं जिनकी फौज मुगलों की फौज से ज्यादा ताकतवर हुआ करती थी और जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी की दुस्साहसी फौज भी आमने-सामने की लड़ाई में उलझने से बचती थी.
बक्सर की शिकस्त
इतिहास गवाह है कि यह स्थिति 22-23 अक्टूबर, 1764 को हुई बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई के बाद बदली, जब कंपनी की फौज ने बंगाल के नवाब मीर कासिम, मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजाउद्दौला (1754-1774) की फौजों का एक साथ मानमर्दन कर डाला.
अलबत्ता, शुजाउद्दौला का मनोबल वह तब भी नहीं तोड़ पाई थी और वे फैजाबाद स्थित अपनी नई राजधानी में आखिरी सांस तक अपनी फौज को सजाने-संवारने में लगे रहे थे. इसके बावजूद कि वे विजय दंभ में डूबी कंपनी से अपमानजनक संधि के मोहताज थे, जिसने उसके तहत उन पर कई बंदिशें लगा रखी थीं.
अवध पर केंद्रित अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘तारीख-ए-फरहतबख्श’ में मुंशी फैज बख्श ने लिखा है कि उन मुश्किल दिनों में भी जल्दी भरने व फायर करने की दृष्टि से शुजाउद्दौला के फौजियों की बंदूकों के मुकाबले कंपनी के फौजियों की बंदूकें किसी गिनती में नहीं थीं.
निस्संदेह, शुजाउद्दौला भी कुछ कम रंगीन मिजाज नहीं थे, लेकिन रंगीनियों में ही डूबे रहकर राजकाज को भगवान भरोसे छोड़ देने मर्ज उन्हें नहीं था. उनसे पहले सूबे के प्रथम नवाब सआदत अली खान प्रथम (1722-1739) ने अपनी फौज के बूते मराठों व नादिरशाह दोनों को नाकों चने चबवा दिए थे. यह और बात है कि 1739 में करनाल में बादशाही सेना के बगैर नादिरशाह को शिकस्त देने का मंसूबा अंततः उनके त्रासद अंत का कारण बन गया था.
दूसरे नवाब सफदरजंग (1739-1754) ने अपने सैन्य बल से 1748 में कुख्यात अहमदशाह अब्दाली से लोहा लिया और उसे हराने के बाद मुगल बादशाह अहमदशाह (1748-1754) के विरुद्ध बगावत कर उनको भी छह महीनों तक दिल्ली में ही घेरे रखा था. 14 जनवरी, 1761 को पानीपत की तीसरी लड़ाई में तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने अब्दाली से मिलकर मराठों की बेहद शक्तिशाली सेना को हराने में बड़ी भूमिका निभाई तो उनकी सेना में एक लाख सत्तर हजार सैनिक थे.
ऐसा था सैन्य संगठन
नवाबी सेना के सुनहरे दिनों में नवाब उसके प्रधान सेनापति हुआ करते थे, जबकि उनके अधीन मीरबख्शी, बख्शी और रिसालेदार. सेना मुख्यतः पांच भागों में विभाजित रहती थी: पैदल, हाथी, घुड़सवार, तोपखाना और गुप्तचर. पैदल सैनिक भाले, तलवार या बंदूकें लेकर चलते थे और आमतौर पर नवाब के जानमाल और सल्तनत की आंतरिक व वाह्य सुरक्षा के दायित्व निभाते थे. कभी-कभी उससे मालगुजारी वसूलने में मदद का काम भी लिया जाता था.
प्रधान सेनापति के तौर पर नवाब हाथी पर सवार होकर युद्धभूमि में जाते और जरूरत के मुताबिक आदेश दिया करते थे. सेना के गुप्तचर राज की सारी बातें सीधे उन्हीं को बताते और उन्हीं के प्रति जवाबदेह होते थे. हाथियों के दल को शत्रु की संगठित रक्षापंक्ति को भेदने और किलों के मजबूत दरवाजे तोड़ने में लगाया जाता था. घुड़सवारों के रिसाले युद्ध की सामग्री व संदेश लाते-ले जाते थे. तोपखाने का प्रधान मीर आतिश कहलाता था और उसका काम था शत्रु के ठिकानों को तबाह कर उस पर बढ़त प्राप्त करना.
बक्सर की लड़ाई में शुजाउद्दौला की अपमानजनक शिकस्त (जिसमें उनको एक लंगड़ी हथिनी पर सवार होकर भागना पड़ा था.) ने अवध के राजकाज में अंग्रेजों के दखल का रास्ता खोला तो भी उन्होंने अपनी सेना के यूरोपीय ढंग के प्रशिक्षण के लिए दो सौ फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किए और गुप्तचर तंत्र को भी मजबूत बनाया था. उनको युद्ध अपराधी करार दे चुके अंग्रेजों को इससे यह डर सताने लगा कि वे उनसे फिर दो-दो हाथ करने वाले हैं, तो उन्होंने एक संधि के नाम पर उनके सैन्य बल में भारी कटौती करवा दी.
