हिंदी पट्टी में 90% से अधिक लोग केवल एक भाषा बोलते हैं: डेटा

तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच समग्र शिक्षा अभियान के फंड संबंधी विवाद ने हिंदी थोपे जाने की बहस को फिर हवा दी है. आंकड़े बताते हैं कि ग़ैर -हिंदीभाषी राज्य अधिक बहुभाषी हैं, जबकि हिंदीभाषी राज्यों में यह प्रवृत्ति कमज़ोर है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Flickr/Stars Foundation)

नई दिल्ली: तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच समग्र शिक्षा अभियान (एसएसए) के फंड को लेकर चल रही टकरार ने हिंदी थोपे जाने की बहस को फिर से जन्म दिया है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हिंदी को जबरन लागू करने के खिलाफ अपना रुख दोहराया और दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई.

वहीं, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हिंदी थोपे जाने के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि बहुभाषिक शिक्षा से किसी को नुकसान नहीं है, और तमिलनाडु के छात्रों के लिए हिंदी सीखना कोई अनिवार्य नहीं है. लेकिन असल मुद्दा यह है कि क्या तीन-भाषा फॉर्मूला के जरिये हिंदी को अप्रत्यक्ष रूप से थोपा जा रहा है?

इसी बीच द हिंदू ने लैंग्वेज सेंसस और ग्लोबल डाटा लैब के डेटा के विश्लेषण से बताया है कि हिंदी क्षेत्र के लोग दूसरी भाषाएं सीखने के प्रति कम रुचि रखते हैं, जबकि गैर-हिंदी राज्यों में बहुभाषिकता का स्तर अधिक है. अंग्रेजी बोलने वाले लोगों की संख्या गैर-हिंदी राज्यों में बढ़ रही है, जबकि हिंदीभाषी क्षेत्रों में यह संख्या घट रही है.

हिंदी थोपने की बहस और अंग्रेजी की प्रासंगिकता

इस पूरे विवाद का मूल सवाल यह है कि तीन-भाषा फॉर्मूला अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी थोपने का जरिया है या नहीं. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि—क्या विकास से जुड़े आंकड़े अंग्रेजी को संपर्क भाषा (लिंक लैंग्वेज) के रूप में हिंदी से अधिक उपयुक्त साबित करते हैं?

अगर सरल शब्दों में कहें, तो क्या हिंदीभाषियों को बेहतर अवसरों के लिए अंग्रेजी सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, या फिर गैर-हिंदीभाषियों को हिंदी सीखने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए? इस पर द हिंदू का विश्लेषण आंकड़े महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं.

राज्यों में बहुभाषिकता का पैटर्न

डेटा से पता चलता है कि गैर-हिंदीभाषी राज्यों के लोग आमतौर पर नई भाषाएं सीखने के लिए अधिक इच्छुक होते हैं, जबकि हिंदीभाषी राज्यों में यह प्रवृत्ति कम देखी जाती है.

उदाहरण के लिए, 1991 में तमिलनाडु में 84.5% तमिलभाषी लोग केवल तमिल बोलते थे, लेकिन 2011 तक यह घटकर 78% रह गया. इसी तरह, ओडिशा में 86% उड़िया-भाषी लोग 1991 में केवल उड़िया बोलते थे, जो 2011 में घटकर 74.5% रह गया.

दूसरी ओर, हिंदीभाषी राज्यों में एक अलग प्रवृत्ति देखी गई. बिहार में 1991 में 90.2% हिंदीभाषी लोग केवल हिंदी बोलते थे, जो 2011 में बढ़कर 95.2% हो गया. इसी तरह, राजस्थान में 1991 में 93% हिंदीभाषी केवल हिंदी जानते थे, लेकिन 2011 तक यह बढ़कर 94.3% हो गया.

आंकड़े यह स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि गैर-हिंदीभाषी राज्यों में बहुभाषिकता अधिक है, जबकि हिंदीभाषी राज्यों में यह प्रवृत्ति अपेक्षाकृत कमजोर है.

दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी या हिंदी?

अब सवाल यह उठता है कि दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में लोग कौन-सी भाषा चुन रहे हैं—अंग्रेजी या हिंदी?

तमिलनाडु में 1991 में 13.5% तमिलभाषी लोग अंग्रेजी जानते थे, जो 2011 तक बढ़कर 18.5% हो गया. दूसरी ओर, हरियाणा में 1991 में 17.5% हिंदीभाषी अंग्रेजी जानते थे, लेकिन 2011 तक यह घटकर 14.6% हो गया.

इसी तरह, हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या या तो घटी है या स्थिर रही है, जबकि गैर-हिंदी राज्यों में यह संख्या बढ़ी है.

तमिलनाडु, ओडिशा और पंजाब में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जबकि गुजरात और महाराष्ट्र में यह वृद्धि अपेक्षाकृत कम रही है.

आंकड़े दिखाते हैं कि गैर-हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी सीखने की प्रवृत्ति कितनी बढ़ी. तमिलनाडु में 1991 में केवल 0.5% तमिलभाषी लोग हिंदी जानते थे, जो 2011 में बढ़कर सिर्फ 1.3% हुआ. कर्नाटक में यह संख्या 8.5% पर स्थिर रही.

लेकिन गुजरात और महाराष्ट्र में हिंदी सीखने की प्रवृत्ति अधिक रही. गुजरात में 1991 में 21.6% गुजरातीभाषी लोग हिंदी जानते थे, जो 2011 तक बढ़कर 39% हो गया. महाराष्ट्र में यह आंकड़ा 35.7% से बढ़कर 43.5% हो गया.

इससे स्पष्ट होता है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी सीखने की प्रवृत्ति बेहद कम रही है, जबकि पश्चिम और पूर्वी भारत में हिंदी सीखने वालों की संख्या बढ़ी है.

हिंदी या अंग्रेजी – कौन अधिक उपयोगी है?

अब सवाल यह उठता है कि कौन-सी भाषा नागरिकों को बेहतर अवसर प्रदान करती है?

डेटा से पता चलता है कि जिन राज्यों में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या अधिक है, वहां मानव विकास सूचकांक भी बेहतर है. इसके विपरीत, हिंदी बोलने वाले राज्यों में मानव विकास सूचकांक कम है.

इसके अलावा, आर्थिक सर्वेक्षणों से यह भी पता चला है कि हिंदीभाषी राज्यों के लोग अधिक संख्या में रोजगार के लिए गैर-हिंदी राज्यों में पलायन कर रहे हैं.