संगीत समय में घटता है, विराट् समय को संगीत संक्षिप्त करता है, दिए हुए समय को, ऐतिहासिक समय को अतिक्रमित करता है: हमारे समय में घटता है लेकिन सनातन को, अनंत को अंतर्ध्वनित करता है. हम सबके पास अपनी नश्वरता का जो बेचैन सा बोध है, उसे संगीत, कुछ देर के लिए, अनश्वरता के बोध में बदल देता है. यह एक तरह से अंत को अनंत में बदलना है.
जब आप मल्लिकार्जुन मंसूर या अमीर ख़ां को गाते, अली अकबर ख़ां को सरोद और ज़िया मोइउद्दीन डागर को रुद्र वीणा बजाते, विलायत ख़ां को सितार बजाते और कुमार गन्धर्व और किशोरी अमोणकर को गाते सुनते हैं तो लगता है, समय नहीं, अनंत गा-बजा रहा है. संगीत समय में अनंत की उपस्थिति की एक विधा है.
जैसे समय के मूल में अंतर्विरोध है कि वह अभी है और निरंतर भी, तत्काल और सनातन भी, वैसे ही संगीत के मूल में अंतर्विरोध है कि वह अभी है और उसकी अंतर्ध्वनियां बाद तक बनी रहती हैं- वह समाप्त नहीं होता, उसे सिर्फ़ रोक दिया जाता है.
रूसी कवि बोरिस पास्तरनाक ने कहा था ‘कलाकार अनंत का राजदूत है/ जिसे समय ने बंधक बना लिया है.’ कह सकते हैं कि संगीत भी अनंत का राजदूत है जिसे समय ने बंधक बना रखा है.
संगीत हमें कई बार ऐसे समय में ले जाता है जो हमसे छूट चुका है, जिसे हम गंवा चुके हैं- हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अधिकांश बंदिशें गुज़रे ज़माने से ताल्लुक रखती हैं. वह हमें बीत चुके, गंवा चुके समय को पुनरायत्त करने का न्योता, अवसर देता है.
संगीत उपस्थिति-अनुपस्थिति का अद्भुत खेल है: स्वर होते-होते, न होता जाता है. अभी है, अभी ही नहीं होगा. स्वर कहां चला जाता है? क्या हमारी स्मृति में, क्या जिस मौन से, जिस गै़ब से वह उपजा, उसी में लीन हो जाता है? स्वर समय में बीत जाता है, क्या स्मृति के अनंत में बचा रहता है? क्या स्मृति अनंत होती है?
संगीत के साथ सामुदायिकता जुड़ी है तो एकांत भी. संगीत एकांत का विराग है और उसकी विपुलता भी. संगीत विराट् को स्पन्दित करता है: कई बार उसमें विराट् की लघुता, कई बार लघुता का विराट् व्यक्त होते हैं. अक्सर संगीतकार हमसे अलग, दूसरा होता है: वह जो संगीत रचता है उसमें हम अपने को और दूसरे को एक साथ सुनते हैं. संगीत में आत्म की अन्यता और अन्यता का आत्म दोनों चरितार्थ होते हैं.
राजनेता मधु लिमये ने आपातकाल में जेल में कुमार गन्धर्व का संगीत सुनते हुए उन्हें पत्र में लिखा था कि उनका संगीत सुनकर लगता है वे संसार का रहस्य छू सा रहे हैं. संसार के बुनियादी रहस्य और उस पर होने वाले अनिवार्य विस्मय को संगीत सहेजता है. एक ऐसे काल में जिसमें रहस्य और विस्मय दोनों ही अपदस्थ कर दिए गये हैं, संगीत उनका पुनर्वास करता है.
कुछ ऐसी जिज्ञासाएं उभरती हैं जिनका समाधान नहीं हो पाता: क्या संगीत में समय अनंत को पुकारता है? क्या संगीत में समय अनंत से अपने बिछोह पर विलाप करता है? क्या संगीत समय को अनंत से पुनर्मिलन का अवसर या मुक़ाम देता है? क्या संगीत कभी-कभार समय के रास्ते अनंत को छू पाता है, कई बार नहीं भी छू पाता है?
टीएस ईलियट की एक कविता पंक्ति कहती है ‘तुम संगीत हो जब तक वह रहता है’, और अज्ञेय ने लिखा है: ‘मैं मौन-मुखर सब छंदों में/ उस एक अनिर्वच छंदमुक्त को गाता हूं.’
रंगो-अदब
आधुनिक भारतीय आलोचना की एक बड़ी कमी यह है कि अनेक भारतीय भाषाओं में शास्त्रीय संगीत और शास्त्रीय नृत्य की समझदार और ज़िम्मेदार आलोचना, उन पर विचार-विमर्श की बहुत कमी है. उनके लिए जो व्यापक रसिकता भारतीय समाज में मौजूद और सक्रिय है वह आलोचना के रूप में कम ही चरितार्थ हो पाई है. ऐसी कटूक्ति की जा सकती है कि हम शास्त्रीय कलाओं का आस्वादन तो करते हैं, उन पर, उनकी स्थिति पर, उनमें विन्यस्त दृष्टि और सौन्दर्य पर, उनके जीवन की उच्छलता-उल्लास-विषाद-विलाप पर, उनकी अद्भुत निरंतरता और सहज परिवर्तनशीलता पर विचार करने से परहेज सा करते हैं.