आसफउद्दौला का वैभव विलास
ऐश व इशरत में गर्क होने का सिलसिला वास्तव में उनके बेटे आसफउद्दौला ने तब शुरू किया, जब वे सूबे की राजधानी फैजाबाद से स्थानांतरित करके लखनऊ ले गए.
इतिहासकारों के अनुसार, लखनऊ में ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर जल्दी ही आसफउद्दौला को घेरकर यह समझाने में हो गए कि कंपनी से हुए करार के मुताबिक वे अपने राजपाट की सुरक्षा के प्रति निश्चिंत रहकर आमोद-प्रमोद में मगन रह सकते हैं.
उर्दू के लोकप्रिय इतिहासकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने लिखा है कि आसफउद्दौला को खुद भी फौज के संगठन का ज्यादा ‘शौक’ न था. इसलिए उन्होंने फौज पर खर्च के लिए निर्धारित खजाने का धन अपने मौज-मजे, वैभव-विलास और सजावट व संपन्नता के दिखावे में खर्च करना शुरू किया तो उसकी कोई सीमा नहीं रहने दी.
वे चाहते थे कि हैदराबाद के निजाम या मैसूर के टीपू सुल्तान किसी के भी दरबार का दबदबा, शान व शौकत अवध दरबार से ज्यादा न हो. गौरतलब है कि आसफउद्दौला का यह हाल तब था, जब जून,1776 में लखनऊ में अपनी राजधानी को ठीक से व्यवस्थित कर पाने से पहले ही उनका अपनी हत्या की एक बड़ी साजिश से सामना हो गया था. उनके वजीर मुख्तारउद्दौला समेत उनके सफाये की इस साजिश के सूत्रधार उनकी पैदल सेना के बख्शी वसंत अली और उनके आंख-कान रहे राजा झाऊलाल वगैरह थे.
दरअसल, इससे पहले इनके द्वारा रोज-रोज खड़ी की जाने वाली दिक्कतों से तंग आसफउद्दौला ने इन्हें जेल में डाल दिया था और जेल से छूटने के बाद इनकी बदले की आग इतनी भड़क उठी थी कि इन्होंने नवाब के छोटे भाई सआदतअली खां उर्फ मिर्जा मंगली को इस वादे पर अपनी साजिश का हिस्सा बना लिया कि सफल हुए तो नवाबी का ताज उन्हें ही पहनाएंगे. चूंकि आसफउद्दौला सआदत को कोई खास भाव नहीं देते थे, इसलिए सआदत इस लोभ का संवरण नहीं कर पाए.
साजिश इतनी गुप्त रखी गई कि मुख्तारउद्दौला के मारे जाने तब किसी को उसकी भनक नहीं लग पाई.
हुआ यह कि वसंत अली ने पुराने गिले-शिकवे दूर करने के बहाने नवाब और वजीर के सम्मान में रंगारंग महफिल व दावत आयोजित की तो उसकी मंशा से अनजान मुख्तारुद्दौला खुशी-खुशी उसका लुत्फ उठाने जा पहुंचे. उन्होंने अपने अंगरक्षकों तक को साथ नहीं लिया. वसंत अली ने आसफउद्दौला से भी इस महफिल की शान बढ़ाने की प्रार्थना की थी, ताकि नवाब-वजीर दोनों का काम एक साथ तमाम कर दे, लेकिन साजिश का कतई पता न होने के बावजूद वे उसमें नहीं गए.
इससे निराश वसंत अली ने वजीर को निपटाकर आसफउद्दौला का ‘इंतजाम’ करने की सोची और जैसे ही मुख्तारउद्दौला तहखाने के रास्ते महफिल में जाने लगे, नीम अंधेरे में फजल अली व तालिब अली नाम के दो दुर्दांतों के हाथों उनकी हत्या करा दी. ये दोनों दुर्दांत उसके अफगान दोस्त अजब खान के गुर्गे थे.
वजीर समेत हत्या की साज़िश
इस तरह आधा मैदान मारकर वह आसफउद्दौला की हत्या करने चला तो गफलत में था कि अभी उन्हें मुख्तारउद्दौला की हत्या की खबर नहीं होगी. उसे महज एक-दो लोगों के साथ ही उनसे मिलने की इजाजत मिली तो भी उसको भांडा फूटने का संदेह नहीं हुआ. लेकिन दीवानखाने के अपने वफादार बड़े मिर्जा नाम के दारोगा और एक गुलाम के साथ आसफउद्दौला के पास पहुंचा तो सिपाहियों की एक टुकड़ी को सावधान खड़ी देखा.
जब तक वह कुछ समझ पाता, आसफउद्दौला ने उसे और गुलाम को टुकड़ी के हवाले कर दिया. वह उनको ले जाने लगी तो बड़े मिर्जा भी पीछे लग लिए. लेकिन वे थोड़ी ही दूर गए थे कि नवाज सिंह नामक सिपाही ने वसंत अली को तलवार भोंक दी. पुरानी खुन्नस थी, इसलिए वह गिरा तो उसकी लाश को जूते भी मारे. यह देख बड़े मिर्जा ने आपा खोकर अपनी तलवार निकाली और उससे नवाज के भी दो टुकड़े कर भाग निकले.
बात फैली तो मुख्तारउद्दौला व वसंत अली के वफादार सैनिक आपस में भिड़ गए और आसफउद्दौला को उन पर काबू पाने में भी बड़ी ताकत खर्च करनी पड़ी. बड़े मिर्जा ने उनसे अपने किए की माफी मांगी तो इस शर्त पर दी कि वे फौरन से पेश्तर लखनऊ छोड़ दें. फिर तो विफलमनोरथ सआदतअली खां और वसंत अली के गुलाम के साथ मिर्जा अकबराबाद (आगरा) भाग गए.
इस विफल साजिश ने सूबे में अरसे तक उथल-पुथल मचाए रखी. सआदत अली अकबराबाद में रहकर भी छोटी-मोटी साजिशें रचते रहे. लेकिन 1778 में रेजीडेंट मि. विस्ट्रो से अनुमति लेकर लखनऊ लौट आए और आसफउद्ददौला से सुलहकर तीन लाख के सालाना भत्ते पर बनारस चले गए.
साजिश रचने में वसंत अली के साथ रहे राजा झाऊलाल का खूंरेजी में कोई हाथ नहीं दिखा तो उन्हें बख्श दिया गया. लेकिन 1787 में नए वजीर हैदरबेग खां से विवाद के बाद उनकी सारी संपत्ति जब्त कर फिर जेल भेज दिया गया. 1795 में किस्मत पलटी तो वे खुद वजीर बन गए, लेकिन दो साल बाद गवर्नरजनरल सर जॉन शोर ने अंग्रेजों के विरुद्ध साजिश का आरोप लगा उन्हें सूबे से ही निर्वासित कर दिया.
इन्हीं जॉन शोर ने 1798 में साजिशन आसफउद्दौला के बेटे वजीर अली को अपदस्थ कर सआदतअली खां की सूबे का नवाब बनने की पुरानी मुराद पूरी की.
यों आई विलासिता
इतिहासकार बताते हैं कि विलासी आसफउद्दौला ने भी अपनी सत्ता के शुरुआती दौर में जरूर ईस्ट इंडिया कंपनी की उपेक्षा कर पचास हजार पैदल सैनिकों, 15 हजार घुड़सवारों, 150 तोपों, 500 हाथियों, तीन हजार घोड़ों, 525 मल्लाहों और 164 ऊंटों वाली सेना संगठित कर ली थी, लेकिन इस पर पलटवार करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने उसके सारे उच्च पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति अनिवार्य कर दी और तोपखाना भी अपने अधीन कर लिया.
बाद में उनके बेटे वजीर अली (1797-1798) को जबरन अपदस्थ कर सआदत अली खान द्वितीय (1798-1814) की ताजपोशी किए जाने तक कंपनी ने इस सेना में महज 20 हजार प्रशिक्षित सैनिक बचने दिए थे. इस तर्क पर कि दोनों पक्षों में हुई संधि के अनुसार सूबे की रक्षा का भार नवाबी सेना का नहीं कंपनी की सेना का है.
अनंतर, गाजीउद्दीन हैदर (1814-1818) के वक्त तो उसने हद ही कर डाली थी. उन्हें ‘नवाब’ के बजाय ‘बादशाह’ बनाकर मुगल दरबार के बरक्स खड़ा कर दिया मगर नाममात्र की सेना ही रखने की अनुमति दी थी.
नवाब वाजिद अली शाह (1847-1856) ने अपने दौर में अपनी विलासी छवि के विपरीत फिर से सेना संगठित करनी शुरू की तो नाना प्रकार से उस छवि को बरबस उन पर चस्पां करते व सूबे की लूट तक के आरोप लगाते हुए उनसे राजपाट ही छीन लिया.
यों, इससे पहले ही उसने नवाबी सेना के ऐसे दुर्दिन ला दिए थे कि उसकी भूमिका गवर्नर जनरलों के स्वागत या नवाब परिवार में जन्म व विवाह आदि के मौकों पर तोपें दागने भर तक रह गई थी.
विडंबना यह कि इस सबके बावजूद अवध के नवाबों की विलासिता के जितने ठीकरे वाजिद अली शाह पर फोड़े जाते हैं, आसफउद्दौला पर नहीं फोड़े जाते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)