शास्त्रीय संगीत और नृत्य हमें अभिभूत तो करते हैं पर विचारशील नहीं बनाते. यह शास्त्रीय कलाओं की भूमिका का लगातार चल रहा अवमूल्यन जैसा है. ऐसी विकट स्थिति में, पटना में, वहां के संगीत-रसिक डॉ. अजित प्रधान और संस्था नवरस स्कूल ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स द्वारा संगीत पर लिखे जा रहे साहित्य पर एकाग्र दो दिनों का आयोजन ‘रंगो-अदब’ एक अनोखी और बहुत स्वागत करने योग्य पहल है.
उसमें 40 से अधिक संगीतकारों और लेखकों ने लगभग 20 सत्रों में ‘बंदिशों की अनोखी कहानियां’, ‘सुर साज और प्रहर’, ‘मूर्धन्यों का निर्माण’, ‘संगीतकारों की सोहबत’, ‘ध्रुपद: अतीत वर्तमान और भविष्य’, ‘घरानों में बंदिशों की विविधता और वैभव’, ‘क्या शास्त्रीय विरासत ख़तरे में है’, ‘राग संगीत और तंतुवाद्य की कविता’ आदि पर विचार व्यक्त किए, रोचक निजी प्रसंग सुनाए और कुछ नए प्रश्न उठे. पटना के प्रख्यात बिहार संग्रहालय के एक सभागार में यह विमर्श चला और उसी के खुले प्रांगण में कुछ संगीत प्रस्तुतियां हुईं.
इनमें से अधिकांश सत्रों को सुनते हुए इस विडंबना की पुष्टि हुई कि शास्त्रीय संगीत पर सोचने और लिखने का काम ज़्यादातर अंग्रेज़ी में हो रहा है, हिंदी में कम. दुर्भाग्य से इस काम का बड़ा हिस्सा जीवनियां लिखने, जब-तब किसी प्रस्तुति की समीक्षा करने आदि तक महदूद है. संगीत पर विचार और चिंतन बहुत कम हो रहा है.’
याद आता है कि दशकों पहले संगीतवेत्ता मुकुन्द लाठ ने अज्ञेय द्वारा स्थापित-पोषित वत्सल निधि के अंतर्गत ‘संगीत और चिंतन’ पर कुछ व्याख्यान दिए थे जो बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुए. उसकी किसी को याद तक नहीं है और न ही इसी विषय पर कोई दार्शनिक या चिंतक कुछ बोलने-लिखने को तैयार है. हालांकि मेरी रुचि सिनेमा संगीत में नहीं रही है, अच्छा है, उसे विचार में लिया जा रहा है और उस पर भी कुछ रोचक सत्र थे.
कभी मैंने अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करते हुए यह कहा था कि शास्त्रीय कलाओं में श्रेष्ठता का युगान्त हो चुका है और वह युग काफ़ी लंबा, सौभाग्य से, चला है. अब पठार समय आ गया है जो भी शायद लंबा चलेगा. धीरे-धीरे सूक्ष्मताएं, गहराई, चिंतनशीलता, लंबी शिक्षा, साहसिकता आदि विरल हो रहे हैं. रंगो-अदब में इतने सारे विशेषज्ञों को सुनकर इसकी पुष्टि हुई.
हिम्मत शाह
अभी कुछ महीने पहले हिम्मत शाह की एक प्रदर्शनी हुई थी जिसमें उनके समय को नब्बे के पार कहा गया था. बीते दिनों उनका देहावसान हो गया. एक कलाकार के रूप में हिम्मत का जीवन अथक खोज, अटल जिज्ञासा और अदम्य रचनातकता का जीवन था: उसमें जीवट और हिम्मत, अपनी दीवानगी पर भरोसा सब साथ थे. हिम्मत ने अपनी कला में संसार की पदार्थमयता की बहुलता का, संभावना का, रहस्य और विस्मय का जैसा संधान किया भारत में, पिछली लगभग अधसदी में, किसी और शिल्पकार ने नहीं किया. वे मूर्धन्य और अद्वितीय थे.
शिल्प की सामग्री हिम्मत के यहां अपने आप में कला का घर थी- कई बार लगता था कि इस सामग्री में अंतर्भूत संसार उनकी कला का असली उपजीव्य था. वे मिट्टी को किसी रूपाकार में नहीं रचते थे, पर मिट्टी उनके हाथों अपने को गढ़ती-रचती थी. एक स्तर पर सामग्री की अनश्वरता उनके नश्वर जीवन का अतिक्रमण थी तो जैसे उनकी कला अनश्वरता का आयाम इसी सामग्री को साधकर पा लेती थी.
एक और पक्ष यह था कि हिम्मत के यहां निपट साधारण शिल्पित होकर असाधारण हो जाता है. ऐसा वे साधारण की सघनता पर आग्रह कर संभव करते हैं, साधारण को किसी तरह से अलंकृत कर नहीं. उनके यहां जो चेहरों की भरमार है वह किन्हीं पौराणिक, ऐतिहासिक, लोकप्रिय नायकों के नहीं है- वे लगभग अनायकों के चेहरे हैं- अनायक-साधारण में हिम्मत ने सौंदर्य खोजा. उनका शिल्पन इस अनायक को बहुत मानवीय और मार्मिक वैभव देता है. आधुनिक भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा साधारण की महिमा के सत्यापन का प्रयत्न रहा है और हिम्मत की कला उसका एक मूल्यवान अंग रही है.
हिम्मत का वितान बहुत विस्तृत रहा है. पर निरंतर फैलते वितान में उनकी सघनता का तत्व कभी शिथिल नहीं पड़ा. साधारण की संभावना, सघनता, रहस्य और विस्मय उनकी कला का अध्यात्म कहे जा सकते हैं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)